Tuesday, October 12, 2010

चार माह का भ्रूण मुस्‍कुराया, 42 फीसदी बच्‍चे कुपोषित

कल दो खबरें अलग अलग पेजों पर पढने को मिलीं, एक में विदेशी वैज्ञानिकों के एक परीक्षण की जानकारी थी जिसके मुताबिक चार महीने का भ्रूण भी संवेदनाओं का महसूस कर सकता है. वह अपनी मां की भावनाओं को पहचानकर गमजदा या खुश हो सकता है. इस बारे में एक भ्रूण की मुस्‍कुराती हुई तस्‍वीर भी प्रकाशित की गई. कुछ अखबारों में यह खबर पेज 1 पर भी तो कुछ में अंदर. इसी के साथ एक दूसरी यह खबर थी कि भारत के बच्‍वे विश्‍व में सर्वाधिक कुपोषित हैं. ग्‍लोबल हंगर इंडेक्‍स के मुताबिक भारत के 42 फीसदी बच्‍चे कुपोषित हैं.
अब ऐसे समय में जब कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में खिलाडी सोना जीत रहे हों, सचिन तेंडुलकर 49वां शतक लगा रहे हों, हॉकी में भारत अपने चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्‍तान को हराकर सेमीफाइनल में पहुंच गया हो, देश के 42 फीसदी बच्‍चों के कुपोषण की खबर छप जाए यही बहुत है.
हम खेल की अपनी चुनिंदा जीतों पर इतने खुश हैं कि गर्त में जा रहे भविष्‍य के बारे में सोचना भी नहीं चाहते. अगले पांच सालों में हम विश्‍व की तीसरी सबसे बडी ताकत बनेंगे, चीन को पीछे छोड जाएंगे और साथ्‍ा में होंगे 42 फीसदी भूखे नंगे पेट वाले नाक सिकोडुते बच्‍चे. ये न तो मीडिया में सुर्खियां बन पाएंगे ना ही इनके नाम पर वोट खरीदे या बेचे जाएंगे. क्‍योंकि इन्‍हीं की कीमत पर हम स्‍वर्णपथ पर दौडेंगे सरपट. मुकेश अंबानी बनेंगे देश के सबसे अमीर आदमी, देश के एक लाख से बढकर शायद पांच लाख लोग हो जाएंगे अरबपति, ऐसे में कुछेक करोड बच्‍चे महज कुछ रुपयों, सरकारी योजनाओं में घपलों, अधिकारियों की लापरवाही की वजह से कुपोषित रहे जाएं, उनमें कुछेक लाख असमय ही काल की भेंट चढ जाएं तो क्‍या फर्क पडता है. आखिर ये हमारे टीजी (टारगेट ग्रुप) थोडे ही ना हैं. ये कंबख्‍त ना तो अखबार पढते हैं ना ही उसमें विज्ञापन देते हैं फिर इनकी खबर आखिरकार क्‍यों छपे. आज तो सीधा सीधा लेन देन का मामला है. खबर उसकी जो अखबार पढुकर रीडरशिप बढाए और विज्ञापन कमवाए.
अफसोस केवल इसी बात का है कि हम पत्र् कार आखिर कब तक यूं ही अपनी संवेदनाओं को मारते रहेंगे, हमारा जी भी तो कभी कचोटता होगा कि मंदिर मस्जिद, राजनीतिक बयानबाजी, अमीरों के चोंचलों की खबरें अनुवाद और सुधार सुधार कर हम कब भाडगीरी करते रहेंगे.
खैर जब जिसका जमीर जागे, तभी सही. नहीं तो लोग तो हैं ही. जब बात पेट पर आए तो हर रिश्‍ते हर आंकडे और विकास का हर नारा बेमानी हो जाता है, जिसदिन ये 42 फीसदी कुपोषित बच्‍चे, अगर इनमें से आधे भी बचकर बडे हो गए, और हमारे विकास की चकाचौंध से अपना हिस्‍सा मांग बैठे तो हमारी सारी मानसिक और आर्थिक दलाली की ताकत धरी की धरी रह जाएगी, क्‍योंकि इनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा और तब हमारे पास बचाने के लिए कुछ नहीं होगा.
इस पाप में जो सीधे सीधे भागी हैं वे तो हैं ही, हम ऐसी कौम हैं जिसपर इस पाप के दस्‍तावेजीकरण की तथाकथित जिम्‍मेदारी है, अगर हम भी इसी पाप में शामिल हैं तो असल पापी से ज्‍यादा बडे गुनहगार होंगे.

