Tuesday, July 22, 2008

मेरा पैसा मेरा देश

आज इस देश को अपने सांसदों पर बलिहारी होना चाहिए। अबतक जो कुछ वे संसद से बाहर करते आए हैं आज वही 'दुस्‍साहस ' उन्‍होंने संसद के भीतर अंजाम देकर देश को साफ तौर पर यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनकी करनी और कथनी का अंतर किस तेजी से घटता जा रहा है। आज के तमाम अखबारों और टीवी चैनलों ने 22 जुलाई के इस दिन को भारतीय लोकतंत्र का काला दिन करार दिया है। मुझे लगता है यह हमारे सांसदों, उनकी निष्‍ठा और इच्‍छाशक्ति का अपमान है। जब मनमोहन और सोनिया गांधी की सरकार ने संसद में विश्‍वास मत पाने के लिए हत्‍या समेत तमाम गैरकानूनी हरकतों के लिए जेल में बंद तमाम सांसदों को संसद में बुलाने का फैसला किया था देश को तभी समझ जाना चाहिए था कि उन्‍हें इस विश्‍वास की क्‍या कीमत चुकानी पड़ सकती है। अब तो उन्‍हें खामोशी से अपने घरों में बैठकर इस तमाशे को देखने और अगले चुनावों में एक बार फिर इसी तमाशे का हिस्‍सा बनने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि हम जिस फसल के बीज बोते हैं उसकी फसल होने पर नाक, भौं सिकोड़ते हैं और पानी, खाद देने वालों को कोसते हैं। जब हम हर दिन ट़ेनों में बिना रिजर्वेशन कराए टीटी को पैसे देने में शर्मिंदा नहीं होते, बिना हैलमेट पहने बाइक की सवारी करने पर पुलिस की हथेली चुपचाप गर्म करने में बेशर्म बन जाते हैं, ड़ाइविंग लाइसेंस बनवाने कभी आरटीओ नहीं जाते, एजेंट को पैसे देकर खुश हो जातें हैं कि घर बैठे लाइसेंस मिल गया, रास्‍ते में सड़क हादसा देखकर भी अनदेखा करतें हैं कि कहीं गवाही न देनी पड़ जाए, तमाम सरकारी आफिसों में बाबुओं को इसलिए ज्‍यादा पैसे खिलाते हैं कि काम जल्‍द हो जाए तो उस वक्‍त हम इन सांसदों की हरकतों के लिए बेहतर जमीन तैयार कर रहे होते हैं। हम बहाने बनाते हैं कि नेताओं के पदचिन्‍हों पर ही जनता चलती है लेकिन हम केवल उन्‍हीं नेताओं के पदचिन्‍ह ढूंढते हैं जो सबसे ज्‍यादा काले और गहरे हों, जिन्‍हें माथे पर सबसे ज्‍यादा दाग हों। क्‍योंकि हमें पता है कि ईमानदारी आज एड़स से भी घातक ऐसी बीमारी बन गई है जिसके लगने पर घर, परिवार और देश का विनाश संभव है। हमें तो आज खुश होना चाहिए कि सांसदों ने संसद के भीतर एक करोड़ के नोटों का सार्वजनिक प्रदर्शन कर पूरे देश के सामने आगे का रास्‍ता खोल दिया है। अब हमें संभ्रांत और कुलीन घरों की बहुओं की तरह घूंघट के भीतर रहकर अपनी वासनाओं को अंदर ही अंदर दबाते रहने की जरूरत नहीं है, अब हम खुलेआम लेन देने का खेल खेल सकते हैं। देश के इस हमाम में क्‍या नेता और क्‍या प्रजा। जब तक हमाम में पानी है सभी को नंगे होकर जमकर नहाना चाहिए। जब पानी खत्‍म हो जाए तो एक दूसरे का खून बहाना शुरू कर देना चाहिए और उसमें डुबकी लगानी चाहिए। और अंत में जब सब खत्‍म हो जाएगा शायद तब खून की इन सूखी पपडियों के ऊपर फिर से ईमानदारी का एक नया अंकुर फूटे।

