Tuesday, October 12, 2010

चार माह का भ्रूण मुस्‍कुराया, 42 फीसदी बच्‍चे कुपोषित

कल दो खबरें अलग अलग पेजों पर पढने को मिलीं, एक में विदेशी वैज्ञानिकों के एक परीक्षण की जानकारी थी जिसके मुताबिक चार महीने का भ्रूण भी संवेदनाओं का महसूस कर सकता है. वह अपनी मां की भावनाओं को पहचानकर गमजदा या खुश हो सकता है. इस बारे में एक भ्रूण की मुस्‍कुराती हुई तस्‍वीर भी प्रकाशित की गई. कुछ अखबारों में यह खबर पेज 1 पर भी तो कुछ में अंदर. इसी के साथ एक दूसरी यह खबर थी कि भारत के बच्‍वे विश्‍व में सर्वाधिक कुपोषित हैं. ग्‍लोबल हंगर इंडेक्‍स के मुताबिक भारत के 42 फीसदी बच्‍चे कुपोषित हैं.
अब ऐसे समय में जब कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में खिलाडी सोना जीत रहे हों, सचिन तेंडुलकर 49वां शतक लगा रहे हों, हॉकी में भारत अपने चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्‍तान को हराकर सेमीफाइनल में पहुंच गया हो, देश के 42 फीसदी बच्‍चों के कुपोषण की खबर छप जाए यही बहुत है.
हम खेल की अपनी चुनिंदा जीतों पर इतने खुश हैं कि गर्त में जा रहे भविष्‍य के बारे में सोचना भी नहीं चाहते. अगले पांच सालों में हम विश्‍व की तीसरी सबसे बडी ताकत बनेंगे, चीन को पीछे छोड जाएंगे और साथ्‍ा में होंगे 42 फीसदी भूखे नंगे पेट वाले नाक सिकोडुते बच्‍चे. ये न तो मीडिया में सुर्खियां बन पाएंगे ना ही इनके नाम पर वोट खरीदे या बेचे जाएंगे. क्‍योंकि इन्‍हीं की कीमत पर हम स्‍वर्णपथ पर दौडेंगे सरपट. मुकेश अंबानी बनेंगे देश के सबसे अमीर आदमी, देश के एक लाख से बढकर शायद पांच लाख लोग हो जाएंगे अरबपति, ऐसे में कुछेक करोड बच्‍चे महज कुछ रुपयों, सरकारी योजनाओं में घपलों, अधिकारियों की लापरवाही की वजह से कुपोषित रहे जाएं, उनमें कुछेक लाख असमय ही काल की भेंट चढ जाएं तो क्‍या फर्क पडता है. आखिर ये हमारे टीजी (टारगेट ग्रुप) थोडे ही ना हैं. ये कंबख्‍त ना तो अखबार पढते हैं ना ही उसमें विज्ञापन देते हैं फिर इनकी खबर आखिरकार क्‍यों छपे. आज तो सीधा सीधा लेन देन का मामला है. खबर उसकी जो अखबार पढुकर रीडरशिप बढाए और विज्ञापन कमवाए.
अफसोस केवल इसी बात का है कि हम पत्र् कार आखिर कब तक यूं ही अपनी संवेदनाओं को मारते रहेंगे, हमारा जी भी तो कभी कचोटता होगा कि मंदिर मस्जिद, राजनीतिक बयानबाजी, अमीरों के चोंचलों की खबरें अनुवाद और सुधार सुधार कर हम कब भाडगीरी करते रहेंगे.
खैर जब जिसका जमीर जागे, तभी सही. नहीं तो लोग तो हैं ही. जब बात पेट पर आए तो हर रिश्‍ते हर आंकडे और विकास का हर नारा बेमानी हो जाता है, जिसदिन ये 42 फीसदी कुपोषित बच्‍चे, अगर इनमें से आधे भी बचकर बडे हो गए, और हमारे विकास की चकाचौंध से अपना हिस्‍सा मांग बैठे तो हमारी सारी मानसिक और आर्थिक दलाली की ताकत धरी की धरी रह जाएगी, क्‍योंकि इनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा और तब हमारे पास बचाने के लिए कुछ नहीं होगा.
इस पाप में जो सीधे सीधे भागी हैं वे तो हैं ही, हम ऐसी कौम हैं जिसपर इस पाप के दस्‍तावेजीकरण की तथाकथित जिम्‍मेदारी है, अगर हम भी इसी पाप में शामिल हैं तो असल पापी से ज्‍यादा बडे गुनहगार होंगे.