Friday, April 17, 2009

अन्नदाता की खुदकुशी का इंतजाम




रामनवमी के पावन दिन जब भारतीय जनता पार्टी नई दिल्ली में राम, रोटी और किसानों को राहत की रेवड़ियां बांटने वाला चुनाव घोषणा पत्र जारी कर रही थी, ठीक उसी समय भाजपा शासित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से महज सौ किमी दूर स्थित पिपरिया के कुर्सीढाना गांव में एक किसान कीटनाशक जहर पीकर मौत को गले लगा रहा था। यह मध्यप्रदेश में बीते तीन दिनों में किसानों द्वारा की जाने वाली तीसरी खुदकुशी थी। और साथ ही भारतीय राजनीति के चुनावी वादों, घोषणाओं और जमीनी असलियत के बीच की कड़वी सच्चाई भी।
बात केवल भाजपा के घोषणापत्र की नहीं है, कांग्रेस ने भी अपने घोषणापत्र में किसानों को राहत देने की कई लोकलुभावन बातें कहीं हैं; मसलन, कम ब्याज दर पर कर्ज, कर्ज भुगतान करने वाले किसानों के लिए ब्याज दरों पर छूट और फसल बीमा योजना। उधर भाजपा ने अपने घोषणापत्र में किसानों को कृशि कर्ज माफ करने, कृषि कर्ज महज 4 फीसदी ब्याज पर देने और साढ़े तीन करोड़ हैक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र को सिंचित करने का वादा किया है, वहीं माकपा ने ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा बिजली आपूर्ति करने व न्यूनतम समर्थन मूल्य का दायरा बढ़ाने का वादा कर किसानों को ललचाने की कोशिश की है। लेकिन ये तमाम घोषणाएं दम तोड़ते किसानों और संकट में घिरती भारतीय कृषि को संजीवनी देने की बजाय उनकी मुसीबतें और ज्यादा बढ़ाने वाली हैं।
जरा गौर करें, फिर से सत्ता में लौटने का मंसूबा पाल रही कांग्रेस हो या राम लहर पर सवार होकर सत्तानशीं होने का सपना संजोने वाली भाजपा या फिर नए सहयोगियों के दम पर दिल्ली में लाल परचम फहराने की जुगत में भिड़ी माकपा, इन तीनों में से किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में देश के अन्नदाता किसानों को खुदकुशी से बचाने के लिए कोई भी उपाय नहीं बताए गए हैं। जितनी भी घोषणाएं की गई हैं, वे महज इस खानापूरी के लिए हैं कि खुदकुशी की यह दर थोड़ी कम की जाए। ध्यान देने वाली बात यह है कि महाराष्‍टृ से कर्नाटक और आंध्रप्रदेश से मध्यप्रदेश तक जहां भी किसानों की खुदकुशी एक गंभीर समस्या बनी हुई है किसी भी सरकार ने इस पर गौर नहीं किया कि किसानों को खुदकुशी की ओर धकेलने वाले कारणों को तलाशा जाए और उनपर रोक लगाई जाए ताकि किसान खुदकुशी करने पर मजबूर न हों।
आंकड़े बताते हैं कि 1997 से 2008 तक भारत में डेढ़ लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। इनमें ऊपर बताए गए राज्यों के अलावा छत्तीसगढ़, गुजरात, पंजाब, उड़ीसा तथा केरल के किसान शामिल हैं। और यही वह समय भी है जब देष में बीटी कॉटन यानी जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों का प्रचलन जोर पकड़ रहा था। सन 2002 में जहां देश में करीब 27 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में बीटी कॉटन की खेती होती थी, यह दायरा 2006 में बढ़कर 38 लाख हैक्टेयर पहुंच गया। इसी के साथ किसानों की परेशानियों का दौर भी बढ़ता चला गया। किसानों की खुदकुशी के कारणों पर खुद सरकारी संस्थाओं के अलावा तमाम गैर सरकारी संगठनों के अध्ययनों व रिपोर्टों पर अगर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने एक नजर डाली होती तो किसानों को कर्ज माफी या कम ब्याज के कर्ज के चुनावी वादों की बजाय जीएम तकनीकी वाले बीजों पर अंकुश लगाने, देशी बीजों, तकनीक को प्रोत्साहित करने और कम लागत की स्थानीय माहौल के अनुकूल फसल लगाने को प्रोत्साहित करने का जिक्र अपने चुनावी घोषणा पत्र में करते। लेकिन इससे विदेशी बीज व दवा की कंपनियों से होने वाले मुनाफे में कमी आ जाती। संभवत: यही वजह है कि देश के हजारों किसानों की मौत को दरकिनार कर सत्ताशीन और विरोधी दल, जिन्होंने विदेशी कंपनियों से मिलने वाले मुनाफे पर अपनी आंखें गड़ाई हुई हैं और बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने की बजाय रोगी के इलाज में हर दिन होने वाली कमाई में अंधे डाक्टर की ही तरह किसान को मौत से बचाने की बजाय उसके परिवार को मुआवजा देकर मिलने वाली सहानुभूति और अंतत: वोट लेकर सत्ता की राजनीति खेलने में जुटे हुए हैं। सोचने वाली बात है कि महज बीटी काटन के असर से जब मध्यभारत के अन्नदाता किसानों की जान पर बन आई है तो आने वाले समय में बीटी भिंडी, बीटी बैंगन व अन्य जीएम सब्जियों व फसलों के आने से अन्य राज्यों के किसानों का क्या हाल होगा।
इसकी ताजा मिसाल है हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का वह नोटिस जो उसने विदेशी बीज कंपनी माइको को बिना जरूरी मंजूरी लिए झारखंड में बीटी बीज का प्रयोग करने पर कंपनी समेत केंद्र सरकार को भी जारी किया है।
हालांकि हमें इससे यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि किसानों को उनकी संभावित मौत से बचाने के लिए कोर्ट ही आखिरी रास्ता सुझाएगी। देश के तमाम जनांदोलनों के सिलसिले में अलग-अलग समय में सुनाए गए फैसलों में कोर्ट ने साफ कर दिया है कि वह कानून बनाने नहीं उनका पालन नहीं होने की दशा में कार्रवाई करने वाली निकाय है, ऐसे में लोगों को सारा दबाव कानून बनाने वालों यानी अपने जनप्रतिनिधियों पर ही डालना चाहिए। लेकिन देश में किसान संगठनों की वर्तमान हालत और असली पीड़ित किसानों के बीच किसी तरह के संगठन या राजनीतिक दबाव की स्थिति बना पाने की नाकामी से ऐसा होना संभव नहीं दिखता। बात महाराष्‍टृ के विदर्भ क्षेत्र के किसानों के लिए 11000 करोड़ के पैकेज की हो या फिर चुनाव से पहले देश भर के किसानो की कर्ज माफी के लिए 60 हजार करोड़ की सरकारी घोषणा की हो, देश के किसानों तक सरकार के ये पैकेज नहीं पहुंचे, किसानों की लगातार हो रही मौतें तो यही दर्शाती हैं। सरकारी मशीनरी की लापरवाही, जानलेवा उदासीनता लालफीताशाही देश की जमीन को किसानों के खून से लाल करती ही रहगी। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि देश के आगामी कर्णधारों ने अपने चुनावी घोषणापत्रों में अन्नदाता की खुदकुशी का माकूल इंतजाम कर दिया है।