मध्यप्रदेश के हरे-भरे शिखर गौरव अमरकंटक (पर्यंक पहाड़) के बारे में एक पौराणिक कथा काफी प्रचलित है। इसके मुताबिक राजा हिरण्यकश्यप के अत्याचारों व पापों से दुखी होकर लोपित हुई नर्मदा को वापस धरती पर धारण करने के लिए जब दूसरे सभी पर्वतों ने असमर्थता जता दी तब इस विंध्याचल पुत्र ने अपनी मजबूत वादियों में नर्मदा की तेज धार सहन की थी। नर्मदा की इस वापसी के लिए राजा पुरुरवा ने कठोर तप किया था ताकि उसके पवित्र जल से सारे संसार का पाप धोया जा सके। इस मिथक को बताने का मकसद केवल यह है कि एक बार फिर नर्मदा का लोप होने जा रहा है। और इस बार कोई पुरुरवा उसे वापस अमरकंटक की वादियों में कल-कल की आवाज पर बहने पर राजी नहीं कर पाएगा। क्योंकि वर्तमान हिरण्यकश्यप बने जंगल तस्करों व बाक्साइट खदानों से यह वादी इतनी खोखली और बंजर हो चुकी है कि आने वाले दिनों में उसमें नर्मदा को धारण करने का सामर्थ्य ही नहीं बचेगा।
इसकी शुरुआत नर्मदा के मैलेपन से हो चुकी है। हाल ही मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से नर्मदा के जल की शुध्दता जांचने के लिए किए गए एक परीक्षण में पता चला है कि अमरकंटक में नर्मदा सबसे ज्यादा मैली है।
गौरतलब है कि अमरकंटक नर्मदा और सोन सरीखी राष्ट्रीय महत्व की बड़ी नदियों का उद्गम स्थल है। समुद्र तल से 1067 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस क्षेत्र का महत्व केवल इसके ऐतिहासिक व धार्मिक स्थानों के कारण नहीं है, बल्कि यहां के घने (अब विलुप्तप्राय) जंगलों, उनमें मौजूद ब्राह्मी, तेजराज, भोगराज, सर्पगंधा, बलराज जैसी दुर्लभ व बेशकीमती जड़ी बूटियों व बाक्साइट जैसे खनिजों में भी बहुतों का ध्यान इस ओर खींचा है। इसी का नतीजा है कि आज न केवल यहां के जंगल और जड़ी बूटियां खात्में की ओर हैं बल्कि समूचे अमरकंटक के पर्यावरण व पारिस्थितिकीय के संदर्भ में इसका अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। एक सरकारी अनुसंधान के मुताबिक यहां करीब 635 प्रजातियों के वनस्पति है।
1967 से 1974 के दौरान यहां औसत सालाना बारिश 62 इंच थी, स्थानीय बड़े-बूढ़ों के मुताबिक तब यहां गर्मियों में भी रोजाना दो से तीन बार पानी बरस जाता था। लेकिन 1974 से 1984 के बीच यह औसत घटकर 53 इंच हो गया। इसी बीच सन 75 में यहां बाक्साइट की खदानें भी खुल गईं। इस खदानों और जंगल काटने की गतिविधियों का असर 1984 से 1994 तक के सालाना बारिश के औसत से पता चलता है जो घटकर 44 इंच तक पहुंच चुका था। इसी प्रकार यहां तापमान में बढ़ोतरी भी इस क्षेत्र के अनियंत्रित दोहन के परिणाम दर्शाती है। साठ के दशक में शून्य से 10 डिग्री कम तापमान में ठिठुरने वाले अमरकंटक को अब गर्मियों में 42-44 डिग्री की झुलसाने वाली गर्मी बर्दाश्त करनी पड़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक यहां हर दशक में दो डिग्री तापमान बढ़ रहा है।
जाहिर है कि इस हरे-भरे पर्वतीय क्षेत्र को अपने गर्भ में बाक्साइट जैसी कीमती खनिज को छिपाने की कीमत चुकानी पड़ रही है। इस कीमत में घटते जंगल, कम होती जड़ी-बूटियां, क़म बारिश, बढ़ता तापमान, विकृत होता प्राकृतिक सौंदर्य और भू-क्षरण तो शामिल है ही, तेजी से घटता जल स्तर भी स्थानीय लोगों की समस्याएं बढ़ा रहा है। अमरकंटक में बाक्साइट खदानों के कारण जल स्तर 300 से 400 फीट तक नीचे चला गया है। इसके चलते तथा नर्मदा कुंड के आसपास फैले आश्रमों में लगे नलकूपों से लगातार पानी खींचने के कारण कुंड तेजी से सूखता जा रहा है। पर बाक्साइट की खुदाई में लगे सरकारी व निजी अभिक्रम धड़ल्ले से पानी खींच रहे है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि मध्यप्रदेश की जीवनरेखा कही जाने वाली नर्मदा नदी जिसके पानी का भरपूर दोहन करने के लिए नर्मदा घाटी परियोजना के तहत 3000 से भी ज्यादा छोटे-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। उसी के उद्गम स्थल के लोग आज गंभीर पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। पेयजल के अलावा दूसरा मुख्य संकट नर्मदा के उद्गम स्थल के सूखने का है, जिससे यहां के धार्मिक व ऐतिहासिक महत्व पर कालिमा पड़ने की आशंका है।
