Sunday, June 8, 2008

गांधी : व्यक्ति या विचार की एक परम्परा?

आचार्य राममूर्ति

गांधी नाम का जो व्यक्ति था वह वह आज से 60 वर्ष पहले समाप्त हो गया। उसे मार दिया गया। मारनेवाले की उससे कोई निजी दुश्‍मनी नहीं थी। उसने यह मानकर मारा कि गांधी के विचारों से देश का अहित हो रहा है। सामान्य स्थिति में इस तरह का निर्णय कानून करता है, लेकिन गांधी के सम्बन्ध में यह निर्णय नाथूराम गोडसे और उसके साथियों ने कर लिया; बल्कि स्वयं वीर सावरकर ने किया। सच बात तो यह है कि गांधीजी की जब हत्या हुई तो वह एक ऐसे व्यक्ति थे जिनको करोड़ों भारतीय घृणा की दृष्टि से देखते थे। एक दिन उन्होंने अपने सचिव प्यारेलाल से कहा, 'प्यारेलाल, क्या तुम जानते हो कि वे मुझे शत्रु नम्बर एक मानते हैं।' वे यानी मुसलमान। हत्या की हिन्दू ने लेकिन हिन्दुओं से ज्यादा घृणा की मुसलमानों ने। कितनी विचित्र बात है कि जिस व्यक्ति ने कभी किसी को घृणा की दृष्टि से नहीं देखा उससे नफरत करनेवाले इतने अधिक लोग हो गये थे। यही हाल शायद अनेक महापुरुषों का रहा है। ईसा ने किससे नफरत की !
गांधी ने कहा था : ''बाहर मेरी आवाज बन्द हो जायेगी तो मैं अपनी कब्र से बोलूँगा।''
'गांधीजी को गये 60 वर्ष हो गये। क्या अब उनके कब्र से बोलने का समय आ गया है? पाकिस्तान से मित्रता की बातें चल रही हैं, चलती ही जा रही हैं। देश में कहीं कोई संकट पैदा होता है तो गांधीजी की याद आती है, जेपी की याद आती है। मन में सवाल उठता है कि इन गये बीते लोगों की याद क्यों आती है। अंग्रेजी राज को समाप्त हुए इतने वर्ष हो गये लेकिन अभी तक हम यह भी नहीं तय कर सके कि भारत में रहनेवाले हर आदमी का पेट कैसे भरेगा, तन कैसे ढंकेगा, हर बच्चे की पढ़ाई कैसे होगी, बीमार की दवा कैसे होगी, बाढ़ आयेगी तो क्या होगा, सूखा पड़ेगा तो क्या होगा। ख्याल होता है कि गांधी होते, जेपी होते तो कुछ सोच लेते। और बातों को छोड़ भी दें तो हमने अभी तक यह भी नहीं तय किया कि भारत के एक अरब से अधिक लोग साथ कैसे रहेंगे। क्यों कश्‍मीर से दूसरी तरह की आवाजें आती हैं। क्यों उत्तर-पूर्व से भारत से निकल जाने की बातें आती हैं।
अगर गांधीजी की हत्या नहीं हुई होती तो 08 और 09 फरवरी को गांधीजी पाकिस्तान गये होते। इसकी इजाजत गांधीजी ने स्वयं पाकिस्तान के गवर्नर जनरल कायदे आजम जिन्ना से ले ली थी । जिन्ना ने गांधी जी के जाने के विचार का स्वागत किया था। लेकिन यह कहा था कि पाकिस्तान का माहौल अच्छा नहीं है, इसलिए पाकिस्तान आने पर गांधीजी को पुलिस और सेना के संरक्षण में रहना पड़ेगा। लेकिन वे दिन नहीं आये और पाकिस्तान जाने के एक हफ्ता पहले ही गांधीजी दुनिया से विदा कर दिये गये। आज भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे से दोस्ती की बात कहते थक नहीं रहे हैं। क्या गांधीजी ने कब्र से बोलना शुरू कर दिया है ।