Sunday, September 5, 2010

मेरे गुरु जी

अभी कल ही शिक्षक दिवस था, कहीं शिक्षकों का सम्‍मान किया जा रहा था तो कहीं अपनी मांगों पर प्रदर्शन कर रहे शिक्षकों की पिटाई. ऐसे में अचानक मुझे भी अपने गुरु जी याद आ गए. मैंने आठवीं तक की पढ़ाई ठेठ देहाती माहौल में बेंत वाले गुरुजी की संगत में की है, यह अलग बात है आठवीं तक कभी पिटाई नहीं हुई. एक बार पांचवीं कक्षा में जब में जमुड़ी की प्राइमरी शाला मं पढ़ता था, तबका एक वाकया याद आ रहा है. तक स्‍कूल में बैठने के लिए मैं घर से एक बोरा अपने स्‍कूल बैग् के साथ लेकर जाता था, सरकारी से जो टाट फट्टी मिलती थी, वह अक्‍सर मास्‍साब के घर में पाई जाती थी, इसलिए नीचे गोबर लिपी फर्श पर बैठने से बेहतर यही लगता था कि अपनी बिछावन साथ लाया जाए. एक बार हुआ यह कि मैं बोरा बिछाकर स्‍कूल बिल्डिंग के बगल में सूसू करने गया, लौटकर आया तो देखा कि एक लड़का मेरे बोरे पर कब्‍जा जमाए बैठा है. एक दो बार उसे उठने को कहा, नहीं समझा तो बोरा जोर से खींचा और उसी से 10 से 15 बार उसे खींच खींचकर मारा. तब पहली बार घर में शिकायत आई. लेकिन पिटाई तो खैर फिर भी नहीं हुई.
हुई तब, जब कंबख्‍त सरस्‍वती शिशु मंदिर के कुर्ता धोतीधारी गुरुजी की संगत मिली. पापा ने अनूपपुर के सरस्‍वती शिशु मंदिर में शायद यह सोचकर नाम लिख्‍ावा दिया कि यहां बेटा ठीक से पढ़ाई करेगा. वहां गुरुजी जुबान से कम बेंत और पेंसिल को हाथों की अंगुलियों में दबाकर ज्‍यादा पढ़ाते थे. एक बार सात या आठ का पहाडा नहीं सुनाने पर सामने खड़े लड़के की पेशाब करने की हद तक पिटाई की गई. बस तभी ठान लिया कि इस निर्मम स्‍कूल में तो पढ़ना ही नहीं. अब यह बात पापा से कौन से कहे, वे तो मानने से रहे. तब मैं और बड़ा भाई उसी स्‍कूल में साथ में पढते थे, मैंने तो बस तय कर लिया था कि स्‍कूल नहीं जाना है तो नहीं जाना है. सवाल यह था कि स्‍कूल से पीछा कैसे छुड़ाया जाए, इसके लिए उस उम्र में यही तरीका सूझा कि घर में बिना बताए स्‍कूल से बंक मारा जाए. तो किया यह कि रोज सुबह घर से टिफिन में परांठे, सब्‍जी लेकर स्‍कूल के लिए निकलता और अनूपपुर से थोड़ा पहले चंदास नदी में पूरी दोपहर मछली पकड़ने में निकाल देता. हर शनिवार जब नया इंद्रजाल कामिक्‍स खरीदता तब बड़ा मजा आता, नदी किनारे बालू में बैठकर कामिक्‍स पढ़ता, फिर अपना नाश्‍ता करता, और फिर नदी में छपछप शुरु.
आखिर कब तक चलता यह, एक दिन स्‍कूल की छुट़टी होने के बाद के अपने निर्धारित समय पर घर पहुंचा तो बाहर आंगन में नजर पड़ते ही दिल धक्‍क से रह गया. स्‍कूल के गुरु जी पापा के पास कुर्सी पर बैठकर कुछ बात कर रहे थे. जैसे ही पहुंचा, पापा ने पूछा कहां से आ रहे हो, जवाब में कुछ नहीं बोला, कुछ बोलने को था ही नहीं. अभी मन ही मन गुरुजी के लिए गालियां निकाल ही रहा था कि दूसरा सवाल दग गया आज स्‍कूल गए थे, जवाब में सर नहीं में हिला दिया, लेकिन उन्‍होंने कड़ककर कहा, जबान नहीं है क्‍या मुह से बोलो, तो मंह से बोल फूटे, नहीं. उन्‍होंने फिर पूछा, कल स्‍कूल गए थे, फिर नहीं, परसों गए थे, नहीं. बस . . . . फिर क्‍या था, उन्‍होंने कहा जाओ एक बांस की छड़ी लेकर आओ, अब तो हाथों से पसीने छूट गए. मुझसे ही मेरी बरबादी का सामान मंगाया जा रहा था. लेकिन मरता क्‍या न करता, जाना ही पड़ा. वहां तो बांसों का पूरा झुरमुट था, अब मेरी हालत बड़ी अजीब से हो गई थी, छांटने में लगा था कि कौन सा बांस लूं, पतला या मोटा. मोटा लेने का यह डर था कि अगर एकाध पीठ पर जोर से पड़ गई तो हो गया काम. बहुत पतला बांस जहां पड़ता वहीं चमड्री उधेड़ देता. लेकिन लाना तो था ही, ज्‍यादा से ज्‍यादा 10 मिनट ही बांस से अपने मनमुनासिब छडी ढूंढने का समय निकाल सका, इस बीच दो बार उनकी आवाज आ गई, छड़ी नहीं मिल रही तो बताओ, मैं ही ले आता हूं. तब रुआंसा होकर बोला, ला रहा हूं. और एक बीच की मोटाई वाली करीब मीटर भर लंबी छड़ी लेकर उनके पास पहुंच गया. जैसे ही पहुंचा गुरुजी यह कहकर उठे और वापस गए कि परसों से परीक्षा है, ठीक से तैयारी कर भिजवा दीजिएगा.