गौरतलब है कि नर्मदा देश की सबसे पवित्र नदी मानी जाती है। प्रचलित मान्यता यह है कि यमुना का पानी सात दिनों में, गंगा का पानी छूने से, पर नर्मदा का पानी तो देखने भर से पवित्र कर देता है। साथ ही जितने मंदिर व तीर्थ स्थान नर्मदा किनारे हैं उतने भारत में किसी दूसरी नदी के किनारे नहीं है। लोगों का मानना है कि नर्मदा की करीब ढाई हजार किलोमीटर की समूची परिक्रमा करने से चारों धाम की तीर्थयात्रा का फल मिल जाता है। परिक्रमा में करीब साढ़े सात साल लगते हैं। जाहिर है कि लोगों की परंपराओं और धार्मिक विश्वासों में रची-बसी इस नदी के उद्गम स्थल का महत्व और भी बढ़ जाता है, जिसका आभास हर साल महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां आने वाले लाखों श्रध्दालुओं से होता है। लेकिन दुर्भाग्य से यह पर्व भी इस दर्शनीय स्थल की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कारकों में जुड़ जाता है। इन लाखों लोगों के ठहरने, खाने आदि की व्यवस्था न होने के कारण बड़ी संख्या में लोग आसपास के जंगलों में ठहरते हैं। जहां उन्हें खाना पकाने के लिए मुफ्त लकड़ी मिल जाती है। लेकिन फरवरी में जब पर्व खत्म होता है तो यहां के जंगलों का दृश्य काफी भयावह होता है।
स्थानीय वन अनुसंधान विभाग में रेंजर जयजीत करकेटा के मुताबिक, बाक्साइट खदानों व आश्रमों के द्वारा जंगलों का जो नुकसान हो रहा है वह तो है ही, यहां के जंगलों में रुकने वाले श्रध्दालु जो आग छोड़ जाते हैं वह भी अक्सर विकराल रूप धारण का भारी नुकसान पहुंचाती है। इस समय आग लगने से ज्यादा नुकसान इसलिए होता है क्योंकि बारिश में उगे पेड़ों व जड़ीबूटियों में इस समय तक डेढ़ से दो फुट तक की बढ़ोतरी हो चुकी होती है। और वे इस आग से पूरी तरह जलकर खत्म हो जाते हैं। करकेटा जंगलों के विनाश के लिए आश्रमों से जुड़े महंतों व मठाधीशों की ऊंची पहुंच को भी काफी हद तक जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि जब भी हम इन आश्रम से जुड़े लोगों द्वारा अवैध तरीके से ले जाई जा रही लकड़ी पकड़ते हैं, हमें अपने अधिकारियों की नाराजगी झेलनी पड़ती है। यहां विभिन्न आश्रमों के महंतों की आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते बाहर से गुंडे बुलाकर हत्या कराने की कोशिशों व हथियार व नशीले पदार्थों की तस्करी में हाथ होने के आरोपों से इनकी भूमिका पर भी सवाल खड़े हो गए हैं।
यहां बालको और हिंडालको की बाक्साइट खदानों से जंगल काफी प्रभावित हुए हैं। बालको ने 920 हेक्टयेर क्षेत्र की सफाई कर खदानें खोद डालीं वहीं हिंडालको भी 106 एकड़ क्षेत्र से बाक्साइट निकाल कर ज्यादा पीछे नहीं रहा। फिलहाल बालको का काम बंद हो चुका है लेकिन हिंडालको यहां के जंगलों को काटकर बाक्साइट खोद निकालने में जुटा हुआ है। कंपनी का दावा है कि खदानों से खत्म हुए जंगल के बदले में वह कई गुना ज्यादा जंगल लगा चुकी है। लेकिन इस दावे की सच्चाई बाक्साइट की खुली हुई खदानों से जांची जा सकती है। जो वृक्षारोपण हुआ है वह भी जरूरत के हिसाब से पूरा नहीं है। बाक्साइट के अलावा इस क्षेत्र में मुरुम व लाल, पीली मिट्टी का पाया जाना भी इसके नंगे होने का कारण बन गया है। आसपास के तमाम ठेकेदार जी-जान लगाकर यहां की प्राकृतिक संपदा को नोचने, खसोटने में लगे हैं। इस अंधाधुंध दोहन के नतीजे जानने के लिए यहां की संक्षिप्त भौगोलिक जानकारी जरूरी है। यह क्षेत्र सतपुड़ा और मैकल पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है जहां ज्वालामुखी से निकले काले पत्थर कालांतर में रूपांतरित होकर बाक्साइट व मुरुम बन गए हैं।
