Wednesday, November 19, 2008

लक्ष्‍मी की जिद



लक्ष्‍मी अपने साथ हुए अन्‍याय का प्रतिकार करना चाहती है। पिछले साल 24 नवंबर को सरे राह कुछ मध्‍यम वर्गीय कथित शहरियों ने उसका चीरहरण किया था। उसके शरीर पर वस्‍त्र का एक टुकड़ा भी नहीं रहने दिया गया था। शहरियों की यह नाराजगी इसलिए थी कि लक्ष्‍मी असम की राजधानी गुवाहाटी में रैली निकाल रही उस आदिवासी टीम में शामिल थी जो आदिवासियों के लिए अपनाए जा रही गलत नीतियों का विरोध कर रही थी। लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक तरीके से किए जा रहे विरोध प्रदर्शन से नाराज कुछ सभ्‍य समाज के लोगों ने एक आदिवासी महिला को सरे बाजार नंगा कर अपने श्रेष्‍ठ होने का परिचय दिया था। जब कुछ ऐसी ही स्थिति हजारों साल पहले महाभारत में आई थी जब कौरवों की सभा में दुर्योधन ने द्रौपदी का चीरहरण किया तब इसका नतीजा भीषण युद़ध और अंतत: कौरवों की शर्मनाक पराजय के रूप में सामने आया था। इस बार भी लक्ष्‍मी ने बदला लेने की ठानी है, लेकिन व्‍यक्तिगत तौर पर नहीं। यह काम कानून और सरकार का है। मुख्‍यमंत्री निवास से महज कुछ ही दूरी पर हुए इस कांड पर साल बीतने के बावजूद किसी को गिरफ़तार तक नहीं किया जा सका। यह लोकतांत्रिक सरकार की हार है। लेकिन लक्ष्‍मी को अब भी लोकतंत्र पर भरोसा है।

यही वजह है कि इस लड़ाई को निजी नहीं सार्वजनिक हित के लिए लड़ना चाहती है। वह उन महिलाओं में नहीं है जो अपमान के बाद शर्म के चलते खुदकुशी कर लें या खुद को किसी को मुंह दिखाने लायक न समझें। लक्ष्‍मी लोकतांत्रिक तरीके से सम्‍मान पाने की लड़ाई लड़ना चाहती है। वह असम की तेजपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहती है। इसके लिए उसे असम यूनाइटेड डेमोक्रेट फ्रंट का समर्थन भी मिल गया है।

जरा सोचिए अगर वह आगामी लोकसभा चुनाव जीत गई और एक सांसद की तरह उसी क्षेत्र में दौरा किया जहां उसका चीरहरण किया गया था, तो वहां के उन वाशिंदों के दिल पर क्‍या बीतेगी जिन्‍होंने यह कृत्‍य किया और जिन्‍होंने होते हुए देखा। और सबसे बड़ी बात, लक्ष्‍मी के मन को कितनी बड़ी तसल्‍ली मिलेगी कि उसे एक सांसद के तौर पर जो सम्‍मान मिलेगा उसकी तेज धारा में वह सारा अपमान मिट़टी के धब्‍बे की तरह धुल जाएगा। लक्ष्‍मी को हम सबको समर्थन देना चाहिए, हम उसके लिए वोट भले ही न कर पाएं पर नैतिक रूप से उसका पक्ष जरूर ले सकते हैं। खासकर यह देखते हुए कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद भी असम से ही राज्‍यसभा के लिए चुने गए हैं। भले ही उन्‍होंने लक्ष्‍मी के साथ घटी इस घटना पर कोई भी टिप्‍पणी न की हो।

Sunday, November 9, 2008

अभी तो बस इतना ही

दोस्‍तो,
अभी तो बस इतना ही कहना चाहता हूं कि बहुत दिनों से लिख नहीं पाया इसका खेद है। दिल से माफी मांगता हूं। इसका एक कारण तो यह था कि कुछ घरेलू काम ज्‍यादा समय मांग रहे थे और दूसरा मुख्‍य कारण यह था कि जिन मुद़दों पर लिखने का मन था वे जितना समय मांग रहे थे उतना देने के लिए था नहीं। बहरहाल, अब उम्‍मीद है कि समय निकल पाएगा। मैं कई विषयों पर लिखना चाहता हूं। राज ठाकरे की मराठी जिद, साध्‍वी प्रज्ञा ठाकुर की तथाकथित राष्‍टीय अस्मिता की जिद, बराक ओबामा के अश्‍वेत और काले लिखे पर मत भिन्‍नता आदि। लेकिन थोड़ा सा समय चाहिए। यह पोस्टिंग केवल इसलिए ताकि अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकूं।
सादर आप सभी का
अमन