बस, उधर गुरुजी गए इधर पापा शुरू हो गए. पूछा कहां जाते थे,
बताया कि नदी में मछली पकड़ता था,
उन्‍होंने कहा, हाथ आगे करो,
सड़ाक,
फिर पूछा, कितने दिनों से,
एक महीने से,
सड़ाक,
किसी को बताया,
नहीं
सड़ाक,
फिर पूछा, स्‍कूल क्‍यों नहीं जाते थे,
गुरुजी बहुत मारते हैं
......
इस बार सड़ाक की आवाज नहीं आई तो बंद आंखें खोलकर देखा, हाथों में छड़ी उठी जरूर थी पर पडी नहीं.
क्‍यों मारते हैं, पूछने पर बताया जबरदस्‍ती पहाड़ा याद कराते हैं, थोड़ा भी भूलो तो बहुत मारते हैं, अब वहां पढ़ने नहीं जाउंगा.
बस उस दिन के बाद सरस्‍वती शिशु मंदिर से पीछा छूटा. उन्‍होंने जमुड़ी से तीन किलोमीटर दूर सकरा नामक एक दूसरे गांव में दाखिला करा दिया. वहां तो मैं राजा था, अपनी क्‍लॉस का मॉनिटर. बस हर दिन स्‍कूल आने जाने के लिए 6 किलोमीटर चलना अखर जाता था, कुछ दिनों बाद एक शार्टकट पता चला और दो किलोमीटर का रास्‍ता कम हो गया. बस हर दिन पैदल आना और जाना, रास्‍तें में कभी तेंदू खाना कभी जामुन तो कभी चिरौंजी या भेलमा. भेलमा आपमें से ज्‍यादातर लोग नहीं जानते होंगे, यह देखने में जंगली काजू जैसा होता है, पकने पर खाने में बेहद स्‍वादिष्‍ट पर कच्‍चा खाओ तो होंठों पर सूजन आ जाती है.
बहरहाल, सकरा के ही स्‍कूल में मिले थे हमारे हेडमास्‍साब मारको सर, उनका पहल नाम याद नहीं आ रहा, शायद अजय था. चेहरे पर दाढ़ी, चौड़ा बेलबॉटम, चमकदार शर्ट यानी फिल्‍मी हीरो जैसे थे हमारे हेडमास्‍साब. मारको उनका सरनेम थे, वे गोंड आदिवासी थे, बाद में समझ में आया कि अपने समुदाय से पढ़ लिखकर अलग दिख्‍ाने की ललक ने उनके तेवर अलग कर रखे थे, उनकी पहली मैडम यानी पत्‍नी आदिवासी थीं, देहाती सरीखी,लेकिन हमारे 6वीं से 7वीं में जाते जाते मारको हेडमास्‍साब ने एक ठाकुर लड़की को अपनी पत्‍नी बना लिया. तब वह बमुश्किल 16 या 17 साल की रही होगी. खैर हमें तब इन बातों से ज्‍यादा मतलब नहीं था, वे मेरे फेवरेट थे, क्‍योंकि कभी पिटाई नहीं करते थे, हां बदले में घर से उनके लिए कभी खीरा, कभी भुट़टा ले जाया करता था. एक बार तो आधी छुट़टी के बाद उन्‍होंने हम सभी बच्‍चों को छुटृटी दे दी और कहा, जाओ सामने की पहाड़ी पर घूमकर दो घंटे के अंदर जितनी सूखी लकड़ी मिले समेट लाओ, हम कुल करीब 30 से ज्‍यादा ही थे, उनके लिए एक महीने खाना पकाने की लकड़ी की जुगाड़ हो गया. मुझे तो पहाड़ी पर घूमने में बडा मजा आया. हां तब में आठवीं में था, मारको हेडमास्‍साब लगभग हर साल अलग से हमें इंपोटेंट सवालों की लिस्‍ट पकड़ा देते और क्‍लास में फर्स्‍ट आने का मौका देते. तभी ऐसा हो पाया कि 6वीं से आठवीं तक मैं हर साल कक्षा में प्रथम आता रहा. यह अलग बात थी कि 8वीं में जनवरी तक स्‍कूल में गणित की किताब खुली तक नहीं थी, लेकिन घर में पापा ने पढ़ा दिया सो पास हो गया. हां एक बात अच्‍छी हुई थी 8वीं में पढते समय मैंने अपना पहला और अब तक का पहला ही उपन्‍यास लिखा, खून का रिश्‍ता, पूरा उपन्‍यास हाथ से लिखा, गरमियों में महुए के नीचे बैठकर आराम कुर्सी पर लेटकर. इसके बारे में फिर कभी बताउंगा, अभी इतना ही....

