अभी कल ही शिक्षक दिवस था, कहीं शिक्षकों का सम्मान किया जा रहा था तो कहीं अपनी मांगों पर प्रदर्शन कर रहे शिक्षकों की पिटाई. ऐसे में अचानक मुझे भी अपने गुरु जी याद आ गए. मैंने आठवीं तक की पढ़ाई ठेठ देहाती माहौल में बेंत वाले गुरुजी की संगत में की है, यह अलग बात है आठवीं तक कभी पिटाई नहीं हुई. एक बार पांचवीं कक्षा में जब में जमुड़ी की प्राइमरी शाला मं पढ़ता था, तबका एक वाकया याद आ रहा है. तक स्कूल में बैठने के लिए मैं घर से एक बोरा अपने स्कूल बैग् के साथ लेकर जाता था, सरकारी से जो टाट फट्टी मिलती थी, वह अक्सर मास्साब के घर में पाई जाती थी, इसलिए नीचे गोबर लिपी फर्श पर बैठने से बेहतर यही लगता था कि अपनी बिछावन साथ लाया जाए. एक बार हुआ यह कि मैं बोरा बिछाकर स्कूल बिल्डिंग के बगल में सूसू करने गया, लौटकर आया तो देखा कि एक लड़का मेरे बोरे पर कब्जा जमाए बैठा है. एक दो बार उसे उठने को कहा, नहीं समझा तो बोरा जोर से खींचा और उसी से 10 से 15 बार उसे खींच खींचकर मारा. तब पहली बार घर में शिकायत आई. लेकिन पिटाई तो खैर फिर भी नहीं हुई.
हुई तब, जब कंबख्त सरस्वती शिशु मंदिर के कुर्ता धोतीधारी गुरुजी की संगत मिली. पापा ने अनूपपुर के सरस्वती शिशु मंदिर में शायद यह सोचकर नाम लिख्ावा दिया कि यहां बेटा ठीक से पढ़ाई करेगा. वहां गुरुजी जुबान से कम बेंत और पेंसिल को हाथों की अंगुलियों में दबाकर ज्यादा पढ़ाते थे. एक बार सात या आठ का पहाडा नहीं सुनाने पर सामने खड़े लड़के की पेशाब करने की हद तक पिटाई की गई. बस तभी ठान लिया कि इस निर्मम स्कूल में तो पढ़ना ही नहीं. अब यह बात पापा से कौन से कहे, वे तो मानने से रहे. तब मैं और बड़ा भाई उसी स्कूल में साथ में पढते थे, मैंने तो बस तय कर लिया था कि स्कूल नहीं जाना है तो नहीं जाना है. सवाल यह था कि स्कूल से पीछा कैसे छुड़ाया जाए, इसके लिए उस उम्र में यही तरीका सूझा कि घर में बिना बताए स्कूल से बंक मारा जाए. तो किया यह कि रोज सुबह घर से टिफिन में परांठे, सब्जी लेकर स्कूल के लिए निकलता और अनूपपुर से थोड़ा पहले चंदास नदी में पूरी दोपहर मछली पकड़ने में निकाल देता. हर शनिवार जब नया इंद्रजाल कामिक्स खरीदता तब बड़ा मजा आता, नदी किनारे बालू में बैठकर कामिक्स पढ़ता, फिर अपना नाश्ता करता, और फिर नदी में छपछप शुरु.
आखिर कब तक चलता यह, एक दिन स्कूल की छुट़टी होने के बाद के अपने निर्धारित समय पर घर पहुंचा तो बाहर आंगन में नजर पड़ते ही दिल धक्क से रह गया. स्कूल के गुरु जी पापा के पास कुर्सी पर बैठकर कुछ बात कर रहे थे. जैसे ही पहुंचा, पापा ने पूछा कहां से आ रहे हो, जवाब में कुछ नहीं बोला, कुछ बोलने को था ही नहीं. अभी मन ही मन गुरुजी के लिए गालियां निकाल ही रहा था कि दूसरा सवाल दग गया आज स्कूल गए थे, जवाब में सर नहीं में हिला दिया, लेकिन उन्होंने कड़ककर कहा, जबान नहीं है क्या मुह से बोलो, तो मंह से बोल फूटे, नहीं. उन्होंने फिर पूछा, कल स्कूल गए थे, फिर नहीं, परसों गए थे, नहीं. बस . . . . फिर क्या था, उन्होंने कहा जाओ एक बांस की छड़ी लेकर आओ, अब तो हाथों से पसीने छूट गए. मुझसे ही मेरी बरबादी का सामान मंगाया जा रहा था. लेकिन मरता क्या न करता, जाना ही पड़ा. वहां तो बांसों का पूरा झुरमुट था, अब मेरी हालत बड़ी अजीब से हो गई थी, छांटने में लगा था कि कौन सा बांस लूं, पतला या मोटा. मोटा लेने का यह डर था कि अगर एकाध पीठ पर जोर से पड़ गई तो हो गया काम. बहुत पतला बांस जहां पड़ता वहीं चमड्री उधेड़ देता. लेकिन लाना तो था ही, ज्यादा से ज्यादा 10 मिनट ही बांस से अपने मनमुनासिब छडी ढूंढने का समय निकाल सका, इस बीच दो बार उनकी आवाज आ गई, छड़ी नहीं मिल रही तो बताओ, मैं ही ले आता हूं. तब रुआंसा होकर बोला, ला रहा हूं. और एक बीच की मोटाई वाली करीब मीटर भर लंबी छड़ी लेकर उनके पास पहुंच गया. जैसे ही पहुंचा गुरुजी यह कहकर उठे और वापस गए कि परसों से परीक्षा है, ठीक से तैयारी कर भिजवा दीजिएगा.