Wednesday, August 6, 2008

भय और भ्रम का बाजार

'भय बिनु होई न प्रीति', यानी बिना डर के दोस्ती नहीं होती। यह पुरानी कहावत है। इसका नया स्वरूप यह है कि 'भय बिनु होई न बिक्री'। यानी डर के बिना बाजार में माल बेचना संभव नहीं है। जी हां, डर या भय यानी इंसान की सबसे महत्वपूर्ण भावना। पहले जिस डर का इस्तेमाल प्रीति करने या लोगों को खतरनाक हालात से बचाने के लिए किया जाता था, आज वही भावना बाजार को बढ़ाने में बेइंतहा इस्तेमाल हो रही है और खुल्लमखुल्ला। चाहे हम अपने समाचार टीवी चैनलों पर आने वाले अपराध संबंधी वे धारावाहिकनुमा कार्यक्रम देखें जिनमें जरिए हमें अपने आसपास के माहौल से हमेषा सतर्क रहने, किसी पर भरोसा न करने की ताकीद की जाती है। इन चैनलों पर हत्या, बलात्कार, लूट जैसी घटनाओं के नाटकीय रूपांतर हमें अंदर तक भयभीत कर देते हैं, या फिर अखबारों में सुर्खियां बनती इन्हीं खबरों के विस्तार में जाएं जिनसे ऐसा लगता है मानो पूरा समाज हत्यारा, लूटेरा और बलात्कारी हो गया है, और इनके बारे में लगातार जानने के लिए चैनल देखना तथा अखबार पढ़ते रहना जरूरी है। और इसी बढ़ते दर्षक या पाठक वर्ग का फायदा उठाती हैं विज्ञापन एजेंसिंया, जो उन्हीं अखबारों, चैनलों को ज्यादा विज्ञापन देती हैं जिन्हें ज्यादा दर्षक या पाठक मिलते हैं। और हम जाने-अनजाने अपराध, हिंसा, लूट तथा बलात्कार की खबरों के बीच आने वाले विज्ञापनों के शिकार बन जाते हैं।
आइए इस मुद्दे को जरा गहराई से समझते हैं। दरअसल इसके दो पहलू हैं। पहला पहलू विशद्व तकनीकी है, यानी भय का वैज्ञानिक या यूं कहें डाक्टरी पक्ष। अगर इस नजरिए से देखेंं तो हम पाएंगे कि भय, डर या फोबिया की सात सौ से भी ज्यादा तरह की किस्में हैं। यानी हमारे आसपास या दुनिया में कम से कम सात सौ तरह के डर हो सकते हैं। इनमें मरने का डर निश्‍िचत तौर पर सबसे महत्वपूर्ण है, लेकिन ऐसे भी कई भय हैं, जिनके बारे में हममें से ज्यादातर को पता ही नहीं है। मसलन, सड़क पार करने का भय 'एगॉरोफोबिया', विचारों से भय 'ऐलोडोक्साफोबिया', हवा से भय 'एन्क्रेओफोबिया', आदमी से भय 'एंड्रोफोबिया', अंकों से भय 'अर्थमोफोबिया', मिसाइल या गोलियों से भय 'बैलिस्टोफोबिया', किताबों से भय 'बिब्लियोफोबिया', खूबसूरत औरतों से भय 'कैलिगॉयनेफोबिया', बैठने का भय 'कैथिसोफोबिया', पैसों से भय 'क्रोमेटोफोबिया', कंप्यूटर से भय 'साइबरफोबिया', घर का भय 'इकोफोबिया', स्वतंत्रता का भय 'इल्यूथिरोफोबिया', ज्ञान का भय 'एपिस्टेमोफोबिया', ईश्‍वर का भय 'ज्यूसोफोबिया' आदि आदि। इन तमाम तरह के भय या फोबिया के अनेक कारण होते हैं और उनमें से ज्यादातर मनोवैज्ञानिक होते हैं। यानी व्यक्तिगत तौर पर इनमें से किसी भी भय के शिकार लोग मनोवैज्ञानिक के पास जाकर अपनी समस्या का हल कर सकते हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो हमारे लिए कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। और वह है भय या फोबिया की इस नितांत व्यक्तिगत भावना का व्यापारिक दोहन, यानी इन डरों को बाजार के लिए इस्तेमाल करना। और यही आज विज्ञापन की दुनिया की असल कमाई है।
अगर भय और विज्ञापन के इस रिश्‍ते को थोड़ा पीछे जाकर देखें तो हम पाएंगे कि 90 के दशक में अमेरिकन टेलीविजन पर क्लैरिटन नामक दवा का एक विज्ञापन अभियान चला था, जो दवा उद्योग को अपने उत्पादों का विज्ञापन करने के लिए मिली छूट का संभवत: पहला बड़ा इस्तेमाल था। इस दवा के उत्पादक शेरिंग प्लाउ कारपोरेशन ने प्रयोगों के दौरान इसके महज 46 फीसदी सफल होने तथा इसके असरदायक होने के दावों के संदेह के दायरे में घिरे होने के बावजूद अपने विज्ञापनों में जबर्दस्त प्रचार किया और डायबिटीज के रोगियों के लिए इसे अमरबाण की तरह प्रस्तुत किया। इसका असर यह रहा कि क्लैरिटन अब तक के इतिहास में विज्ञापन के बल पर सबसे ज्यादा बिकने वाली दवा की श्रेणी में आ गई। और यह हुआ इस दवा के विज्ञापन के जरिए दुनिया भर में डायबिटीज के रोगियों में एक विषेश तरह का भय पैदा करना और उसके निदान के लिए क्लैरिटन का उपयोग करने का माहौल बनाना। इसी तरह स्तन कैंसर के लिए जिम्मेदार एक जीन पर किए गए प्रयोग 'बीआरसीए' से जुड़ी कंपनी मॉयरिड जेनेटिक्स ने अपने विज्ञापन में स्तन कैंसर का भय कई गुना ज्यादा कर बताया और दुनिया भर की महिलाओं को कंपनी के क्लीनिकों में जाकर विशेष कैंसर परीक्षण के लिए प्रेरित किया।
इन परीक्षणों की कीमत के रूप में कंपनी ने करोड़ों कमाए लेकिन वह यह साबित तक नहीं कर पाई कि जिन महिलाओं का उसने परीक्षण किया वे स्तर कैंसर के लिए पॉजिटिव थीं या नेगेटिव। ऐसे हर एक परीक्षण की कीमत थी 2800 डालर यानी लगभग सवा लाख रुपए। हालांकि तमाम तकनीकी व वैज्ञानिक कारणों से इस कंपनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी पर इससे यह जरूर तय हो गया कि प्रामाणिक तथा विश्‍वसनीय माने जाने वाले प्रयोगशाला के प्रयोग भी अब बाजार में आम लोगों को बेवकूफ बनाकर कंपनियों के मुनाफे के लिए इस्तेमाल होने शरू हो चुके थे। जाहिर है कि इससे वैज्ञानिकों, अनुसंधानों तथा प्रयोगशालाओं की विश्‍सनीयता और नीयत पर सवाल उठ खड़े हुए।आज ऐसी दवाओं की एक लंबी फेहरिस्त मौजूद है जो तमाम तरह की बंदिशों तथा दुष्‍प्रभावों के बावजूद विज्ञापनों के बल पर आम जनता को बेवकूफ बनाकर करोड़ों की कमाई कर रही हैं। साथ ही ऐसे विज्ञापनों की भी एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिनमें भय या डर को केंद्र बिंदु बनाकर अपना उत्पाद बेचा जाता है। कुछ की बानगी यूं है,'एलजी के लैट स्क्रीन टीवी का विज्ञापन देखें, जिसमें एक बच्चा स्कूल के बाद सीधे घर न जाकर एक टीवी के शो’रूम के बाहर खड़ा टीवी देख रहा है, और उसकी शिकायत यह है कि मां आंखें खराब होने के भय से उसे टीवी नहीं देखने देती, लेकिन यहीं एलजी का विज्ञापन कहता है कि उनके नए टीवी में आंखे खराब होने का कोई भय नहीं है।' क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि डॉक्टरों की तमाम हिदायतों और आंखों में तकलीफों के बावजूद इस विज्ञापन के बाद कितने लाख बच्चों ने अपने अभिभावकों से एलजी के टीवी अपने घरों पर लगाने की जिद की होगी। इस विज्ञापन में आखिर ऐसे किस संस्थान, प्रयोगशाला या डॉक्टर का जिक्र किया गया है जो यह दावा करता है कि इस अनूठे टीवी की स्क्रीन निहारने पर आंखें खराब नहीं होतीं।' इसी तरह लड़कियों की शादी के सिलसिले में कई विज्ञापन अपनी हदें पार करते नजर आते हैं। एक विज्ञापन में लड़के वाले कहते हैं कि जिस घर की दीवारों से चूना झड़ता हो, वहां की लड़की की क्या शादी करनी। और जब यही घर बिड़ला व्हाइट सीमेंट से चमकता है और दोनों परिवारों में रिश्‍ता तय हो जाता है। तो क्या आम घरों की लड़कियां जिनके घर झड़ने वाले चूनों से पोते जाते हैं, वे शादी करने लायक नहीं है। हैरानी की बात है कि ऐसे विज्ञापनों पर किसी महिला संगठन ने आवाज नहीं उठाई। इसी तरह सांवली लड़कियों को हमारे टीवी विज्ञापनों के मुताबिक शादी करने का कोई अधिकार नहीं है, कयोंकि हर बार लड़की देखने आने वाले लोग सांवली लड़कियों को नकार देते हैं, लेकिन जब वही लड़कियां फेयर एंड लवली या ऐसे ही अन्य सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से 'करिश्‍माई' ढंग से गोरी हो जाती हैं तो उनके लिए लड़कों की लाइन लग जाती है। कुदरती तौर पर मिलने वाले सांवलेपन को हीनभावना का कारण बताने वाले विज्ञापन क्या हमारी लड़कियों में भय पैदा नहीं कर रहे। गौरतलब है कि भारत के संविधान में रंग, जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की बात कही गई है, ऐसे विज्ञापन क्या भारतीय संविधान का खुल्लमखुला उल्लंघन नहीं कर रहे हैं।
ऐसे ही एक विज्ञापन में खेतान खुद को पंखों का बाप बताते हुए कहता है कि जिस घर में पंखों का बाप नहीं है वहां की लड़की से शादी नहीं हो सकती है। अब इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि विज्ञापन वाले इस घर में लड़की के पिता नहीं हैं। यानी जिस लड़की का पिता न हो उससे शादी नहीं की जा सकती। ऐसे विवादित विज्ञापनों की सूची काफी लंबी है। ऐसा नहीं है कि ऐसे विज्ञापनों पर किसी की नजर जाती न हो या इनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जाता है। कुछ महीनों पहले मुंबई की एक महिला ने बच्चों की सर्वोत्तम देखभाल करने का दावा करने वाली बहुराष्‍ट़ीय कंपनी 'जॉनसन एंड जॉनसन' पर दावा ठोका कि उसके उत्पादों में बच्चों की कोमल त्वचा को नुकसान पहुंचाने वाले तत्व हैं जबकि वह अपने विज्ञापनों में दावा करती है उसके उत्पादों से बच्चों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। इस महिला की षिकायत पर 'खाद्य व औषधि नियंत्रक' ने कंपनी को ड्रग व कॉस्मेंटिक अधिनियम, 1940 की धारा 17 (सी) के तहत नोटिस भेजा कि वह अपने उत्पादों से 'बेबी उत्पाद' का ब्रांड हटा ले क्योंकि उसके उत्पादों में इस तथ्य का जिक्र नहीं है कि उनमें 99 फीसद हल्का पैराफिन नामक द्रव्य पदार्थ है जो बच्चों के लिए नुकसानदायक है। बहरहाल अभी तक तो कंपनी ने अपने उत्पादों से 'बेबी उत्पाद' का ब्रांड नहीं हटाया है और ना ही उसके खिलाफ कोई और कार्रवाई की गई है।
इसकी वजह जाननी कोई खास मुश्किल भी नहीं है। विज्ञापन का बाजार बेहद ताकतवर और पहुंच वाला है, अगर इसमें मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय को जोड़ दिया जाए फिर तो बात ही क्या है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि प्राइसवाटर कूपर हाउस के अनुसार सन 2008 तक वैश्विक मीडिया तथा मनोरंजन व्यवसाय बढ़कर 1.7 खरब डालर लगभग '85 खरब रुपए' का हो जाएगा। इस कमाई में मांग पर वीडियो, इंटरनेट विज्ञापन, रेडियो पर विज्ञापन, वीडियो खेल आदि का काफी बड़ा हिस्सा होगा। अगर हम केवल विज्ञापन की दुनिया की कमाई देखें तो पाएंगे की यह समूची दुनिया की कमाई का एक प्रतिषत हिस्सा बनाता है। सन 2004 के आंकड़ों के मुताबिक यह राशि 365.8 अरब डालर के करीब पहुंचती है जिसमें अकेले उत्तरी अमेरिका का हिस्सा 167.8 अरब डालर का है। जबकि अफ्रीका, मध्य-पूर्व और भारत जैसे देशों की विज्ञापन से कुल कमाई महज 15.6 अरब डालर की ही है।
जाहिर है कि अरबों, खरबों की कमाई वाले इस धंधे में रुपए से बड़ा कुछ भी नहीं है। अपना माल बेचने के लिए कंपनियां भय और लालच की किन हदों तक जा सकती हैं और कौन से तरीके आजमा सकती हैं इनकी बानगी रोज अपने टीवी चैनलों और अखबारों में देखी जा सकती है। भारत में भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विज्ञापन बाजार करीब 8000 करोड़ रुपए का है। एक ऐसे दौर में जब मीडिया खबरों पर नहीं विज्ञापनों की बैसाखियों पर चल रहा हो और अपनी तमाम नीतियां विज्ञापन कंपनियों को खुष करने पर आधारित कर रहा हो, यह उम्मीद करना कि अखबारों या टीवी चैनलों के जरिए हमें स्वस्थ, ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और सामाजिक सरोकार वाली सूचनात्मक खबरें मिलेंगी सचमुच वर्तमान बाजारवादी दौर के साथ ज्यादती होगी। ऐसे दौर में जब उत्पाद जरूरत पर नहीं विज्ञापन के आधार पर खरीदे और बेचे जाते हों, मनोवैज्ञानिक तौर पर हमें यह सोचने को मजबूर कर दिया जाता हो कि हमें इन उत्पादों की जरूरत है, यानी हमारी जिंदगी और खुषियां ही नहीं हमारी सोच पर भी विज्ञापन कंपनियों का कब्जा होता जा रहा हो, बुनियादी जरूरतों, मानवीय संबंधों और बेहतर जीवन के लिए हमें कम से कम मीडिया और विज्ञापन बाजार से उम्मीद का आंचल छुड़ा लेना चाहिए।