इनकी खासियत यह है कि ये स्पंज की तरह पानी सोख लेते हैं और उसे धीरे-धीरे छोड़ते रहते हैं। लेकिन बाक्साइट खनन की प्रक्रिया के जारी रहने से नर्मदा को बांधकर रखने वाले पेड़ों की जड़ें तेजी से खत्म हो रही हैं। इनके नतीजों का अनुमान इस जानकारी से होता है कि नर्मदा कुंड व डेढ़ किलोमीटर दूर माई की बगिया नामक स्थान (जहां नर्मदा पहली बार दिखकर विलुल्प हो जाती है) के बीच की दलदली जमीन अब सख्त हो चुकी है।
अमरकंटक के पर्यावरण विनाश को अंतिम चरण तक पहुंंचाने का काम अंजाम दे रहा है यहां का वन विभाग। कुछ सालों पहले अमरकंटक व नजदीकी मंडला जिले के लाखों साल (सरई) के वृक्षों को काटने का आदेश दिया गया था। इस आदेश के खिलाफ पर्यावरण प्रेमियों ने कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया लेकिन केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने दलील दी थी कि बोरर कीटों से प्रभावित साल वृक्षों को काटने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। इस मसले पर कई ऐसे सवाल खड़े हुए थे जिनका जवाब आज तक नहीं मिल सका है। मसलन, अगर इन कीड़ों के प्रकोप की जानकारी वन विभाग को पहले से थी तो प्रतिरोधक उपाय अपनाकर पेड़ों को बचाने की कोशिश क्यों नही की गई; इस बात की क्या गारंटी है कि काटे जा रहे तमाम पेड़ बोरर कीटों से प्रभावित ही हैं। सच्चाई तो यह है कि बोरर की आड़ में बड़ी संख्या में मोटे-ऊंचे पेड़ काटकर वन माफिया द्वारा बेच दिए गए और करोड़ों की कमाई की गई।
साफ है कि आश्रमों, बाक्साइट, खदानों, वन तस्करों व श्रध्दालुओं के साथ-साथ सरकारी विभाग भी अमरकंटक की हरियाली और अंततोगत्वा यहां का प्राणतत्व खत्म करने में जुटे हुए हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि मध्यप्रदेश के इस दर्शनीय पर्यटन व धार्मिक महत्व के स्थल को को बचाने की बजाय खत्म करने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में हम सबका यह दायित्व बनता है कि अपनी ओर से ऐसी हर कोशिश के खिलाफ आवाज उठाएं।
9 comments:
बहुत ही सटीक विचारणीय . अब सभी को सजग रहना होगा
आब हमारी नींद हराम. हमें लगता है कि एक वृहत अभियान चला कर कुछ करना होगा.अमरकंटक में आबादी को भी नियंत्रित करना होगा और न जाने क्या क्या. कुछ करो भाई. हम साथ देंगे. आभार ऐसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दे को सामने लाने का.
बहुत उम्दा और विचारणीय आलेख है...हम नर्मदा तीर वासियों के लिए तो और अधिक चिन्ता का विषय. जन जागरण की महती आवश्यकता है.
गंगा ,यमुना , सरस्वति को पूरी तरह खात्मे की ओर ठेलने के बाद अब स्वार्थी लोगों की निगाह नर्मदा पर पड चुकी है । लेकिन लगता नहीं कि इसका अस्तित्व भी हम बचा सकेंगे । कुछ साल लोग लिखेंगे ,कुछ आंदोलन खडे होंगे । थोडे अभियान चलेंगे ,कई फ़ाइलें दौडेंगी ,फ़िर विदेशी एजेंसियों से गुहार लगाई जाएगी । विदेशियों के रहमो करम से नर्मदा को बचाने की मुहिम छेडी जाएगी । नदी के अस्तित्व के बारे में कह पाना तो मुश्किल है ,हां कई परिवारों का जीवन हरियाली और खुशहाली से भरना तय है ।
Kind of politics goin in madhya pradesh regarding 'narbada river' is the main issue for our worries!
- your research-article is impactful and good. Congratulation..
बहुत ही चिंतनीय मुददा है......पर पर्यावरण विभाग वाले ही इस बात पर चिंतित नहीं तो आम आदमी की बात कौन सुनेगा भला ?
karen kaya?
saal kee pahlee post per lakh lakh bandhiyaan
itane mahatvapoorna savaal ko uthaane ke lie bahut bahut badhaai. hame is par kuchh zaroor karnaa chaahiye.
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