Thursday, August 5, 2010

धोखे की पत्र्कारिता


मीडिया में रहकर संवेदनाओं का कचरा हो गया है, हर दिन ही यह हाल है कि शाम 7 बजते बजते लीड खबर न मिले तो सिर चकरघिन्‍नी से घूमने लगता है, हद तो तब हो जाती है जब किसी बडी दुर्घटना या हादसे की खबर बनते बनते रह जाए, अब परसों की ही बात है, दो ऐसी खबरें थीं जिनकी पहली सूचना से लगा कि बस आज मिल गई लीड, लेकिन कंबख्‍त ऐसा हुआ नहीं. पहली खबर छत्‍तीसगढ़ के दंतेवाडा़ से थी जहां नक्‍सलियों और सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ जारी थी, दिन की खबरों में सूचना थी कि 6 जवान शहीद हो गए और करीब 45 लापता हैं, इससे लगा कि आज लीड खबर का संकट नहीं होगा, यह तो बनीबनाई खबर सभी संस्‍करणों में लीड छपेगी. लेकिन सात बजते बजते पता चला कि एक भी जवान शहीद नहीं हुआ, उल्‍टे नक्‍सलियों को मुंह की खानी पडी़. कई संस्‍करणों से लगातार फोन आ रहे थे कि लीड खबर कब तक मिल रही है, उन्‍हें टका से जवाब देना पडा् कि एक भी शहादत नहीं हुई सो खबर किल हो गई है.
इस दौरान एक भी बार यह विचार मन में नहीं आया कि अगर मुठभेड्र में जवान शहीद नहीं हुए और उधर नक्‍सलियों की भी जान नहीं गई तो इस जानकारी से मन में कहीं किसी कोने में संतोष की लहर क्‍यों नहीं दौड़ी. आखिर क्‍यों हम ये मना रहे थे कि एक ही देश का एक भाई दूसरे भाई की जान ले और हम उसकी खबर का जश्‍न मनाएं. क्‍या करें, इन दिनों मीडिया की हालत कुछ इसी तरह की हो गई है. और हां, दूसरी खबर के बारे में तो बताना भूल ही गया. यह खबर तालिबान के एक हमले की थी,जिसमें उसने दावा किया कि जुलाई के अंतिम सप्‍ताह में उसने दुबई के खिलाफ एक जहाज पर आत्‍मघाती हमला किया, जहाज के क्रू सदस्‍यों में 15 भारतीय भी थे. एजेंसी पर जारी इस खबर की हेडिंग और इंट्रो पढ्रकर लगा कि जहाज डूब गया और सारे भारतीय मारे गए, सो बनी पहले पेज की खबर. तुरंत अपने साथी को बताया कि फर्स्‍ट नहीं तो सेकंड लीड तो मिली ही समझो. लेकिन जब पूरी खबर पढ़नी शुरू की तो पता चला कि आत्‍मघाती हमले में केवल हमलावर की मौत हुई है, वहीं हमले में महज एक व्‍यक्ति घायल हुआ जो अब ठीक है. यह खबर भी गई. तो... ऐसे हो गए हैं हम पत्र्ाकार लोग.
कुछ दिन पहले भोपाल के गांधी भवन में गांधीवादियों और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं का एक राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन हुआ था, इसमें नक्‍सली समेत समाज की विभिन्‍न हिंसाओं से निपटने के लिए अहिंसक तरीकों पर विस्‍तृत चर्चा की गई थी. इसी सम्‍मेलन में गांधी शांति प्रतिष्‍ठान की अध्‍यक्ष राधा भट भी आई हुई थीं, उनसे मुलाकात हुई. हम चरखा संस्‍था की कुछ पुरानी कार्यशालाओं में मिल चुके थे सो वे सकारात्‍मक पत्र्कारिता के प्रति मेरे झुकाव और चरखा के दौरान की गई 50 से भी ज्‍यादा पत्र्कारिता कार्यशालाओं के बारे में जानती थीं. उन्‍होंने कहा, अमन, हम लोग कब तक ये हिंसा, मारकाट, लूटमार की खबरें पढ़ते रहेंगे, अब हमें समाज को कुछ पाजिटिव खबरें पढ़वानी चाहिएं, अच्‍छी खबरें देनी चाहिएं, तभी समाज की मानसिकता बदलेगी. इस पर मेरा जवाब था कि राधा जी, पाजिटिव खबरें पढ़ने वालों की संख्‍या बहुत कम है, इससे न्‍यूजलेटर तो छप सकता है अखबार नहीं. लेकिन यह जरूर संभव है कि अगर ठोस योजना के साथ काम किया जाए तो मुख्‍यधारा अखबारों में ही पाजिटिव खबरों की संख्‍या बढ़ाई जा सकती है, इसके लिए सभी को कोशिश करनी होगी, बहरहाल यह तो बहुत लंबी बहस का विषय है, लेकिन मुझे सौ फीसदी भरोसा है कि सकारात्‍मक पत्र्कारिता में ही भविष्‍य है और समाज को हिंसा के गर्त से उबारने का एक ठोस उपाय भी इसी में निहित है.
जरा इसपर विचार करें कि अखबार का समाज का आइना बताने वाले वे पत्र्कार या अखबारों के मालिक जो ग्‍लैमर, हिंसा, सेक्‍स की खबरों को इसलिए देने पर अड़े रहते हैं कि समाज में ऐसा हो रहा है इसलिए ये खबरें देना उनकी मजबूरी है, ऐसी नहीं करेंगे तो अखबार कौन पढ़ेगा, अगर वे अखबार के पितामह जेम्‍स आगस्‍टस हिक्‍की के हिक्‍की गजट पर नजर डालें तो समूचा परिदृश्‍य की बदल जाएगा. अगर अखबारों की आईना वाली अवधारणा हिक्‍की के समय में भी होती तो संभवतः अखबार का जन्‍म ही नहीं हुआ होता, हिक्‍की का गजट तो उस असंतोष, लाचारी और गुस्‍से की अभिव्‍यकित था जिसमें व्‍यक्ति को अपनी सही बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा था और किसी और विकल्‍प के अभाव में उसने एक पोस्‍टर सरीखे कागज को अपनी अभिव्‍यकित का माध्‍यम बनाया, तब यह सूचना का जरिया नहीं आक्रोश को जताने का माध्‍यम था, आज अखबारों से जनता का आक्रोश नजर नहीं आता, वह मालिक, संपादक और रिपोर्टरों के बीच मैनिपुलेट कर लिया जाता है. खबरें जो असल में होती हैं और जो छपती हें उनके बीच का अंतर समाज को धोखा देने से इतर और कुछ नहीं होता.

