'भय बिनु होई न प्रीति', यानी बिना डर के दोस्ती नहीं होती। यह पुरानी कहावत है। इसका नया स्वरूप यह है कि 'भय बिनु होई न बिक्री'। यानी डर के बिना बाजार में माल बेचना संभव नहीं है। जी हां, डर या भय यानी इंसान की सबसे महत्वपूर्ण भावना। पहले जिस डर का इस्तेमाल प्रीति करने या लोगों को खतरनाक हालात से बचाने के लिए किया जाता था, आज वही भावना बाजार को बढ़ाने में बेइंतहा इस्तेमाल हो रही है और खुल्लमखुल्ला। चाहे हम अपने समाचार टीवी चैनलों पर आने वाले अपराध संबंधी वे धारावाहिकनुमा कार्यक्रम देखें जिनमें जरिए हमें अपने आसपास के माहौल से हमेषा सतर्क रहने, किसी पर भरोसा न करने की ताकीद की जाती है। इन चैनलों पर हत्या, बलात्कार, लूट जैसी घटनाओं के नाटकीय रूपांतर हमें अंदर तक भयभीत कर देते हैं, या फिर अखबारों में सुर्खियां बनती इन्हीं खबरों के विस्तार में जाएं जिनसे ऐसा लगता है मानो पूरा समाज हत्यारा, लूटेरा और बलात्कारी हो गया है, और इनके बारे में लगातार जानने के लिए चैनल देखना तथा अखबार पढ़ते रहना जरूरी है। और इसी बढ़ते दर्षक या पाठक वर्ग का फायदा उठाती हैं विज्ञापन एजेंसिंया, जो उन्हीं अखबारों, चैनलों को ज्यादा विज्ञापन देती हैं जिन्हें ज्यादा दर्षक या पाठक मिलते हैं। और हम जाने-अनजाने अपराध, हिंसा, लूट तथा बलात्कार की खबरों के बीच आने वाले विज्ञापनों के शिकार बन जाते हैं।
आइए इस मुद्दे को जरा गहराई से समझते हैं। दरअसल इसके दो पहलू हैं। पहला पहलू विशद्व तकनीकी है, यानी भय का वैज्ञानिक या यूं कहें डाक्टरी पक्ष। अगर इस नजरिए से देखेंं तो हम पाएंगे कि भय, डर या फोबिया की सात सौ से भी ज्यादा तरह की किस्में हैं। यानी हमारे आसपास या दुनिया में कम से कम सात सौ तरह के डर हो सकते हैं। इनमें मरने का डर निश्िचत तौर पर सबसे महत्वपूर्ण है, लेकिन ऐसे भी कई भय हैं, जिनके बारे में हममें से ज्यादातर को पता ही नहीं है। मसलन, सड़क पार करने का भय 'एगॉरोफोबिया', विचारों से भय 'ऐलोडोक्साफोबिया', हवा से भय 'एन्क्रेओफोबिया', आदमी से भय 'एंड्रोफोबिया', अंकों से भय 'अर्थमोफोबिया', मिसाइल या गोलियों से भय 'बैलिस्टोफोबिया', किताबों से भय 'बिब्लियोफोबिया', खूबसूरत औरतों से भय 'कैलिगॉयनेफोबिया', बैठने का भय 'कैथिसोफोबिया', पैसों से भय 'क्रोमेटोफोबिया', कंप्यूटर से भय 'साइबरफोबिया', घर का भय 'इकोफोबिया', स्वतंत्रता का भय 'इल्यूथिरोफोबिया', ज्ञान का भय 'एपिस्टेमोफोबिया', ईश्वर का भय 'ज्यूसोफोबिया' आदि आदि। इन तमाम तरह के भय या फोबिया के अनेक कारण होते हैं और उनमें से ज्यादातर मनोवैज्ञानिक होते हैं। यानी व्यक्तिगत तौर पर इनमें से किसी भी भय के शिकार लोग मनोवैज्ञानिक के पास जाकर अपनी समस्या का हल कर सकते हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो हमारे लिए कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। और वह है भय या फोबिया की इस नितांत व्यक्तिगत भावना का व्यापारिक दोहन, यानी इन डरों को बाजार के लिए इस्तेमाल करना। और यही आज विज्ञापन की दुनिया की असल कमाई है।