विज्ञापन से जुड़े कुछ तथ्य :
अमेरिका के चोटी विज्ञापनदाता
कंपनी खर्च'मिलियन डालर में'
प्रोक्टर एंड गैंबल 2915.10
जनरल मोटर्स 2802.60
टाइम वार्नर्स इंक. 2062.30
एसबीसी 1867.70
डेमलर क्रिसलर 1825.30
फोर्ड मोटर्स 1643.50
वेरीजॉन 1624.90
वाल्ट डिजनी कंपनी 1484.10
जॉनसन एंड जॉनसन 1289.30
न्यूजकॉर्प लिमि. 1129.20
कुल 18744.20
स्रोत: टीएनएस मीडिया इंटेलीजेंस

मीडिया द्वारा विज्ञापनों पर खर्च

मीडिया समूह खर्च मि.डॉलर

स्थानीय अखबार 24555.50
नेटवर्क टीवी 22522.40
उपभोक्ता पत्रिकाएं 21292.20

स्पॉट टीवी 17305.40
केबल टीवी 14248.80
इंटरनेट 7441.50
स्थानीय रेडियो 7330.50
राश्ट्रीय अखबार 3255.20
नेषनल स्पाट रेडियो 2616.50
रविवारी पत्रिकाएं 1497.40
नेटवर्क रेडियो 1027.80
स्थानीय पत्रिकाएं 360.20
कुल 123453.4

Tuesday, July 22, 2008

मेरा पैसा मेरा देश

आज इस देश को अपने सांसदों पर बलिहारी होना चाहिए। अबतक जो कुछ वे संसद से बाहर करते आए हैं आज वही 'दुस्‍साहस ' उन्‍होंने संसद के भीतर अंजाम देकर देश को साफ तौर पर यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनकी करनी और कथनी का अंतर किस तेजी से घटता जा रहा है। आज के तमाम अखबारों और टीवी चैनलों ने 22 जुलाई के इस दिन को भारतीय लोकतंत्र का काला दिन करार दिया है। मुझे लगता है यह हमारे सांसदों, उनकी निष्‍ठा और इच्‍छाशक्ति का अपमान है। जब मनमोहन और सोनिया गांधी की सरकार ने संसद में विश्‍वास मत पाने के लिए हत्‍या समेत तमाम गैरकानूनी हरकतों के लिए जेल में बंद तमाम सांसदों को संसद में बुलाने का फैसला किया था देश को तभी समझ जाना चाहिए था कि उन्‍हें इस विश्‍वास की क्‍या कीमत चुकानी पड़ सकती है। अब तो उन्‍हें खामोशी से अपने घरों में बैठकर इस तमाशे को देखने और अगले चुनावों में एक बार फिर इसी तमाशे का हिस्‍सा बनने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि हम जिस फसल के बीज बोते हैं उसकी फसल होने पर नाक, भौं सिकोड़ते हैं और पानी, खाद देने वालों को कोसते हैं। जब हम हर दिन ट़ेनों में बिना रिजर्वेशन कराए टीटी को पैसे देने में शर्मिंदा नहीं होते, बिना हैलमेट पहने बाइक की सवारी करने पर पुलिस की हथेली चुपचाप गर्म करने में बेशर्म बन जाते हैं, ड़ाइविंग लाइसेंस बनवाने कभी आरटीओ नहीं जाते, एजेंट को पैसे देकर खुश हो जातें हैं कि घर बैठे लाइसेंस मिल गया, रास्‍ते में सड़क हादसा देखकर भी अनदेखा करतें हैं कि कहीं गवाही न देनी पड़ जाए, तमाम सरकारी आफिसों में बाबुओं को इसलिए ज्‍यादा पैसे खिलाते हैं कि काम जल्‍द हो जाए तो उस वक्‍त हम इन सांसदों की हरकतों के लिए बेहतर जमीन तैयार कर रहे होते हैं। हम बहाने बनाते हैं कि नेताओं के पदचिन्‍हों पर ही जनता चलती है लेकिन हम केवल उन्‍हीं नेताओं के पदचिन्‍ह ढूंढते हैं जो सबसे ज्‍यादा काले और गहरे हों, जिन्‍हें माथे पर सबसे ज्‍यादा दाग हों। क्‍योंकि हमें पता है कि ईमानदारी आज एड़स से भी घातक ऐसी बीमारी बन गई है जिसके लगने पर घर, परिवार और देश का विनाश संभव है। हमें तो आज खुश होना चाहिए कि सांसदों ने संसद के भीतर एक करोड़ के नोटों का सार्वजनिक प्रदर्शन कर पूरे देश के सामने आगे का रास्‍ता खोल दिया है। अब हमें संभ्रांत और कुलीन घरों की बहुओं की तरह घूंघट के भीतर रहकर अपनी वासनाओं को अंदर ही अंदर दबाते रहने की जरूरत नहीं है, अब हम खुलेआम लेन देने का खेल खेल सकते हैं। देश के इस हमाम में क्‍या नेता और क्‍या प्रजा। जब तक हमाम में पानी है सभी को नंगे होकर जमकर नहाना चाहिए। जब पानी खत्‍म हो जाए तो एक दूसरे का खून बहाना शुरू कर देना चाहिए और उसमें डुबकी लगानी चाहिए। और अंत में जब सब खत्‍म हो जाएगा शायद तब खून की इन सूखी पपडियों के ऊपर फिर से ईमानदारी का एक नया अंकुर फूटे।