अखबार जो कभी समाज के विरोध की वजह से अस्तित्‍व में आया और इसी के चलते टिका रहा, अंग्रेजों को देश से खदेड़ने तक में अखबारों की भूमिका बेहद महत्‍वपूर्ण रही, आज राजनेताओं, मालिकों और संपादकों की तिकड़ी के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच रहा है. उपेक्षितों की आवाज बनने वाला यह माध्‍यम आज शोषकों का मुखपत्र् बन चुका है. इस कुचक्र को तोड़ना इतना आसान नहीं है, जब लोग 15 रूपए का अखबार 3 रूपए में पढ़ते हैं उन्‍हें उसी वक्‍त यह समझ लेना चाहिए कि बाकी के 12 रुपए के लिए अखबार में कई सौदे किए हैं जो उनके सूचना पाने के अधिकार और असल खबर पढ़ने की इच्‍छा की कीमत पर किए गए हैं. आज इंटरनेट के युग में निश्चित तौर पर अखबारों का एकाधिकार टूट रहा है लेकिन भारत को ऑनलाइन होने में समय लगेगा, तब तक उन्‍हें यह अत्‍याचार झेलना ही होगा.
इससे उबरने या इससे निपटने संबंधी उपायों विचारों का स्‍वागत है.

Wednesday, July 21, 2010

पत्र्कारिता में आपातकाल

प्रेस विज्ञप्ति




विषय- अघोषित आपातकाल में पत्रकारों की भूमिका

संदर्भ- स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद पांडेय की कथित मुठभेड़ पर उठे सवाल



नई दिल्ली। 20 जुलाई। गांधी शांति प्रतिष्ठान में ‘जर्नलिस्ट फॉर पीपुल’ की ओर से ‘अघोषित आपातकाल में पत्रकारों की भूमिका’ विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

इस विषय पर बोलते हुए आर्य समाज के नेता और समाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेष ने कहा कि आज देश में आपातकाल जैसी स्थितियां हैं। स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता कॉमरेड आजाद की कथित मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए स्वामी अग्निवेष ने उनकी शहादत को सलाम पेश किया। और कहा कि इस इस दौर में पत्रकारों को साहस के साथ खबरें लिखने की कीमत चुकानी पड़ रही है।

‘इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के सलाहकार संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा माओवादी के प्रवक्ता आजाद की हत्या को शांति प्रयासों के लिए धक्का बताया। गौतम ने कहा कि आज राजसत्ता का दमन अपने चरम पर है। आजादी का ख्याल एक है। इसे अलग-अलग टुकड़ों में नहीं देखा जा सकता। देश के अलग-अलग हिस्से में सरकार अलग-अलग तरीके से पत्रकारों का दमन कर रही है। माओवादियों के संघर्ष, उत्तरपूर्व के संघर्ष और कश्मीर के संघर्ष को एक करके देखना होगा।