अगर भय और विज्ञापन के इस रिश्ते को थोड़ा पीछे जाकर देखें तो हम पाएंगे कि 90 के दशक में अमेरिकन टेलीविजन पर क्लैरिटन नामक दवा का एक विज्ञापन अभियान चला था, जो दवा उद्योग को अपने उत्पादों का विज्ञापन करने के लिए मिली छूट का संभवत: पहला बड़ा इस्तेमाल था। इस दवा के उत्पादक शेरिंग प्लाउ कारपोरेशन ने प्रयोगों के दौरान इसके महज 46 फीसदी सफल होने तथा इसके असरदायक होने के दावों के संदेह के दायरे में घिरे होने के बावजूद अपने विज्ञापनों में जबर्दस्त प्रचार किया और डायबिटीज के रोगियों के लिए इसे अमरबाण की तरह प्रस्तुत किया। इसका असर यह रहा कि क्लैरिटन अब तक के इतिहास में विज्ञापन के बल पर सबसे ज्यादा बिकने वाली दवा की श्रेणी में आ गई। और यह हुआ इस दवा के विज्ञापन के जरिए दुनिया भर में डायबिटीज के रोगियों में एक विषेश तरह का भय पैदा करना और उसके निदान के लिए क्लैरिटन का उपयोग करने का माहौल बनाना। इसी तरह स्तन कैंसर के लिए जिम्मेदार एक जीन पर किए गए प्रयोग 'बीआरसीए' से जुड़ी कंपनी मॉयरिड जेनेटिक्स ने अपने विज्ञापन में स्तन कैंसर का भय कई गुना ज्यादा कर बताया और दुनिया भर की महिलाओं को कंपनी के क्लीनिकों में जाकर विशेष कैंसर परीक्षण के लिए प्रेरित किया।
इन परीक्षणों की कीमत के रूप में कंपनी ने करोड़ों कमाए लेकिन वह यह साबित तक नहीं कर पाई कि जिन महिलाओं का उसने परीक्षण किया वे स्तर कैंसर के लिए पॉजिटिव थीं या नेगेटिव। ऐसे हर एक परीक्षण की कीमत थी 2800 डालर यानी लगभग सवा लाख रुपए। हालांकि तमाम तकनीकी व वैज्ञानिक कारणों से इस कंपनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी पर इससे यह जरूर तय हो गया कि प्रामाणिक तथा विश्वसनीय माने जाने वाले प्रयोगशाला के प्रयोग भी अब बाजार में आम लोगों को बेवकूफ बनाकर कंपनियों के मुनाफे के लिए इस्तेमाल होने शरू हो चुके थे। जाहिर है कि इससे वैज्ञानिकों, अनुसंधानों तथा प्रयोगशालाओं की विश्सनीयता और नीयत पर सवाल उठ खड़े हुए।आज ऐसी दवाओं की एक लंबी फेहरिस्त मौजूद है जो तमाम तरह की बंदिशों तथा दुष्प्रभावों के बावजूद विज्ञापनों के बल पर आम जनता को बेवकूफ बनाकर करोड़ों की कमाई कर रही हैं। साथ ही ऐसे विज्ञापनों की भी एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिनमें भय या डर को केंद्र बिंदु बनाकर अपना उत्पाद बेचा जाता है। कुछ की बानगी यूं है,'एलजी के लैट स्क्रीन टीवी का विज्ञापन देखें, जिसमें एक बच्चा स्कूल के बाद सीधे घर न जाकर एक टीवी के शो’रूम के बाहर खड़ा टीवी देख रहा है, और उसकी शिकायत यह है कि मां आंखें खराब होने के भय से उसे टीवी नहीं देखने देती, लेकिन यहीं एलजी का विज्ञापन कहता है कि उनके नए टीवी में आंखे खराब होने का कोई भय नहीं है।' क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि डॉक्टरों की तमाम हिदायतों और आंखों में तकलीफों के बावजूद इस विज्ञापन के बाद कितने लाख बच्चों ने अपने अभिभावकों से एलजी के टीवी अपने घरों पर लगाने की जिद की होगी। इस विज्ञापन में आखिर ऐसे किस संस्थान, प्रयोगशाला या डॉक्टर का जिक्र किया गया है जो यह दावा करता है कि इस अनूठे टीवी की स्क्रीन निहारने पर आंखें खराब नहीं होतीं।' इसी तरह लड़कियों की शादी के सिलसिले में कई विज्ञापन अपनी हदें पार करते नजर आते हैं। एक विज्ञापन में लड़के वाले कहते हैं कि जिस घर की दीवारों से चूना झड़ता हो, वहां की लड़की की क्या शादी करनी। और जब यही घर बिड़ला व्हाइट सीमेंट से चमकता है और दोनों परिवारों में रिश्ता तय हो जाता है। तो क्या आम घरों की लड़कियां जिनके घर झड़ने वाले चूनों से पोते जाते हैं, वे शादी करने लायक नहीं है। हैरानी की बात है कि ऐसे विज्ञापनों