Sunday, July 6, 2008

और आप कहते हैं नक्‍सलवाद बढ़ रहा है


देश में बढ़ता नक्‍सलवाद हमारे, आपके सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। इस तीन जुलाई को जब समूचा देश अमरनाथ के मुद़दे पर श्राईन बोर्ड को दी जमीन वापस लेने के जम्‍मू कश्‍मीर सरकार के फैसले के विरोध की आग की लपटों में झुलस रहा था, गुजरात में गोधरा, पंचमहाल का क्षेत्र एक नई तरह की समस्‍या से जूझ रहा था। अगर कोई और दिन होता या यही घटना छत्‍तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश अथवा झारखंड में होती तो कम से कम इसे नक्‍सलवादी हमले के तौर पर अखबारों में थोड़ी जगह तो मिल ही जाती। लेकिन यहां मुद़दा धार्मिक, सांप्रदायिक न होकर प्रशासनिक नाकारेपन का था और इसीलिए यह मीडिया से लगभग अछूता ही रह गया।


गुजरात का गोधरा एक बार फिर चर्चा में हैं। इस बार यह सांप्रदायिक नहीं बल्कि मोदी सरकार की उदासीनता, उपेक्षा और लापरवाही के चलते चर्चा में आया है। यहांपंचमहाल जिले की दो तहसीलों, संतरामपुर और कडाणा में रहने वाले सैकड़ों आदिवासी 3 जुलाई को सड़कों पर थे। ये श्राईन बोर्ड की जमीन के मुद़दे पर नहीं बल्कि अपनी जमीन पर अपनी पहचान साबित करने की लड़ाई लड़ रहे थे। पिछले 10 सालों से जारी जाति प्रमाण पत्र बनवाने की लड़ाई के धीरज का बांध टूट चुका था। हजारों आदिवासियों ने 3 जुलाई को कडाणा के तहसीलदार कार्यालय पर हमला बोल दिया। चूंकि यह नक्‍सली हमला नहीं था इसलिए दिन दहाड़े और बताकर किया गया। जाहिर है सरकार की ओर से खासी तैयारी खाकी वर्दी के रूप में मौजूद थी। दोनों ओर से जमकर पत्‍थर चले, लोग घायल हुए। पुलिस ने आदिवासियों पर काबू पाने के लिए आंसू गैस के गोले भी छोड़े। बहरहाल पुलिस के आला सूत्रों और सरकार के बयानों के मुताबिक हालात काबू में हैं। लेकिन सवाल यह है कि 10 साल से जारी प्रशासनिक उपेक्षा और लापरवाही का रवैया रातोंरात बदल जाएगा ऐसा कोई चमत्‍कार गुजरात में होगा क्‍या हमें इसकी उम्मीद करनी चाहिए। शायद नहीं। यूं भी नरेंद्र मोदी सरकार का सारा ध्‍यान अहमदाबाद, गांधीनगर और सूरत सरीखे शहरों को ही चमकाने में लगा हुआ है।
आदिवासी संघर्ष समिति के बैनर तले जुटे ये आदिवासी तो महज उन हजारों लोगों के प्रतिनिधि हैं जो आदिवासी गांवों में बैठे न्‍याय की बाट जोह रहे हैं। तीन जुलाई को इनके आह़वान पर जिस तरह समूची कडाणा तहसील का कारोबार ठप हो गया उससे साफ पता चलता है कि स्‍थानीय लोगों पर इनका कितना असर है। सरकार भले इनकी ना सुने, अपने हकों को लेकर इनके अंदर पनपी जागरूकता अब संघर्ष से सींची जा चुकी है और लंबी लड़ाई के लिए तैयार है। अगर आदिवासियों की इस नाराजगी को गुजरात की व्‍यावसायिक सफलता में मदांध्‍ा सरकार समझने और सुलझाने में सफल नहीं होती तो निश्चित ही यहां हालात बेकाबू हो सकते हैं। ऐसी हालत में इन आंदोलनरत नाराज आदिवासियों का अगला कदम क्‍या होगा। हो सकता है वे अगला वार दिन की बजाय रात में, बिना सरकार को बताएं करें। तब सरकार को उन्‍हें नक्‍सली बताना और उनपर गोलियां चलाना आसान हो जाएगा। और मुख्‍यधारा मीडिया जो अब तक इस मुद़दे पर कान नहीं धर रहा, गुजरात में मोदी के राज में नक्‍सलवाद सरीखी खबरों को मसाले के साथ छापेगा, दिखाएगा। और हम भविष्‍य के नक्‍सलवाद की इस जमीन को भुलाकर अमरनाथ की जमीन श्राईन बोर्ड को वापस करने के खिलाफ जारी आंदोलन पर ही अपने गुबार निकालते रहेंगे।

Thursday, June 26, 2008

कुछ और चित्र

हिमाचल का दूरस्‍थ गांव ताबो, दोनों तरफ वीरान ऊंचे पहाड़ों के बीच हरियाली का बिंदु नजर आए तो समझिए ताबो आ गया।

एक दिन में 30 किलोमीटर का पहाड़ी सफर तय करते हुए एक नदी पार करते हुए।






या यात्रा की थकान सतलुज के पानी में पैर डालने से दूर हो गई। उसके किनारे अपने मित्रों के साथ।





ये हैं सतलुज नदी का पार करने का रामपुर सराहन के बाद एकमात्र पुल।








ताबो गांव में पहाड़ी पर कई बौध गुंफाएं हैं, कहते हैं इनमें बैठकर भिक्षु साधना किया करते थे। एक गुंफा के अंदर से ताबो का नजारा।









हिमाचल यात्रा की याद कुछ चित्रों के जरिए

कुछ समय पहले मैं पहाड़ के संपादक व जानेमाने लेखक, पत्रकार शेखर पाठक जी के साथ हिमाचल की यात्रा पर गया था। उस दौरान खींचे गए कुछ फोटो हाल ही में यहां-वहां से मिल गए। मुझे फोटोग्राफी पसंद है, इसीलिए इन्‍हें भी यहां पोस्‍ट कर रहा हूं। उम्‍मीद है मेरी नजर से यह हिमाचल दर्शन आपको भी रास आएगा।











सबसे दाएं शेखर पाठक, फिर मैं, बीच में आईटीबीपी के कमांडेंट, नाम याद नहीं जिन्‍होंने इस सफर में मेरी जबर्दस्‍त हौसला अफजाई की।









रोहतांग दर्रे से पहले एक झील के सामने पहाड़ का अद़भुत नजारा।








ये सफेद जंगल फूल हिमाचल के चट़टानी पहाड़ों के सफर में आंखों को बेहद राहत देते हैं।



ये झुर्रियां बताती हैं कि उम्र के अनुभव कितने गहरे और मजबूत हैं।

Monday, June 23, 2008

पहले अस्मिता बन तो जाए


गुजरात की वेबसाइट http://gujaratindia.com/ पर जाइए, पांच करोड़ गुजरातियों के सम्मान के प्रतीक पुरुष मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस 'बिजनेट स्टेट' में आपका स्वागत करते मिलेंगे। सचमुच गुजरात आजकल बिजनेस में पूरी तरह लिप्त हो चुका है। यह व्यापार गुजरात की रगों में इस कदर दौड़ रहा है कि इसके मुनाफे को आंच न लगने देने के लिए राज्य के तमाम धृतराष्‍ट़ों ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं। मामला चाहे गोधरा हादसे के बाद 800 मुसलमानों को बर्बरतापूवेक मार डालने का हो या फिर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पहले विस्थापितों को बसाने के बारे में आमिर खान की प्रतिक्रिया पर गुजरात के राजनीतिक दलों द्वारा उनके खिलाफ की गई बयानबाजी नतीजे में उनकी फिल्म फना को राज्य में न दिखाए जाने की शूरवीरता हो अथवा अखबार के संपादक, रिपोर्टर के खिलाफ देशद्रोह के मुकदमे की बात हो, इन धृतराष्‍ट़ों ने आधुनिक महाभारत में न तो अपनी आंखें खोलीं और न ही जुबान।