क्या कारण है कि आज तक देश की कोई भी समस्या हल नहीं हो पायी -न खाने की, न कपड़े की, न षिक्षा और स्वास्थ्य की, न शांति और पड़ोसीपन की। गांधीजी ने कहा था कि अगर हम अपनी आजादी को अच्छी तरह नहीं चला पायेंगे तो उसी जगह लौट जाना पड़ेगा जहाँ से हम आजादी के लिए निकले थे। क्या हम उस दिशा में तेजी के साथ बढ़ रहे हैं।
इतनी तरक्की तो हो गयी दिखाई देती है कि हमारे शहरों में दुनियाँ में कहीं बना हुआ अच्छा-से-अच्छा सामान मिल सकता है। अगर इसको तरक्की मानें तो कर्ज न दे सकने वाले खेतिहर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, भूख से लोग मर क्यों रहे हैं। क्यों एक-एक मर्द और औरत का हृदय निराशा और क्रोध से भरता जा रहा है। कारखाना खोलना हो तो विदेश की पूँजी की जरूरत हो सकती है लेकिन पड़ोसी के साथ शांतिपूर्वक रहना हो तो उसके लिए किस पूँजी की जरूरत है। इसी तरह अगर घर-घर में छोटे उद्योग चलाने हों तो विदेश से कर्ज लेने या विश्‍व बैंक से पूँजी माँगने की जरूरत क्यों होनी चाहिए।
भारत आज तक यह नहीं तय कर सका कि उसको आगे जाने के लिए किस रास्ते पर चलना है। क्या हम अमेरिका के रास्ते पर चलना चाहते हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और शक्तिषाली देश है लेकिन दुनियाँ को आतंक से मुक्त करने के लिए सारी मनुष्य जाति को अपने आतंक में रखना चाहता है। कहा जाता है कि बीसवीं शताब्दी सबसे वैज्ञानिक शताब्दी थी लेकिन जो शताब्दी बीती और नयी शताब्दी के पांच वर्ष बीत रहे हैं यह समय इतिहास में सबसे अधिक खूनी सिध्द हुआ है। भारत की आजादी भी खूनी सिध्द हुई क्योंकि करोड़ों लोगों के दिलों में जो गुस्सा भरा हुआ था वह अचानक खून बनकर निकल पड़ा। दिखाई यह देता है कि हमारी हर समस्या गुस्सा पैदा करती है और उसके बाद खून की शक्ल लेकर प्रकट होती है। पहले क्रोध, फिर खून, यही क्रम चलता जा रहा है। हमने राजनीति ऐसी बनायी जो क्रोध और घृणा के सिवाय दूसरा कुछ जानती ही नहीं है। दिल्लीराज, पटनाराज के बाद पंचायतीराज कायम हुआ लेकिन वहाँ भी क्रोध और खून का वही सिलसिला। पंचायतीराज पड़ोस में पड़ोस का राज है। लेकिन दृश्‍य कुछ दूसरा ही दिखाई दे रहा है ।
इतने अधिक राजनैतिक दल, इतनी अधिक संस्थाएँ और इतनी बड़ी नौकरशाही - लगता है जैसे हर तीसरा चौथा आदमी देश को बनाने में ही लगा हुआ है लेकिन देश है कि बनने का नाम नहीं लेता। जीवन क्रोध, घृणा और खून से भरता जा रहा है। गांधी की आवाज, अभी धीमी आवाज, कब्र से कह रही है कि यह रास्ता छोड़ो और सत्य तथा शांति का रास्ता पकड़ो। यही बात वेद, उपनिषद और गीता ने कही, विनोबा और जेपी ने कही। कहनेवाले कहते जा रहे हैं लेकिन हम सुनते नहीं। क्या आवाजें अभी बहुत धीमी हैं ?
