देश में बढ़ता नक्सलवाद हमारे, आपके सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। इस तीन जुलाई को जब समूचा देश अमरनाथ के मुद़दे पर श्राईन बोर्ड को दी जमीन वापस लेने के जम्मू कश्मीर सरकार के फैसले के विरोध की आग की लपटों में झुलस रहा था, गुजरात में गोधरा, पंचमहाल का क्षेत्र एक नई तरह की समस्या से जूझ रहा था। अगर कोई और दिन होता या यही घटना छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश अथवा झारखंड में होती तो कम से कम इसे नक्सलवादी हमले के तौर पर अखबारों में थोड़ी जगह तो मिल ही जाती। लेकिन यहां मुद़दा धार्मिक, सांप्रदायिक न होकर प्रशासनिक नाकारेपन का था और इसीलिए यह मीडिया से लगभग अछूता ही रह गया।
गुजरात का गोधरा एक बार फिर चर्चा में हैं। इस बार यह सांप्रदायिक नहीं बल्कि मोदी सरकार की उदासीनता, उपेक्षा और लापरवाही के चलते चर्चा में आया है। यहांपंचमहाल जिले की दो तहसीलों, संतरामपुर और कडाणा में रहने वाले सैकड़ों आदिवासी 3 जुलाई को सड़कों पर थे। ये श्राईन बोर्ड की जमीन के मुद़दे पर नहीं बल्कि अपनी जमीन पर अपनी पहचान साबित करने की लड़ाई लड़ रहे थे। पिछले 10 सालों से जारी जाति प्रमाण पत्र बनवाने की लड़ाई के धीरज का बांध टूट चुका था। हजारों आदिवासियों ने 3 जुलाई को कडाणा के तहसीलदार कार्यालय पर हमला बोल दिया। चूंकि यह नक्सली हमला नहीं था इसलिए दिन दहाड़े और बताकर किया गया। जाहिर है सरकार की ओर से खासी तैयारी खाकी वर्दी के रूप में मौजूद थी। दोनों ओर से जमकर पत्थर चले, लोग घायल हुए। पुलिस ने आदिवासियों पर काबू पाने के लिए आंसू गैस के गोले भी छोड़े। बहरहाल पुलिस के आला सूत्रों और सरकार के बयानों के मुताबिक हालात काबू में हैं। लेकिन सवाल यह है कि 10 साल से जारी प्रशासनिक उपेक्षा और लापरवाही का रवैया रातोंरात बदल जाएगा ऐसा कोई चमत्कार गुजरात में होगा क्या हमें इसकी उम्मीद करनी चाहिए। शायद नहीं। यूं भी नरेंद्र मोदी सरकार का सारा ध्यान अहमदाबाद, गांधीनगर और सूरत सरीखे शहरों को ही चमकाने में लगा हुआ है।
आदिवासी संघर्ष समिति के बैनर तले जुटे ये आदिवासी तो महज उन हजारों लोगों के प्रतिनिधि हैं जो आदिवासी गांवों में बैठे न्याय की बाट जोह रहे हैं। तीन जुलाई को इनके आह़वान पर जिस तरह समूची कडाणा तहसील का कारोबार ठप हो गया उससे साफ पता चलता है कि स्थानीय लोगों पर इनका कितना असर है। सरकार भले इनकी ना सुने, अपने हकों को लेकर इनके अंदर पनपी जागरूकता अब संघर्ष से सींची जा चुकी है और लंबी लड़ाई के लिए तैयार है। अगर आदिवासियों की इस नाराजगी को गुजरात की व्यावसायिक सफलता में मदांध्ा सरकार समझने और सुलझाने में सफल नहीं होती तो निश्चित ही यहां हालात बेकाबू हो सकते हैं। ऐसी हालत में इन आंदोलनरत नाराज आदिवासियों का अगला कदम क्या होगा। हो सकता है वे अगला वार दिन की बजाय रात में, बिना सरकार को बताएं करें। तब सरकार को उन्हें नक्सली बताना और उनपर गोलियां चलाना आसान हो जाएगा। और मुख्यधारा मीडिया जो अब तक इस मुद़दे पर कान नहीं धर रहा, गुजरात में मोदी के राज में नक्सलवाद सरीखी खबरों को मसाले के साथ छापेगा, दिखाएगा। और हम भविष्य के नक्सलवाद की इस जमीन को भुलाकर अमरनाथ की जमीन श्राईन बोर्ड को वापस करने के खिलाफ जारी आंदोलन पर ही अपने गुबार निकालते रहेंगे।
2 comments:
u r simply undermining a problem bigger than naxalism . whole nation pays the price for waywardness of kashmiri majority sans any feeling of nationalism and their sympathy for pakistan.what has happened in kasmir is a victory of bloody separatist forces.
मुनीष भाई, यहां बात समस्या को कम या ज्यादा बड़ी करके देखने की नहीं है। कश्मीर की जमीन के मुद़दे पर देश में हजारों करोड़ का नुकसान हो चुका है, सात जानें जा चुकी हैं, अखबारों के पन्ने काले हो चुके हैं, इससे ज्यादा छापने की शायद गुंजाइश बची भी नहीं थी। मैं यह बता रहा हूं कि इसी दौर में एक और समस्या चुपचाप बड़ा आकार ले रही है और हमारा मीडिया इस पर खामोश है। निश्चित ही इसे भी कुछ स्थान तो मिलना ही चाहिए। मुझे तो यह समझ नहीं आता कि सैकड़ों सालों से जारी अमरनाथ यात्रा और उसके यात्रियों की धार्मिकता पर जमीन के एक टुकड़े के मिलने या न मिलने से क्या फर्क पड़ जाता है। इतने सालों से बाबा बर्फानी श्राईन बोर्ड की जमीन की मेहरबानी के बगैर भी बाबा के भक्तों को आशीर्वाद देते ही आ रहे हैं। रहा सवाल कश्मीरी लोगों की पाकिस्तान परस्ती का तो यह पांच दशक पुराना जानबूझकर न सुलझाए जाने वाला मसला है जिसपर राजनीतिक रोटियां जमकर सेंकी जा रही हैं। उस जमीन पर पीडीपी क्या उगाएगा और कांग्रेस क्या खाएगी यह आप भी जानते हैं मैं भी। और बात अगर देशभक्ति की है तो शायद यह ज्यादा जरूरी होगा कि हम देश की इज्जत तार’तार करने वाले भ्रष्टाचार, बलात्कार और बेशर्मी की हर दिन हजारों घटनाओं को रोकने पर अपना ध्यान दें।
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