सीधे सीधे मुद्दे पर आते हैं। अहमदाबाद से प्रकाशित अखबार टाइम्स आफ इंडिया के स्थानीय संपादक व रिपोर्टर के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया है क्योंकि राज्य के पुलिस महानिदेशक महोदय को इस बात पर ऐतराज था कि उनके कथित अंडरवर्ल्ड रिश्‍तों पर अखबार लगातार खबरें छापता जा रहा था। हालांकि इस मामले में अब एडीटर्स गिल्ड समेत देश भर के पत्रकारों के जबर्दस्त विरोध के बाद मामला कुछ शांत पड़ता नजर आ रहा है, लेकिन सच तो यह है कि गुजरात में असहिष्‍णुता की ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। पिछले साल भारतीय जनता युवा मोर्चा के सदस्यों ने राज्य के सिनेमाघरों में आमिर खान की फिल्म फना का प्रदर्शन नहीं होने देने के लिए मोर्चा बांधा था। कश्‍मीर के एक आतंकवादी के एक अंधी लड़की के प्रेम में पड़ने की यह फिल्म न तो उन्होंने देखी और न ही उनका इस फिल्म के गीत, संगीत, कहानी, निर्देशन या डायलागों से कोई विरोध था। यह तमाम कवायद केवल इसलिए क्योंकि इस फिल्म में आमिर खान थे। और आमिर खान में कुछ वक्त पहले दिल्ली में चल रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन के धरने में शिरकत कर यह कहा कि वे नर्मदा बांध के विस्थापितों के दुख दर्द में शामिल हैं और उनका मानना है कि बिना उनके बेहतर आवास, पुनर्वास की व्यवस्था किए बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ानी चाहिए। इस बयान से गुजरात के भाजपाइयों को मानों करंट लग गया हो, माननीय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा यह पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता के खिलाफ दिया गया बयान है। क्या नरेंद्र मोदी यह कहना चाहते थे कि पांच करोड़ गुजराती मध्यप्रदेश के कोई पौने दो लाख बांध प्रभावितों की कीमत पर पानी लेकर रहेंगे। क्या गुजरात के निवासी अपनी सुविधाओं के लिए दूसरों को जीने के हक तक से वंचित करने को तैयार हैं; निश्वित ही गांधी, पटेल, मोरारजी देसाई, नरहरि अमीन और अब 'बिजनेस स्टेट' के दौर में धीरूभाई अंबानी के गुजरात में कोई भी गुजराती यह मानने को तैयार नहीं होगा कि वे दूसरों के दुखों से अपने लिए सुख खरीदेंगे। फिर यह फना के प्रदर्शन और अभिव्‍यक्ति के अधिकार पर यह अंकुश क्यों।

सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री ने सरदार सरोवर की ऊंचाई न तो आमिर खान के कहने पर रोकी और न ही नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर के 20 दिन लंबे उपवास का उनपर कोई असर पड़ा। उसके बावजूद आमिर खान के बयान में आखिर ऐसा क्या था कि गुजरात में बवंडर खड़ा हो गया। क्या गुजरात भारतीय जनता युवा मोर्चा का बंधक बन गया। गुजरात के सिनेमाघरों के मालिकों का कहना था कि उनका आमिर खान के बयान से उतना लेना देना नहीं है जितना इस आशंका से कि अगर उन्होंने यह फिल्म राज्य के सिनेमाघरों में दिखाई तो जबर्दस्त तोड़फोड़ की जाएगी और उनका नुकसान होगा। क्या पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता के प्रवक्ता नरेंद्र मोदी के लिए यह चिंता का विशय नहीं है कि देश विदेश से भारी निवेश कर रहे उनके राज्य में मनोरंजन उद्योग की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। कल को यही स्थिति दूसरे उद्योगों की नहीं होगी, इस बात की आखिर वे क्या गारंटी दे सकते हैं। देश के विकसित राज्यों की सूची में अव्वल स्थानों पर रहने वाले गुजरात के पांच करोड़ लोगों का दिल आखिर उन आदिवासियों, गरीबों के लिए क्यों नहीं पिघलता जो गुजरात के विकास की कीमत अपनी जमीन, संस्कृति और परंपरा से चुका रहे हैं। हर किसी को खुद के लिए अर्जित की गई वस्तु की कीमत चुकानी पड़ती है। गुजरात के पांच करोड़ लोग अपने विकास की क्या कीमत चुका रहे हैं?

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सरदार सरोवर को देश के सवा अरब लोगों के लिए नहीं गुजरात के पांच करोड़ लोगों की अस्मिता का प्रतीक बताते हैं। अगर वे गुजरात को देश का अभिन्न हिस्सा मानते तो मध्यप्रदेश के डूब प्रभावितों की डूबती किस्मत को गुजरात के पांच करोड़ लोगों की अस्मिता पर कुर्बान न करते। अगर वे देश को गुजरात से ऊपर मानते तो आमिर खान की फिल्म का सबसे ज्यादा स्वागत गुजरात में करवाते। लेकिन अफसोस है कि बिजनेट स्टेट बनने की दौड़ में गुजरात मानवता, सौहार्दय, भाईचारा और सदाषयता जैसे जीवन मूल्यों को पीछे छोड़ता जा रहा है। हद तो यह है कि वे केंद्र को हाल ही में यह चुनौती भी दे बैठे कि गुजरात को उनसे किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं चाहिए, बशर्ते केंद्र गुजरात से साल भर तक किसी तरह का टैक्स ना ले। अगर केद्र-राज्य संबंधों की इस मोदी व्याख्या को थोड़ी और ढील दी जाए तो कश्‍मीर, मणिपुर, मिजोरम सरीखे उत्‍तरपूर्वी राज्यों में चल रहे अलगाववादियों के बयान और मोदी के बयान में ज्यादा मूलभूत अंतर नजर नहीं आएगा। लेकिन जरूरी नहीं है कि गुजरात के पांच करोड़ लोग ऐसे ही विचारों के हों। बहुत संभव है कि अभी भी बहुमत उनका हो जो गांधी, पटेल, मोरारजी या नरहरि अमीन के नाम पर आंखें न मूंद लेते हों, जरूरत है उनके मुखर होने की। वरना जो मुखर हो रहे हैं वही गुजरात के बारे में देश और दुनिया में यह संदेश देंगे कि गुजरात की संस्कृति अब बर्बर होती जा रही है, गुजरात अपने विरोध में कहा गया एक भी शब्द बर्दाश्‍त नहीं कर सकता, गुजरात दूसरों के विनाश की कीमत पर अपना विकास करने में कोई अपराधबोध नहीं महसूस करता, आदि आदि। क्या गुजरात की जनता इस अपमान को सहने के लिए तैयार है। निश्वित ही फैसला गुजरात की जनता को करना चाहिए कि वह लोकतंत्र में कुछ खास दलों की बंधक बनकर रहेगी या हिम्मत के साथ अपने विचारों के साथ आगे आकर कहेगी कि गुजरात की अस्मिता देश की अस्मिता में है और देश की अस्मिता इसमें है कि गुजरात सहित पूरे देष में अभिव्यक्ति की आजादी बनी रहे, विकास की प्रक्रिया न्यायपूर्ण और सहभागिता पर आधारित हो। ऐसा न होने की हालत में गुजरात और जम्मू कश्‍मीर के अलगाववादियों में कोई फर्क नहीं रह जाएगा जो अपने सम्मान और जिद के लिए भारत की इज्जत नहीं करते। और गुजरात के धृतराष्‍ट़ों को भी महाभारत में कौरवों की नियति भूलनी नहीं चाहिए।

Sunday, June 8, 2008

गांधी : व्यक्ति या विचार की एक परम्परा?

