कांग्रेस ने पहले ही कह दिया था कि भोपाल गैस हादसा और उसके बाद होने वाला सारा घटनाचक्र व्यवस्थागत खामियों का नतीजा था, और हम सारे यानी भोपाल के गैस पीडितों, उनके आंदोलन के समर्थकों से लेकर मीडियाकर्मियों तक यह खुशफहमी पाल बैठे थे कि बिना व्यवस्था बदले हमें इंसाफ मिल जाएगा,
आखिरकार वही हुआ जो इस व्यवस्था में होना था, महज 6 फीसदी लोगों को मुआवजे की मरहमपट़टी, लेकिन असल गुनहगार अब भी ठहाके मारकर हंस रहे हैं, चाहे वह अमेरिका में बैठा एंडरसन हो या अपने देश में घूम रहा केशुब महिंद्रा,
आखिर कांग्रेस और मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के मंत्री जो मंत्र्ीसमूह में शामिल थे, इस बात पर क्यों खामोश रहे कि एंडरसन की निजी संपत्ति कुर्क की जाए, डाउ केमिकल से हर्जाना वसूला जाए, यूनियन कार्बाइड की भारतीय हिस्सेदारी खरीदने वाली एवरेडी को भी इस जुर्माने का हिस्सा बनाया जाए और केशुब महिंद्रा की कंपनी से भी भारीभरकम जुर्माना वसूल कर यह कडा संकेत दिया जाए कि भविष्य में अगर ऐसा कुछ हुआ तो उसके जिम्मेदारों को कतई बख्शा नहीं जाएगा,
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि आज भी वही व्यवस्था है जो 7 दिसंबर 1984 को एंडरसन को गिरफ़तार करने और महज कुछ ही घंटों में गेस्टहाउस में रखकर वीआईपी की तरह सरकारी हवाईजहाज से दिल्ली के लिए रवाना करने की जिम्मेदार थी, केवल नाम और चेहरे बदले हैं व्यवस्था नहीं, यह असलियत भोपाल और देश की जनता जितनी जल्दी समझ ले उतना अच्छा होगा,
भोपाल गैस कांड से पीडित 5 लाख से अधिक लोग आज केवल कांग्रेस और भाजपा सरकारों को कोस ही सकते हैं, लेकिन कल यही लोग स्थानीय नेताओं और उनके ठेकेदारों के बहकावे में आकर एक बार फिर इन्हीं पार्टियों को वोट देंगे और इसी व्यवस्था को फिर से खडा कर देंगे, आखिर इन्हीं लोगों के वोट के दम पर ये नेता भोपाल और दिल्ली की कुर्सियों पर बैठे हैं और लाचार वर्तमान तथा खौफजदा भविष्य की कीमत पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं,
देश के दूसरे हिस्सों के जो लोग भोपाल की लडाई को यह समझकर देख रहे हैं कि इसका हमसे क्या लेनादेना उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता के ये दलाल एक दिन उन्हें ही इसी तरह कीडेमकोडों की तरह तडपकर मरने पर मजबूर कर देंगे और तब उन्हें इस लडाई में न शामिल होने का अफसोस होगा,
जब नर्मदा आंदोलन के कार्यकर्ता सरदार सरोवर बांध के विरोध में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे थे तब कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि यह तय करना कोर्ट का नहीं सरकार का काम है कि देश का विकास किस तरह का होना चाहिए, इस बुनियादी फैसले से तभी समझ जाना चाहिए था कि आम जनता के दुखदर्द और उनके आंसुओं का देश के विकास और पूंजीपतियों की सरकार से कोई लेना देना नहीं है, जब तक जनता जुनून बनकर इस व्यव्स्था को नहीं बदलेगी उसे इसी तरह जुल्म और जिल्लत बर्दाश्त करनी पडेगी, लेकिन याद रखने वाली बात है कि एक दिन स्पार्टकस ने भी बगावत कर ही थी, आखिर हम कब तक सहन करेंगे,,,,,
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