पर किसी महिला संगठन ने आवाज नहीं उठाई। इसी तरह सांवली लड़कियों को हमारे टीवी विज्ञापनों के मुताबिक शादी करने का कोई अधिकार नहीं है, कयोंकि हर बार लड़की देखने आने वाले लोग सांवली लड़कियों को नकार देते हैं, लेकिन जब वही लड़कियां फेयर एंड लवली या ऐसे ही अन्य सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से 'करिश्माई' ढंग से गोरी हो जाती हैं तो उनके लिए लड़कों की लाइन लग जाती है। कुदरती तौर पर मिलने वाले सांवलेपन को हीनभावना का कारण बताने वाले विज्ञापन क्या हमारी लड़कियों में भय पैदा नहीं कर रहे। गौरतलब है कि भारत के संविधान में रंग, जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की बात कही गई है, ऐसे विज्ञापन क्या भारतीय संविधान का खुल्लमखुला उल्लंघन नहीं कर रहे हैं।
ऐसे ही एक विज्ञापन में खेतान खुद को पंखों का बाप बताते हुए कहता है कि जिस घर में पंखों का बाप नहीं है वहां की लड़की से शादी नहीं हो सकती है। अब इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि विज्ञापन वाले इस घर में लड़की के पिता नहीं हैं। यानी जिस लड़की का पिता न हो उससे शादी नहीं की जा सकती। ऐसे विवादित विज्ञापनों की सूची काफी लंबी है। ऐसा नहीं है कि ऐसे विज्ञापनों पर किसी की नजर जाती न हो या इनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जाता है। कुछ महीनों पहले मुंबई की एक महिला ने बच्चों की सर्वोत्तम देखभाल करने का दावा करने वाली बहुराष्ट़ीय कंपनी 'जॉनसन एंड जॉनसन' पर दावा ठोका कि उसके उत्पादों में बच्चों की कोमल त्वचा को नुकसान पहुंचाने वाले तत्व हैं जबकि वह अपने विज्ञापनों में दावा करती है उसके उत्पादों से बच्चों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। इस महिला की षिकायत पर 'खाद्य व औषधि नियंत्रक' ने कंपनी को ड्रग व कॉस्मेंटिक अधिनियम, 1940 की धारा 17 (सी) के तहत नोटिस भेजा कि वह अपने उत्पादों से 'बेबी उत्पाद' का ब्रांड हटा ले क्योंकि उसके उत्पादों में इस तथ्य का जिक्र नहीं है कि उनमें 99 फीसद हल्का पैराफिन नामक द्रव्य पदार्थ है जो बच्चों के लिए नुकसानदायक है। बहरहाल अभी तक तो कंपनी ने अपने उत्पादों से 'बेबी उत्पाद' का ब्रांड नहीं हटाया है और ना ही उसके खिलाफ कोई और कार्रवाई की गई है।
इसकी वजह जाननी कोई खास मुश्किल भी नहीं है। विज्ञापन का बाजार बेहद ताकतवर और पहुंच वाला है, अगर इसमें मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय को जोड़ दिया जाए फिर तो बात ही क्या है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि प्राइसवाटर कूपर हाउस के अनुसार सन 2008 तक वैश्विक मीडिया तथा मनोरंजन व्यवसाय बढ़कर 1.7 खरब डालर लगभग '85 खरब रुपए' का हो जाएगा। इस कमाई में मांग पर वीडियो, इंटरनेट विज्ञापन, रेडियो पर विज्ञापन, वीडियो खेल आदि का काफी बड़ा हिस्सा होगा। अगर हम केवल विज्ञापन की दुनिया की कमाई देखें तो पाएंगे की यह समूची दुनिया की कमाई का एक प्रतिषत हिस्सा बनाता है। सन 2004 के आंकड़ों के मुताबिक यह राशि 365.8 अरब डालर के करीब पहुंचती है जिसमें अकेले उत्तरी अमेरिका का हिस्सा 167.8 अरब डालर का है। जबकि अफ्रीका, मध्य-पूर्व और भारत जैसे देशों की विज्ञापन से कुल कमाई महज 15.6 अरब डालर की ही है।