आचार्य राममूर्ति

गांधी नाम का जो व्यक्ति था वह वह आज से 60 वर्ष पहले समाप्त हो गया। उसे मार दिया गया। मारनेवाले की उससे कोई निजी दुश्‍मनी नहीं थी। उसने यह मानकर मारा कि गांधी के विचारों से देश का अहित हो रहा है। सामान्य स्थिति में इस तरह का निर्णय कानून करता है, लेकिन गांधी के सम्बन्ध में यह निर्णय नाथूराम गोडसे और उसके साथियों ने कर लिया; बल्कि स्वयं वीर सावरकर ने किया। सच बात तो यह है कि गांधीजी की जब हत्या हुई तो वह एक ऐसे व्यक्ति थे जिनको करोड़ों भारतीय घृणा की दृष्टि से देखते थे। एक दिन उन्होंने अपने सचिव प्यारेलाल से कहा, 'प्यारेलाल, क्या तुम जानते हो कि वे मुझे शत्रु नम्बर एक मानते हैं।' वे यानी मुसलमान। हत्या की हिन्दू ने लेकिन हिन्दुओं से ज्यादा घृणा की मुसलमानों ने। कितनी विचित्र बात है कि जिस व्यक्ति ने कभी किसी को घृणा की दृष्टि से नहीं देखा उससे नफरत करनेवाले इतने अधिक लोग हो गये थे। यही हाल शायद अनेक महापुरुषों का रहा है। ईसा ने किससे नफरत की !
गांधी ने कहा था : ''बाहर मेरी आवाज बन्द हो जायेगी तो मैं अपनी कब्र से बोलूँगा।''
'गांधीजी को गये 60 वर्ष हो गये। क्या अब उनके कब्र से बोलने का समय आ गया है? पाकिस्तान से मित्रता की बातें चल रही हैं, चलती ही जा रही हैं। देश में कहीं कोई संकट पैदा होता है तो गांधीजी की याद आती है, जेपी की याद आती है। मन में सवाल उठता है कि इन गये बीते लोगों की याद क्यों आती है। अंग्रेजी राज को समाप्त हुए इतने वर्ष हो गये लेकिन अभी तक हम यह भी नहीं तय कर सके कि भारत में रहनेवाले हर आदमी का पेट कैसे भरेगा, तन कैसे ढंकेगा, हर बच्चे की पढ़ाई कैसे होगी, बीमार की दवा कैसे होगी, बाढ़ आयेगी तो क्या होगा, सूखा पड़ेगा तो क्या होगा। ख्याल होता है कि गांधी होते, जेपी होते तो कुछ सोच लेते। और बातों को छोड़ भी दें तो हमने अभी तक यह भी नहीं तय किया कि भारत के एक अरब से अधिक लोग साथ कैसे रहेंगे। क्यों कश्‍मीर से दूसरी तरह की आवाजें आती हैं। क्यों उत्तर-पूर्व से भारत से निकल जाने की बातें आती हैं।
अगर गांधीजी की हत्या नहीं हुई होती तो 08 और 09 फरवरी को गांधीजी पाकिस्तान गये होते। इसकी इजाजत गांधीजी ने स्वयं पाकिस्तान के गवर्नर जनरल कायदे आजम जिन्ना से ले ली थी । जिन्ना ने गांधी जी के जाने के विचार का स्वागत किया था। लेकिन यह कहा था कि पाकिस्तान का माहौल अच्छा नहीं है, इसलिए पाकिस्तान आने पर गांधीजी को पुलिस और सेना के संरक्षण में रहना पड़ेगा। लेकिन वे दिन नहीं आये और पाकिस्तान जाने के एक हफ्ता पहले ही गांधीजी दुनिया से विदा कर दिये गये। आज भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे से दोस्ती की बात कहते थक नहीं रहे हैं। क्या गांधीजी ने कब्र से बोलना शुरू कर दिया है ।
क्या कारण है कि आज तक देश की कोई भी समस्या हल नहीं हो पायी -न खाने की, न कपड़े की, न षिक्षा और स्वास्थ्य की, न शांति और पड़ोसीपन की। गांधीजी ने कहा था कि अगर हम अपनी आजादी को अच्छी तरह नहीं चला पायेंगे तो उसी जगह लौट जाना पड़ेगा जहाँ से हम आजादी के लिए निकले थे। क्या हम उस दिशा में तेजी के साथ बढ़ रहे हैं।
इतनी तरक्की तो हो गयी दिखाई देती है कि हमारे शहरों में दुनियाँ में कहीं बना हुआ अच्छा-से-अच्छा सामान मिल सकता है। अगर इसको तरक्की मानें तो कर्ज न दे सकने वाले खेतिहर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, भूख से लोग मर क्यों रहे हैं। क्यों एक-एक मर्द और औरत का हृदय निराशा और क्रोध से भरता जा रहा है। कारखाना खोलना हो तो विदेश की पूँजी की जरूरत हो सकती है लेकिन पड़ोसी के साथ शांतिपूर्वक रहना हो तो उसके लिए किस पूँजी की जरूरत है। इसी तरह अगर घर-घर में छोटे उद्योग चलाने हों तो विदेश से कर्ज लेने या विश्‍व बैंक से पूँजी माँगने की जरूरत क्यों होनी चाहिए।
भारत आज तक यह नहीं तय कर सका कि उसको आगे जाने के लिए किस रास्ते पर चलना है। क्या हम अमेरिका के रास्ते पर चलना चाहते हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और शक्तिषाली देश है लेकिन दुनियाँ को आतंक से मुक्त करने के लिए सारी मनुष्य जाति को अपने आतंक में रखना चाहता है। कहा जाता है कि बीसवीं शताब्दी सबसे वैज्ञानिक शताब्दी थी लेकिन जो शताब्दी बीती और नयी शताब्दी के पांच वर्ष बीत रहे हैं यह समय इतिहास में सबसे अधिक खूनी सिध्द हुआ है। भारत की आजादी भी खूनी सिध्द हुई क्योंकि करोड़ों लोगों के दिलों में जो गुस्सा भरा हुआ था वह अचानक खून बनकर निकल पड़ा। दिखाई यह देता है कि हमारी हर समस्या गुस्सा पैदा करती है और उसके बाद खून की शक्ल लेकर प्रकट होती है। पहले क्रोध, फिर खून, यही क्रम चलता जा रहा है। हमने राजनीति ऐसी बनायी जो क्रोध और घृणा के सिवाय दूसरा कुछ जानती ही नहीं है। दिल्लीराज, पटनाराज के बाद पंचायतीराज कायम हुआ लेकिन वहाँ भी क्रोध और खून का वही सिलसिला। पंचायतीराज पड़ोस में पड़ोस का राज है। लेकिन दृश्‍य कुछ दूसरा ही दिखाई दे रहा है ।
इतने अधिक राजनैतिक दल, इतनी अधिक संस्थाएँ और इतनी बड़ी नौकरशाही - लगता है जैसे हर तीसरा चौथा आदमी देश को बनाने में ही लगा हुआ है लेकिन देश है कि बनने का नाम नहीं लेता। जीवन क्रोध, घृणा और खून से भरता जा रहा है। गांधी की आवाज, अभी धीमी आवाज, कब्र से कह रही है कि यह रास्ता छोड़ो और सत्य तथा शांति का रास्ता पकड़ो। यही बात वेद, उपनिषद और गीता ने कही, विनोबा और जेपी ने कही। कहनेवाले कहते जा रहे हैं लेकिन हम सुनते नहीं। क्या आवाजें अभी बहुत धीमी हैं ?
आजादी ने हमारी मर्जी का बहुत-सा काम भले ही न किया हो, एक काम कर दिया है, वह यह है कि हम आगे का अपना रास्ता चुन लेने के लिए स्वतंत्र हैं। मार्क्‍स, लेनिन या माओ हों, गांधी, विनोबा या जेपी हों सबके विचार हमारे पास हैं। हम जिसको चाहें स्वीकार करें या जिसको न चाहें उसको छोड़ दें। अपना नया रास्ता खुद निकालें। लेकिन इतनी बात तो तय है कि भारत को नया बनना है। समस्याओं के बोझ से दबा हुआ भारत चल नहीं सकता। हम कितनी भी नयी बातें सोचें लेकिन क्या हम महापुरुषों के बताये हुए सत्य को छोड़ देने का जोखिम उठायेंगे। हजारों वर्ष पुराने इस देश को एक नयी विशेष शैली चाहिए जिसमें ऋषियों के सोचे हुए मूल्य हों तो आधुनिक वैज्ञानिकों की बनायी हुई तकनीक हो। दोनों के समन्वय से विकसित एक नयी जीवन शैली निकालने का काम भारत को करना ही पड़ेगा। वह नयी जीवन शैली असत्य और हिंसा के आधार पर नहीं चलेगी। हम सत्य को छोड़ दें तो विज्ञान छूट जायेगा और अगर हिंसा का रास्ता पकड़ लें तो हम मनुष्य रह ही नहीं जायेंगे। जेपी ने तीस वर्ष हुए यह बताया कि परिवर्तन का पहला चरण कम-से-कम लोकतंत्र की मर्यादाओं को तो मानें और फिर धीरे-धीरे एक नैतिक समाज-रचना की तरफ बढ़ें। लोकतांत्रिक समाज खूनी समाज नहीं होता, हिंसा-मुक्त होता है। एक बार खून को अलग रखकर सोचने की आदत डालनी पड़ेगी। बुध्द ने कहा था, 'मिलो, बात करो और सहमति विकसित करो'। काम की योजना सहमति के आधार पर बने, सत्ताा पक्ष और विपक्ष के आधार पर नहीं। गांधी ने 'सर्व' की बात कही, 'कुछ' की नहीं। यदि सर्व का हित सामने रखना है तो सत्ता और स्वामित्व, दोनों का आग्रह छोड़ना पड़ेगा और जीवन को संपूर्णता में देखना पड़ेगा। मनुष्य चाँद और सूरज तक पहुँच गया है। पृथ्वी पर जीने की सीमाओं को लांघकर अब वह सृष्टि का सदस्य बन रहा है। सृष्टि में जीनेवाला मनुष्य कब तक पृथ्वी की सीमाओं को ढोयेगा। घृणा और असत्य की सीमाओं से उसे आगे बढ़ना ही है। ईसा, बुध्द, महावीर और मुहम्मद की परम्परा में जीनेवाले भारतवासियों ने गांधी, विनोबा और जेपी की परंपरा भी देखी है। अब समय आ गया है कि दुनिया के शुभ तत्वों को जोड़कर एक नयी भारतीय जीवन शैली विकसित की जाये। जीवन की सम्पूर्ण क्रांति युग की पुकार है।