बस, उधर गुरुजी गए इधर पापा शुरू हो गए. पूछा कहां जाते थे,
बताया कि नदी में मछली पकड़ता था,
उन्होंने कहा, हाथ आगे करो,
सड़ाक,
फिर पूछा, कितने दिनों से,
एक महीने से,
सड़ाक,
किसी को बताया,
नहीं
सड़ाक,
फिर पूछा, स्कूल क्यों नहीं जाते थे,
गुरुजी बहुत मारते हैं
......
इस बार सड़ाक की आवाज नहीं आई तो बंद आंखें खोलकर देखा, हाथों में छड़ी उठी जरूर थी पर पडी नहीं.
क्यों मारते हैं, पूछने पर बताया जबरदस्ती पहाड़ा याद कराते हैं, थोड़ा भी भूलो तो बहुत मारते हैं, अब वहां पढ़ने नहीं जाउंगा.
बस उस दिन के बाद सरस्वती शिशु मंदिर से पीछा छूटा. उन्होंने जमुड़ी से तीन किलोमीटर दूर सकरा नामक एक दूसरे गांव में दाखिला करा दिया. वहां तो मैं राजा था, अपनी क्लॉस का मॉनिटर. बस हर दिन स्कूल आने जाने के लिए 6 किलोमीटर चलना अखर जाता था, कुछ दिनों बाद एक शार्टकट पता चला और दो किलोमीटर का रास्ता कम हो गया. बस हर दिन पैदल आना और जाना, रास्तें में कभी तेंदू खाना कभी जामुन तो कभी चिरौंजी या भेलमा. भेलमा आपमें से ज्यादातर लोग नहीं जानते होंगे, यह देखने में जंगली काजू जैसा होता है, पकने पर खाने में बेहद स्वादिष्ट पर कच्चा खाओ तो होंठों पर सूजन आ जाती है.
बहरहाल, सकरा के ही स्कूल में मिले थे हमारे हेडमास्साब मारको सर, उनका पहल नाम याद नहीं आ रहा, शायद अजय था. चेहरे पर दाढ़ी, चौड़ा बेलबॉटम, चमकदार शर्ट यानी फिल्मी हीरो जैसे थे हमारे हेडमास्साब. मारको उनका सरनेम थे, वे गोंड आदिवासी थे, बाद में समझ में आया कि अपने समुदाय से पढ़ लिखकर अलग दिख्ाने की ललक ने उनके तेवर अलग कर रखे थे, उनकी पहली मैडम यानी पत्नी आदिवासी थीं, देहाती सरीखी,लेकिन हमारे 6वीं से 7वीं में जाते जाते मारको हेडमास्साब ने एक ठाकुर लड़की को अपनी पत्नी बना लिया. तब वह बमुश्किल 16 या 17 साल की रही होगी. खैर हमें तब इन बातों से ज्यादा मतलब नहीं था, वे मेरे फेवरेट थे, क्योंकि कभी पिटाई नहीं करते थे, हां बदले में घर से उनके लिए कभी खीरा, कभी भुट़टा ले जाया करता था. एक बार तो आधी छुट़टी के बाद उन्होंने हम सभी बच्चों को छुटृटी दे दी और कहा, जाओ सामने की पहाड़ी पर घूमकर दो घंटे के अंदर जितनी सूखी लकड़ी मिले समेट लाओ, हम कुल करीब 30 से ज्यादा ही थे, उनके लिए एक महीने खाना पकाने की लकड़ी की जुगाड़ हो गया. मुझे तो पहाड़ी पर घूमने में बडा मजा आया. हां तब में आठवीं में था, मारको हेडमास्साब लगभग हर साल अलग से हमें इंपोटेंट सवालों की लिस्ट पकड़ा देते और क्लास में फर्स्ट आने का मौका देते. तभी ऐसा हो पाया कि 6वीं से आठवीं तक मैं हर साल कक्षा में प्रथम आता रहा. यह अलग बात थी कि 8वीं में जनवरी तक स्कूल में गणित की किताब खुली तक नहीं थी, लेकिन घर में पापा ने पढ़ा दिया सो पास हो गया. हां एक बात अच्छी हुई थी 8वीं में पढते समय मैंने अपना पहला और अब तक का पहला ही उपन्यास लिखा, खून का रिश्ता, पूरा उपन्यास हाथ से लिखा, गरमियों में महुए के नीचे बैठकर आराम कुर्सी पर लेटकर. इसके बारे में फिर कभी बताउंगा, अभी इतना ही....
4 comments:
रोचक वृतांत...बधाई
maja aa gaya sir............mujhe bhi baas ki dandi yaad hai.:)
Ghar se kpde lekar jate the Athya PRAKRATI PRADATT paridhan (nagge hokar) CHhhachhap karte the?-Koushlendra
Ghar se kpde lekar jate the Athya PRAKRATI PRADATT paridhan (nagge hokar) CHhhachhap karte the?-Koushlendra
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