जाहिर है कि अरबों, खरबों की कमाई वाले इस धंधे में रुपए से बड़ा कुछ भी नहीं है। अपना माल बेचने के लिए कंपनियां भय और लालच की किन हदों तक जा सकती हैं और कौन से तरीके आजमा सकती हैं इनकी बानगी रोज अपने टीवी चैनलों और अखबारों में देखी जा सकती है। भारत में भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विज्ञापन बाजार करीब 8000 करोड़ रुपए का है। एक ऐसे दौर में जब मीडिया खबरों पर नहीं विज्ञापनों की बैसाखियों पर चल रहा हो और अपनी तमाम नीतियां विज्ञापन कंपनियों को खुष करने पर आधारित कर रहा हो, यह उम्मीद करना कि अखबारों या टीवी चैनलों के जरिए हमें स्वस्थ, ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और सामाजिक सरोकार वाली सूचनात्मक खबरें मिलेंगी सचमुच वर्तमान बाजारवादी दौर के साथ ज्यादती होगी। ऐसे दौर में जब उत्पाद जरूरत पर नहीं विज्ञापन के आधार पर खरीदे और बेचे जाते हों, मनोवैज्ञानिक तौर पर हमें यह सोचने को मजबूर कर दिया जाता हो कि हमें इन उत्पादों की जरूरत है, यानी हमारी जिंदगी और खुषियां ही नहीं हमारी सोच पर भी विज्ञापन कंपनियों का कब्जा होता जा रहा हो, बुनियादी जरूरतों, मानवीय संबंधों और बेहतर जीवन के लिए हमें कम से कम मीडिया और विज्ञापन बाजार से उम्मीद का आंचल छुड़ा लेना चाहिए।
विज्ञापन से जुड़े कुछ तथ्य :
अमेरिका के चोटी विज्ञापनदाता
कंपनी खर्च'मिलियन डालर में'
प्रोक्टर एंड गैंबल 2915.10
जनरल मोटर्स 2802.60
टाइम वार्नर्स इंक. 2062.30
एसबीसी 1867.70
डेमलर क्रिसलर 1825.30
फोर्ड मोटर्स 1643.50
वेरीजॉन 1624.90
वाल्ट डिजनी कंपनी 1484.10
जॉनसन एंड जॉनसन 1289.30
न्यूजकॉर्प लिमि. 1129.20
कुल 18744.20
स्रोत: टीएनएस मीडिया इंटेलीजेंस
मीडिया द्वारा विज्ञापनों पर खर्च
मीडिया समूह खर्च मि.डॉलर
स्थानीय अखबार 24555.50
नेटवर्क टीवी 22522.40
उपभोक्ता पत्रिकाएं 21292.20
स्पॉट टीवी 17305.40
केबल टीवी 14248.80
इंटरनेट 7441.50
स्थानीय रेडियो 7330.50
राश्ट्रीय अखबार 3255.20
नेषनल स्पाट रेडियो 2616.50
रविवारी पत्रिकाएं 1497.40
नेटवर्क रेडियो 1027.80
स्थानीय पत्रिकाएं 360.20
कुल 123453.4
5 comments:
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने. बहुत सारी जानकारी देती हुई आपकी पोस्ट वाकई बहुत सुंदर है.
उम्दा विश्लेषण-बढ़िया पोस्ट. आभार.
बिल्कुल सही कह रहे हैं। जिसकी जरूरत नहीं उसकी भी जरूरत बना देते हैं ये विग्यापन।
घुघूती बासूती
सन ७० को दशक में अमरीकी कंपनी फैरेक्स आदि के सहयोग से अमरीकन डाक्टरों का एक रिसर्च आया जिसमें कहा गया फैरेक्स पियो ...मां का दूध दूषित हो सकता है ..घर घर में डिब्बे वाले दूध आ गये और नौनिहाल बच्चे वही डिब्बाबंद दूध पीने लगे ..समय बदला और विश्लेषकों का बाद में ये रिसर्च आया कि मां का दूध सर्वोतम होता है ...लेकिन एक जो परिपाटी चली वो आज तक बदस्तूर जारी है ..बाजार के हम गुलाम हो चुके है ..एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन बाजार की शक्तियां आपसे कहेंगी ...बाप बूढा हो गया है दे दो उसको मोर्चरी में विश्लेषक रिसर्च करेंगे तुम्हें १००० डालर मुआवजे के तौर पर दे दिये जाएंगे ..मेरी परिकल्पना है ..अन्यथा ना लेंगे ।
रविवार पर आपका लिंक देख कर लगा कि कोई भावुक सी प्रेम भरी कथा-कहानी वाली ब्लाग होगी लेकिन आपने तो भरम तोड़ दिया. इतने विश्लेषणात्मक तरीके से आपने सब कुछ लिखा है कि मन खुश हो गाया.
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