संगोष्ठी को संबोधित करते हुए ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि अब सरकारें अपने बताए हुए सच को ही प्रतिबंधित कर रही हैं। और जो भी पत्रकार इसे उजागर करने की कोशिश करता है उसे गोली मार दी जाती है। या देशद्रोही करार दे दिया जाता है। सही सूचनाएं पहुंचाने वाले संगीनों के साए में जी रहे हैं। उन्होने इस स्थिति के विरोध के लिए संगठन बनाने की जरूरत पर बल दिया।

इस मौके पर अंग्रेजी पत्रिका ‘हार्ड न्यूज’ के संपादक अमित सेन गुप्ता भी मौजूद थे। उन्होने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता कारपोरेट घरानों के इशारे पर संचालित हो रही है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की स्थिति और भी बुरी है। न्यूज चैनल के संपादक बॉलीवुड सितारों के गलबहियां करते नजर आते हैं। और अभिनेताओं से खबर पढ़वाई जाती है। नेता-कारपोरेट घरानों और मीडिया के गठजोड़ पर बोलते हुए अमित ने कहा कि देश के अलग अलग हिस्से में हुई घटनाओं को अलग अलग तरीके से पेश किया जाता है। खासकर एक संप्रदाय विशेष के लिए मुख्यधारा की मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। गुजरात दंगों और बाटला हाउस एनकाउंटर की रिपोर्टिग पर भी अमित सेन ने सवाल उठाए।

कवि और सामाजिक कार्यकर्ता नीलाभ ने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने के लिए बड़े पैमाने पर ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ की जरूरत है। सरकारी दमन के मसले पर हिंदी के लेखकों की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्होने संस्कृति-कर्मियों, कलाकारों, चित्रकारों की एकता और आंदोलन की जरूरत पर बल दिया।

गोष्ठी को पत्रकार पूनम पांडेय ने भी संबोधित किया और कहा कि आपातकाल केवल बाहर ही नहीं है बल्कि समाचार पत्रों के दफ्तरों में भी पत्रकारों को एक किस्म के अघोषित आपातकाल का सामना करना पड़ता है।

इस मौके पर हिंदी के तीन अखबारों (नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण) के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया गया। इन अखबारों ने पत्रकार हेमचंद्र पांडेय की मुठभेड़ में हुई हत्या के बाद तत्काल नोटिस जारी करते हुए हेमचंद्र को पत्रकार मानने से ही इंकार कर दिया था।
गोष्ठी के आखिर में पत्रकार हेमचंद्र की याद में हर साल दो जुलाई को एक व्याख्यान माला शुरु करने की घोषणा की गई।


इस गोष्ठी को समायकि वार्ता से जुड़ी पत्रकार मेधा, उत्तराखंड पत्रकार परिषद के सुरेश नौटियाल, जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी के शाह आलम और ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट, पीयूसीएल के संयोजक चितरंजन सिंह ने भी संबोधित किया।


गोष्ठी का संचालन पत्रकार भूपेन ने किया। इस कार्यक्रम में बड़ी तादात में पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता भी मौजूद थे।

जर्नलिस्ट फॉर पीपुल की ओर से जारी

संपर्क
अजय प्रकाश (9910820506)
विश्वदीपक (9910540055)