Wednesday, June 4, 2008

परंपरा का पानी

आज पर्यावरण दिवस है। दुनिया भर में ग्‍लोबल वार्मिंग से लेकर जल संरक्षण तक तमाम बहस-मुबाहिसे और तकरीरें होंगी। मैं इस मौके पर अपनी नेपाल यात्रा के दौरान हुए ऐसे अनुभव को बांटना चाहता हूं जो समस्‍या पर बात करने से ज्‍यादा समस्‍या के समाधान के मौके तलाशने का अवसर देता है। हमारे यहां पानी के बंटवारे को लेकर अक्सर नल-टंटों से लेकर गांव-शहरों और राज्यों के बीच तक झगड़े होते रहते हैं। कई बार तो गली-मोहल्लों या खेतों में इसी वजह से लोगों की जान भी चली जाती है। लेकिन हमारे पड़ोसी देश नेपाल में पानी के बंटवारे को लेकर पिछले डेढ़ सौ सालों से एक ऐसी परंपरा चली आ रही है जो न केवल लोगों के आपसी भाईचारे को बढ़ाती है बल्कि उनकी जरूरतों के मुताबिक पानी का सही बंटवारा भी करती है। 'छत्‍तीस मौजा कूलो' के नाम से जानी जाती यह परंपरा नेपाल के तराई में बसे रूपनदेही जिले में आज भी जारी है। संभवत: पानी के मुद्दे पर तीसरे विश्‍व युध्द की आशंका वाले वर्तमान युग में इस क्षेत्र में पानी का इतना शांत और न्यायोचित वितरण इस लिए हो पाता है कि दुनिया भर में शांति का संदेश देने वाले गौतम बुध्द का जन्म स्थल 'लुंबिनी' यहां से महज 30 किलोमीटर दूर है।
गौरतलब है कि यहां मौजा का अर्थ है गांव, जबकि कूलो नहर को कहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि छत्‍तीस मौजा कूलो से यहां के 36 गांवों में तिनाऊ नदी का पानी पहुंचाया जाता है। हालांकि यह परंपरा छत्‍तीस मौजा कूलो के नाम से दुनिया भर में मशहूर है लेकिन दरअसल यहां पानी के बंटवारे की दो परंपराएं एक साथ काम करती हैं। पहली छत्‍तीस समौजा तथा दूसरी सोलहमौजा कूलो। यानी पहली से 36 गांवों तक पानी पहुंचता है तो दूसरी से 16 गांवों तक। अब, आबादी बढ़ने व गांवों के पुनर्गठन होने के कारण पहली से 59 गांवों में, जबकि दूसरी से 33 गांवों में पानी पहुंचता है। दोनों से कुल मिलाकर तकरीबन 6000 हैक्टेयर क्षेत्र में पानी का इस्तेमाल होता है। अगर आबादी के नजरिए से देखें तो लाभान्वितों की संख्या 53000 परिवारों तक पहुंचती है। इस व्यवस्था की खास बात यह है कि इसकी कल्पना करने, इसे लागू करने और अब तक कायम बनाए रखने में सरकार की कभी कोई भूमिका नहीं रही। यह तो यहां के समाज की एकता, समझ और दूरदर्शिता थी जो आज भी बदस्तूर जारी है।
यहां आने वाला सारा पानी तिनाऊ नदी से नहर के जरिए लाया जाता है। यह नहर डेढ़ सौ साल पहले सामूहिक श्रम के जरिए बनाई गई थी। नदी से कुछ दूर जाकर नहर पूरब व पश्चिम की नहर में बंट जाती है। पूरब की नहर छत्‍तीस मौजा कूला कहलाती है जबकि पश्चिम की सोलहमौजा कूलो। खास बात यह है कि आज भी हर साल तिनाऊ से हर गांव तक नहर की सफाई का सारा जिम्मा समाज का है। बारिश के ठीक पहले इस नहर में हजारों की संख्या में सफाई करने वाले किसानों को देखने का नजारा ही कुछ और होता है। छत्‍तीस मौजा कूलो समिति तथा मणिग्राम ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक बताते हैं कि हर साल यहां की जनता नहर के लिए 50 लाख रुपयों के बराबर का श्रमदान करती है। खास बात यह है कि समिति के सदस्य जिसमें हर गांव के लोगों की भागीदारी होती है बेहद वैज्ञानिक ढंग से यह तय करते हैं कि किस मौसम में किस गांव को कितना पानी दिया जाएगा और हर गांव के खेत के आकार के मुताबिक उसके मालिक के परिवार के कितने सदस्य नहर की सफाई के काम में हाथ बंटाएंगे। मसलन अगर किसी गांव में एक किसान के पास कम जमीन है तो लाजिम है कि वह नहर का पानी कम इस्तेमाल करता है, इसलिए जब नहर में सफाई होती है तो उसके परिवार से उसी अनुपात में लोगों को भागीदारी के लिए जाना होगा। लेकिन ऐसा हमेषा नहीं होता। यहां जरूरत के मुताबिक हर परिवार से लोगों की संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। इस परंपरा में सावी, झरुआ व करधाने के नाम से तीन तरह की स्थितियां मानी गई हैं। सावी का अर्थ है कि नहर की सफाई के काम में हर घर से एक आदमी काम पर जाएगा। जबकि झरुआ में हर घर से दो आदमी जाएंगे। लेकिन करधाने जो एक तरह से आपात की स्थिति मानी जाती है, में हर घर से सभी सदस्य, मुख्यत: पुरुषों को नहर की सफाई के काम में जुटना पड़ता है।
गौरतलब है कि इस नहर के पानी के लिए किसी किसान को कर नहीं देना पड़ता। पंचायत का मानना है कि जनता खुद मेहनत कर नहर को साफ रखती है इसलिए उससे किसी तरह का कर नहीं लिया जाएगा। लेकिन अनुषासन का पालन भी तो होना चाहिए। इसके लिए लोगों ने नियम भी बनाए हुए हैं। अगर कोई किसान पानी की चोरी करता पकड़ा जाता है कि उस पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। दुबारा पकड़े जाने पर जुर्माने की राशि बढ़ जाती है। इसी तरह नहर सफाई के काम में बारी के बावजूद न जाने पर 75 रुपए जुर्माना लगाया जाता है। इस परंपरा से जुड़े 92 गांवों के 92 लोग छत्‍तीस मौजा कुलो समिति के सदस्य हैं, जबकि पांच आमंत्रित होते हैं। इस तरह कुल 97 लोग समिति में होते हैं। जबकि करीब 500 लोग समिति की आम सभा के सदस्य होते हैं। यहां किसी भी तरह का फैेसला पूर्णत: लोकतांत्रिक तरीके से सबकी सहमति के बाद ही किया जाता है। बुटवल नगरपालिका के इस मणिग्राम पंचायत के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक की षिकायत है कि सरकार इस परंपरा के संरक्षण के लिए कोई मदद नहीं कर रही। बहरहाल सैकड़ों वर्श पुरानी परंपरा बचाने वाली मणिग्राम पंचायत की स्थिति पर भी एक नजर डालनी जरूरी है, ताकि परंपरा और आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादी इकाई का तालमेल देखा जा सके।
मणिग्राम ग्राम विकास समिति का सालाना विकास बजट है, 86 लाख रुपए। इसमें सरकार का योगदान है 4,82000 रुपए का। निश्चित ही यह हैरान करने वाली बात है कि बाकी पैसे कहां से आते होंगे। समिति ने गांव के विकास के लिए तरह-तरह के कर लगा रखे हैं। मसलन तिनाऊ नदी के किनारे से बालू ले जाने पर कर, गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार का कर, आस-पास लगे छोटे उद्योगों से सालाना कर, किसानों से भूमि कर, घरों से 20 रु. की दर से कर जो हर मंजिल के अनुसार दुगना होता जाता है। यहां मोटर साइकिल पर 25 रु. जबकि साइकिल पर 2 रु. की दर से कर वसूला जाता है। इसी तरह रंगीन टेलीविजन पर 25 रु. तथा श्‍वेत श्‍याम टीवी पर 20 रु. कर की दर है। अब जरा उन लोगों पर एक नजर डाली जाए जो इस गांव से निकलकर दुनिया के कोने-कोने में बसे हुए हैं। यहां से भारत आने वालों की संख्या है 300, जबकि 79 हांगकांग में काम कर रहे हैं, 43 लोगों ने इंग्लैंड का रुख किया है तो जर्मनी जाने वालों की संख्या महज 9 है। जबकि 56 लोग सउदी अरब में नौकरी कर रहे हैं और 29 दक्षिण कोरिया में। जाहिर है कि नेपाल की तराई में बसा यह गांव आधुनिकता और परंपरा का अद्भुत मेल है। आज के उपभोक्तावाद के दौर में जहां लोग फैशन और आधुनिकता के चक्कर में अपनी परंपरा भूलते जा रहे हैं, मणिग्राम इन दोनों के बीच जबरदस्त सामंजस्य बिठाकर गांव का विकास कर रहा है। आज भले ही नेपाल राजशाही से हटकर साम्‍यवादियों के हाथों में चला गया हो पर निश्चित ही ऐसे प्रयोगों को और जगहों पर दुहराने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता।