Sunday, July 6, 2008

और आप कहते हैं नक्‍सलवाद बढ़ रहा है


देश में बढ़ता नक्‍सलवाद हमारे, आपके सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। इस तीन जुलाई को जब समूचा देश अमरनाथ के मुद़दे पर श्राईन बोर्ड को दी जमीन वापस लेने के जम्‍मू कश्‍मीर सरकार के फैसले के विरोध की आग की लपटों में झुलस रहा था, गुजरात में गोधरा, पंचमहाल का क्षेत्र एक नई तरह की समस्‍या से जूझ रहा था। अगर कोई और दिन होता या यही घटना छत्‍तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश अथवा झारखंड में होती तो कम से कम इसे नक्‍सलवादी हमले के तौर पर अखबारों में थोड़ी जगह तो मिल ही जाती। लेकिन यहां मुद़दा धार्मिक, सांप्रदायिक न होकर प्रशासनिक नाकारेपन का था और इसीलिए यह मीडिया से लगभग अछूता ही रह गया।


गुजरात का गोधरा एक बार फिर चर्चा में हैं। इस बार यह सांप्रदायिक नहीं बल्कि मोदी सरकार की उदासीनता, उपेक्षा और लापरवाही के चलते चर्चा में आया है। यहांपंचमहाल जिले की दो तहसीलों, संतरामपुर और कडाणा में रहने वाले सैकड़ों आदिवासी 3 जुलाई को सड़कों पर थे। ये श्राईन बोर्ड की जमीन के मुद़दे पर नहीं बल्कि अपनी जमीन पर अपनी पहचान साबित करने की लड़ाई लड़ रहे थे। पिछले 10 सालों से जारी जाति प्रमाण पत्र बनवाने की लड़ाई के धीरज का बांध टूट चुका था। हजारों आदिवासियों ने 3 जुलाई को कडाणा के तहसीलदार कार्यालय पर हमला बोल दिया। चूंकि यह नक्‍सली हमला नहीं था इसलिए दिन दहाड़े और बताकर किया गया। जाहिर है सरकार की ओर से खासी तैयारी खाकी वर्दी के रूप में मौजूद थी। दोनों ओर से जमकर पत्‍थर चले, लोग घायल हुए। पुलिस ने आदिवासियों पर काबू पाने के लिए आंसू गैस के गोले भी छोड़े। बहरहाल पुलिस के आला सूत्रों और सरकार के बयानों के मुताबिक हालात काबू में हैं। लेकिन सवाल यह है कि 10 साल से जारी प्रशासनिक उपेक्षा और लापरवाही का रवैया रातोंरात बदल जाएगा ऐसा कोई चमत्‍कार गुजरात में होगा क्‍या हमें इसकी उम्मीद करनी चाहिए। शायद नहीं। यूं भी नरेंद्र मोदी सरकार का सारा ध्‍यान अहमदाबाद, गांधीनगर और सूरत सरीखे शहरों को ही चमकाने में लगा हुआ है।
आदिवासी संघर्ष समिति के बैनर तले जुटे ये आदिवासी तो महज उन हजारों लोगों के प्रतिनिधि हैं जो आदिवासी गांवों में बैठे न्‍याय की बाट जोह रहे हैं। तीन जुलाई को इनके आह़वान पर जिस तरह समूची कडाणा तहसील का कारोबार ठप हो गया उससे साफ पता चलता है कि स्‍थानीय लोगों पर इनका कितना असर है। सरकार भले इनकी ना सुने, अपने हकों को लेकर इनके अंदर पनपी जागरूकता अब संघर्ष से सींची जा चुकी है और लंबी लड़ाई के लिए तैयार है। अगर आदिवासियों की इस नाराजगी को गुजरात की व्‍यावसायिक सफलता में मदांध्‍ा सरकार समझने और सुलझाने में सफल नहीं होती तो निश्चित ही यहां हालात बेकाबू हो सकते हैं। ऐसी हालत में इन आंदोलनरत नाराज आदिवासियों का अगला कदम क्‍या होगा। हो सकता है वे अगला वार दिन की बजाय रात में, बिना सरकार को बताएं करें। तब सरकार को उन्‍हें नक्‍सली बताना और उनपर गोलियां चलाना आसान हो जाएगा। और मुख्‍यधारा मीडिया जो अब तक इस मुद़दे पर कान नहीं धर रहा, गुजरात में मोदी के राज में नक्‍सलवाद सरीखी खबरों को मसाले के साथ छापेगा, दिखाएगा। और हम भविष्‍य के नक्‍सलवाद की इस जमीन को भुलाकर अमरनाथ की जमीन श्राईन बोर्ड को वापस करने के खिलाफ जारी आंदोलन पर ही अपने गुबार निकालते रहेंगे।