Tuesday, June 22, 2010

इस व्‍यवस्‍था में तो यही होगा

कांग्रेस ने पहले ही कह दिया था कि भोपाल गैस हादसा और उसके बाद होने वाला सारा घटनाचक्र व्‍यवस्‍‍थागत खामियों का नतीजा था, और हम सारे यानी भोपाल के गैस पीडितों, उनके आंदोलन के समर्थकों से लेकर मीडियाकर्मियों तक यह खुशफहमी पाल बैठे थे कि बिना व्‍यवस्‍था बदले हमें इंसाफ मिल जाएगा,
आखिरकार वही हुआ जो इस व्‍यवस्‍था में होना था, महज 6 फीसदी लोगों को मुआवजे की मरहमपट़टी, लेकिन असल गुनहगार अब भी ठहाके मारकर हंस रहे हैं, चाहे वह अमेरिका में बैठा एंडरसन हो या अपने देश में घूम रहा केशुब महिंद्रा,
आखिर कांग्रेस और मध्‍यप्रदेश की भाजपा सरकार के मंत्री जो मंत्र्ीसमूह में शामिल थे, इस बात पर क्‍यों खामोश रहे कि एंडरसन की निजी संपत्ति कुर्क की जाए, डाउ केमिकल से हर्जाना वसूला जाए, यूनियन कार्बाइड की भारतीय हिस्‍सेदारी खरीदने वाली एवरेडी को भी इस जुर्माने का हिस्‍सा बनाया जाए और केशुब महिंद्रा की कंपनी से भी भारीभरकम जुर्माना वसूल कर यह कडा संकेत दिया जाए कि भविष्‍य में अगर ऐसा कुछ हुआ तो उसके जिम्‍मेदारों को कतई बख्‍शा नहीं जाएगा,
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्‍योंकि आज भी वही व्‍यवस्‍था है जो 7 दिसंबर 1984 को एंडरसन को गिरफ़तार करने और महज कुछ ही घंटों में गेस्‍टहाउस में रखकर वीआईपी की तरह सरकारी हवाईजहाज से दिल्‍ली के लिए रवाना करने की जिम्‍मेदार थी, केवल नाम और चेहरे बदले हैं व्‍यवस्‍‍था नहीं, यह असलियत भोपाल और देश की जनता जितनी जल्‍दी समझ ले उतना अच्‍छा होगा,
भोपाल गैस कांड से पीडित 5 लाख से अधिक लोग आज केवल कांग्रेस और भाजपा सरकारों को कोस ही सकते हैं, लेकिन कल यही लोग स्‍थानीय नेताओं और उनके ठेकेदारों के बहकावे में आकर एक बार फिर इन्‍हीं पार्टियों को वोट देंगे और इसी व्‍यवस्था को फिर से खडा कर देंगे, आखिर इन्‍हीं लोगों के वोट के दम पर ये नेता भोपाल और दिल्‍ली की कुर्सियों पर बैठे हैं और लाचार वर्तमान तथा खौफजदा भविष्‍य की कीमत पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं,
देश के दूसरे हिस्‍सों के जो लोग भोपाल की लडाई को यह समझकर देख रहे हैं कि इसका हमसे क्‍या लेनादेना उन्‍हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्‍ता के ये दलाल एक दिन उन्‍हें ही इसी तरह कीडेमकोडों की तरह तडपकर मरने पर मजबूर कर देंगे और तब उन्‍हें इस लडाई में न शामिल होने का अफसोस होगा,
जब नर्मदा आंदोलन के कार्यकर्ता सरदार सरोवर बांध के विरोध में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे थे तब कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि यह तय करना कोर्ट का नहीं सरकार का काम है कि देश का विकास किस तरह का होना चाहिए, इस बुनियादी फैसले से तभी समझ जाना चाहिए था कि आम जनता के दुखदर्द और उनके आंसुओं का देश के विकास और पूंजीपतियों की सरकार से कोई लेना देना नहीं है, जब तक जनता जुनून बनकर इस व्‍यव्‍स्‍था को नहीं बदलेगी उसे इसी तरह जुल्‍म और जिल्‍लत बर्दाश्‍त करनी पडेगी, लेकिन याद रखने वाली बात है कि एक दिन स्‍पार्टकस ने भी बगावत कर ही थी, आखिर हम कब तक सहन करेंगे,,,,,

Friday, June 18, 2010

सारी खामी व्‍यवस्‍था की है

भोपाल गैस कांड के बाद वारेन एंडरसन की गिरफ़तारी और बाद में सरकारी हवाईजहाज से उसे भोपाल से दिल्‍ली और दिल्‍ली से अमेरिका सुरक्षित भेजने को कांग्रेस ने व्‍यवस्‍थागत खामी का नतीजा बताया है, एकदम सटीक बात, पता नहीं क्‍यों कांग्रेस की इस सनसनीखेज स्‍वीकारोक्ति पर मीडिया वालों या विपक्ष के कान खडे नहीं हुए, कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं,
कांग्रेस ने सच ही कहा, अब आप शुरू से लें, भोपाल में दो और तीन दिसंबर की रात करीब 1 बजे गैस रिसी, सुबह पांच बजे एफआईआर दर्ज कर ली गई, इसमें पुलिस ने धारा 304 लगाई जिसमें कम से कम 10 साल कैद का प्रावधान है, लेकिन व्‍यवस्‍थागत खामी यहीं से शुरू हो गई, सरकार कांग्रेस की थी, केंद्र में भी और प्रदेश में भी, सबको पता था कि जो धारा एफआईआर में लग गई वह सबके गले पड जाएगी, एंडरसन के भी, और आगे भारत में होने वाले अमेरिकी निवेश के भी, सो सरकार ने आनन,फानन में धारा में जरूरी छेडछाड करवाई, यानी 304 के आगे एक छोटा सा ए और जोड दिया ताकि एंडरसन या यूनियन कार्बाइड के किसी अन्‍य अधिकारी को ज्‍यादा तकलीफ न पहुंचे, बकौल खुद अर्जुन सिंह, हम एंडरसन को परेशान नहीं करना चाहते थे, व्‍यवस्‍थागत खामी,
बात और आगे चलेगी इन खामियों के बारे में,