आजादी ने हमारी मर्जी का बहुत-सा काम भले ही न किया हो, एक काम कर दिया है, वह यह है कि हम आगे का अपना रास्ता चुन लेने के लिए स्वतंत्र हैं। मार्क्‍स, लेनिन या माओ हों, गांधी, विनोबा या जेपी हों सबके विचार हमारे पास हैं। हम जिसको चाहें स्वीकार करें या जिसको न चाहें उसको छोड़ दें। अपना नया रास्ता खुद निकालें। लेकिन इतनी बात तो तय है कि भारत को नया बनना है। समस्याओं के बोझ से दबा हुआ भारत चल नहीं सकता। हम कितनी भी नयी बातें सोचें लेकिन क्या हम महापुरुषों के बताये हुए सत्य को छोड़ देने का जोखिम उठायेंगे। हजारों वर्ष पुराने इस देश को एक नयी विशेष शैली चाहिए जिसमें ऋषियों के सोचे हुए मूल्य हों तो आधुनिक वैज्ञानिकों की बनायी हुई तकनीक हो। दोनों के समन्वय से विकसित एक नयी जीवन शैली निकालने का काम भारत को करना ही पड़ेगा। वह नयी जीवन शैली असत्य और हिंसा के आधार पर नहीं चलेगी। हम सत्य को छोड़ दें तो विज्ञान छूट जायेगा और अगर हिंसा का रास्ता पकड़ लें तो हम मनुष्य रह ही नहीं जायेंगे। जेपी ने तीस वर्ष हुए यह बताया कि परिवर्तन का पहला चरण कम-से-कम लोकतंत्र की मर्यादाओं को तो मानें और फिर धीरे-धीरे एक नैतिक समाज-रचना की तरफ बढ़ें। लोकतांत्रिक समाज खूनी समाज नहीं होता, हिंसा-मुक्त होता है। एक बार खून को अलग रखकर सोचने की आदत डालनी पड़ेगी। बुध्द ने कहा था, 'मिलो, बात करो और सहमति विकसित करो'। काम की योजना सहमति के आधार पर बने, सत्ताा पक्ष और विपक्ष के आधार पर नहीं। गांधी ने 'सर्व' की बात कही, 'कुछ' की नहीं। यदि सर्व का हित सामने रखना है तो सत्ता और स्वामित्व, दोनों का आग्रह छोड़ना पड़ेगा और जीवन को संपूर्णता में देखना पड़ेगा। मनुष्य चाँद और सूरज तक पहुँच गया है। पृथ्वी पर जीने की सीमाओं को लांघकर अब वह सृष्टि का सदस्य बन रहा है। सृष्टि में जीनेवाला मनुष्य कब तक पृथ्वी की सीमाओं को ढोयेगा। घृणा और असत्य की सीमाओं से उसे आगे बढ़ना ही है। ईसा, बुध्द, महावीर और मुहम्मद की परम्परा में जीनेवाले भारतवासियों ने गांधी, विनोबा और जेपी की परंपरा भी देखी है। अब समय आ गया है कि दुनिया के शुभ तत्वों को जोड़कर एक नयी भारतीय जीवन शैली विकसित की जाये। जीवन की सम्पूर्ण क्रांति युग की पुकार है।

3 comments:

अनुनाद सिंह said...

आपके विचार पढ़कर अच्छा लगा। किन्तु अपनी बात आप संक्षेप में कहते और कुछ ठोस उपाय (हल) बताते तो अधिक लाभकर होता।

हिन्दी ब्लागजगत में स्वागत है!

Ashok Pandey said...

महात्‍मा गांधी के बताये रास्‍ते पर आज हम चलते तो हमारी बहुत सी समस्‍याएं दूर चली जातीं। लेकिन हमारी तो परिपाटी है कि भले दुनिया मान ले, हम अपनी धरती पर जन्‍मे को नहीं मानेंगे। बुद्ध के साथ यही हुआ, गांधी के साथ भी हो रहा है।

अर्चना राजहंस मधुकर said...

अमन जी आपका ब्लॉग देखा....बढ़िया है....आपने बहुत काम किया है...और कर रहे हैं ....अच्छा होगा उन सारी चीजों को इसपर डाल दें....