Sunday, June 13, 2010

टृक हादसा ही तो है भोपाल गैस कांड

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एएम अहमदी के इस फैसले पर काफी हायतौबा मचाई जा रही है कि उन्‍होंने भोपाल गैस हादसे से जुडी धाराओं में बदलाव कर इसे मामूली टृक हादसे सरीखा बना दिया, मुझे लगता है कि उन्‍होंने ठीक ही किया, हमारे देश में कानूनों और उनका पालन करवाने वालों का जो हाल है उसे देखते हुए इन दोनों में कोई फर्क नहीं है,
अगर हमारे यहां टृक हादसे होने बंद हो जाएं तो भोपाल गैस हादसा भी नहीं होगा, शायद अहमदी अपने फैसले से देश को यही संदेश देना चाहते थे, हालांकि इस फैसले से यूनियन कार्बाइड और उससे जुडे अधिकारियों, नेताओं को जो फायदे हुए या खुद अहमदी को जो कुछ अतिरिक्‍त मिला वह जांच का विषय हो सकता है
आप देखें कि सडक पर होने वाले अधिकांश हादसों के लिए हमारा वही तंञ जिम्‍मेदार है जो भोपाल गैस हादसे के लिए जिम्‍मेदार है, इसकी शुरुआत डाइवर को मिलने वाले लाइसेंस से होती है, गलत आदमी को लाइसेंस देने का अर्थ है भविष्‍य में होने वाले हादसे को न्‍यौता देना, ठीक इसी तरह सत्‍तर के दशक में भोपाल के ठीक बीचोंबीच घातक कीटनाशक तैयार करने वाली यूनियन कार्बाइड को मंजूरी देकर तत्‍कालीन नेताओं, अधिकारियों ने भविष्‍य में एक हादसे की जमीन तैयार कर दी थी,
यह पहली गलती काफी हद तक ठीक की भी जा सकती थी अगर गलत लाइसेंस मिलने के बावजूद सडक पर चल रहे वाहन की मेंटनेंस, स्‍पीड और डाइवर के नशे में होने या न होने के बारे में यातायात पुलिस अपना काम सही करती, यानी वाहन के ब्रेक फेल नहीं होते, वह समय पर रुक जाता और डृाइवर होशोहवाश में रहता तो तय था कि हादसा रोका जा सकता था,
ठीक इसी तरह अगर यूनियन कार्बाइड के मामले में प्रदूषण नियंञण के अधिकारी व खुद यूसी के अधिकारी समयसमय पर यह जांच करते कि कंपनी में मेंटनेंस सही ढंग किया जा रहा है, लीकेज नहीं हो पा रहा है, सुरक्षा मानकों का पालन हो रहा है तो यह हादसा नहीं हुआ होता,
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, और एक मामूली सडक हादसे की ही तर्ज पर भोपाल गैस हादसा हो गया, सडक हादसे में चार लोग मरते हैं, यहां 25 हजार जानें गईं, लेकिन कारण कमोबेश वही था, लापरवाही, भ्रष्‍टाचार और खुदगर्जी,

जारी

Saturday, June 12, 2010

आखिर एंडरसन ने किया क्‍या है

भोपाल गैस हादसे के लिए इन दिनों हर कोई एंडरसन के पीछे हाथ धोकर पडा हुआ है, मानो उसे पकड लिया तो भोपाल में हुई 25 हजार मौतों और लाखों लाइलाज बीमारियों का हल मिल जाएगा, दुख तो इस बात का है कि भोपाल में गैस हादसा होने देने के लिए एंडरसन की यूनियन कार्बाइड को जिन् लोगों की लापरवाही और जिल्‍लत भरी लालच ने इजाजत और मौका दिया उन्‍हें कोई क्‍यों नहीं पकड रहा है,
आखिर केशब महिंद्रा ही वह शख्‍स था जो तब यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन था और जाहिर तौर पर भारत में कंपनी के हर मुनाफे की तरह उससे होने वाली तबाही के लिए जिम्‍मेदार भी, अगर वह आज महिंद्रा और महिंद्रा का चेयरमैन बनकर करोडों रुपए का मालिक बना बैठा है तो क्‍या मीडिया की यह जिम्‍मेदारी नहीं बनती कि एंडरसन के ही बराबर उसे भी जिम्‍मेदार समझें और एंडरसन के प्रत्‍यर्पण की ही तर्ज पर देश में मौजूद इस अदालत की ओर से दोषी करार दिए गए अपराधी को सजा का हकदार बनाने की मुहिम छेडें,
लेकिन आज मीडिया के लिए महिंद्रा विज्ञापन का एक बडा स्रोत है जबकि एंडरसन के खिलाफ अभियान छेडनें में नुकसान नहीं फायदा ही फायदा है, सो सारे अखबार और चैनल देशी अपराधियों को छोडकर अमेरिका में जा बसे एंडरसन के पीछे हाथ धोकर पडे हैं, सवाल इस बात का है कि जो केशब महिद्रा 84 में यूनियन कार्बाइड के हादसे के लिए दोषी ठहराया जा चुका है उसकी तमाम कंपनियों को किस आधार पर देश में चलने की मंजूरी दी जा रही है आखिर इस बात की क्‍य गारंटी है कि उसकी कंपनियों से देश में ऐसे और भोपाल गैस हादसे नहीं होंगे,

जारी