Sunday, June 1, 2008

हाशिए के स्वर

उजाला छड़ी, खबर लहरिया, अपना पन्ना, दिशा संवाद, गांव सभा, गांव की बात, कलम, पंचतंत्र यह सूची काफी लंबी है। ये नाम हैं उन कुछ प्रकाशनों के, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में वैकल्पिक मीडिया के रूप में लंबे समय से सफलतापूर्वक सूचना देने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं। मुख्यधारा मीडिया खासकर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में आए क्रांतिकारी बदलाव के बावजूद देश के एक बड़े हिस्से को आज भी अपने मतलब की जरूरखबरों से वंचित रहना पड़ रहा है। अगर हम इन वैकल्पिक मीडिया के प्रकाशनों के विषय वस्तु व जानकारियों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि गांव, खेती, मजदूर, पलायन, पंचायत, महिला, सूचना का अधिकार, आदिवासी, शिक्षा, बच्चे आदि ऐसे कई महत्वपूर्ण विषय हैं जिनपर इन प्रकाशनों में ध्यान दिया जाता है। जाहिर सी बात है कि अगर इन विषयों पर मुख्यधारा मीडिया ध्यान दे रहा होता तो इन प्रकाशनों का अस्तित्व में आना और बना रहना संभव ही नहीं था।
हम यहां मुख्यधारा मीडिया की कमियों या खासियत की बात नहीं कर रहे, हम देश में जगह-जगह चल रहे छोटे-छोटे ऐसे सूचना प्रयासों की जानकारी आपको देना चाह रहे हैं जो आम लोगों की जरूरत पूरा करने में जी-जान से लगे हैं। इंटरनेट, विज्ञापन, टीवी और डिजिटल रेखा के उस पर रहने वाले आम लोगों की सूचना जरूरतें पूरी करना यूं भी संभवत: मुख्यधारा मीडिया के एजेंडे में नहीं है। आइए कुछ प्रयासों पर नजर डालते हैं। उजाला छड़ी एक टेबुलाइड अखबार है, जो जयपुर से प्रकाशित होता है। इसका उद्देश्‍य ग्रामीणों की उन सूचना जरूरतों को पूरा करना है जो मुख्यधारा मीडिया से पूरी नहीं हो पातीं। जनता के लिए निकाले जा रहे इस मासिक ग्रामीण् समाचार पत्र को निकलते 14 पूरे हो चुके हैं। इस बीच इसने कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन आज यह सफलतापूर्वक राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में पंचायती राज को लोकतांत्रिक, उत्तरदायी और जनभागीदारीपूर्ण बनाने, सूचना के अधिकार की जनसुनवाईयों को सार्वजनिक करनेह, महिला आंदोलन की सफलताओं की छोटी-छोटी कहानियां प्रकाशित कर अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा है। इसकी संपादिका ममता जेतली जो शुरू से ही इस मुहिम में शामिल रही हैं, को हंगर प्रोजेक्ट की ओर से पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका पर लेखन के लिए दो लाख रुपयों का पुरस्कार मिला है। वह सारी राशि भी इसी अखबार को चलाए रखने में झोंक दी गई है।
उजाला छड़ी के एक अंक की एक बानगी इसे समझने के लिए काफी होगी। इसके पहले पेज पर महिला यौन हिंसा के खिलाफ जारी मुहिम की जानकारी है, साथ ही जयपुर में चलाए जा रहे 'आपरेशन गरिमा' के बारे में भी बताया गया है। इसमें यौन हिंसा की शिकार लड़कियों, महिलाओं की सहूलियत के लिए टेलीफोन नंबर दिए गए है, जिनपर वे शिकायत दर्ज कर सकती हैं। अखबार के संपादकीय में राजनीतिक टिप्पणियों की परंपरा से बचते हुए रोशनी और इंद्रा नामक दो सगी बहनों को तलाक के बाद मिलने वाले गुजारे भत्ते की सफल संर्घष गाथा बताई गई है। यह जानकारी ग्रामीण क्षेत्र की कई दूसरी महिलाओं के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। अखबार में खेमीबाई की कहानी एक पूरे पेज में दी गई है जिसे महिला कार्यकर्ताओं तथा पंचायत के सम्मिलित प्रयासों के बाद डायन कहलाने के अभिशाप से मुक्ति मिली है। अखबार की अन्य महत्वपूर्ण खबरों में चित्तौड़गढ़ में पंचायत स्तर पर सूचना के अधिकार की लड़ाई, केंद्र सरकार द्वारा रोजगार गारंटी कानून बनाने की मंशा के साथ-साथ एक ढाणी की महिलाओं द्वारा पानी और स्कूल की कमी आपसी सहभागिता से दूर करने की सफल कहानी भी शामिल है। उजाला छड़ी कुल 8 पन्नों का अखबार है जिसमें मुख्यधारा अखबारों के विपरीत बड़े अक्षरों में खबरें छपती हैं ताकि गांव, देहात में लोग आसानी से इसे पढ़ सकें। इसकी खास बात यह है कि दूर-दराज के गांवों के इसके पाठक अपनी तमाम तरह की जिज्ञासाएं, सवाल भी संपादक के नाम पत्र में लिखते हैं, जिनसे उनकी समस्याओं, सफलताओं की जानकारी मिलती है। कई बार इस छोटे से अखबार में प्रकाशित छोटी-छोटी जानकारियां बड़े अखबारों के लिए स्कूप का भी काम करती हैं। जाहिर है कि अपने नाम के ही अनुरूप उजाला छड़ी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में सूचनाओं का उजाला फैला रही है।
ऐसे प्रयास और भी हैं। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से दिशा संवाद नामक पत्रिका प्रकाशित होती है और प्रदेश के अलावा देश के कई भागों में प्रसारित होती है। दिशा संवाद भी तकरीबन एक दशक से छोटी-मोटी बाधाओं के साथ निकल रही है। फिलहाल आर्थिक कारणों से यह दिक्कत में है। इस पत्रिका की खास बात यह है कि इसके तमाम लेखक वे युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो मध्यप्रदेश के तमाम जिलों में जनमुद्दों पर सक्रिय काम कर रहे हैं। दिशा संवामुद्दों की एडवोकेसी के लिए मीडिया को एक सशक्त माध्यम मानता है और सामाजिक कार्यकर्ताओं को पिछले एक दशक से छोटी-छोटी लेखन कार्यशालाओं के जरिए मुद्दों पर लेखन के लिए तैयार करता आया है। आज उसके लिए मध्यप्रदेश में तकरीबन एक सौ मुद्दाधारित लेखकों की सूची है। खास बात यह है कि दिशा संवाद के लेखक मुद्दों के प्रसार के लिए केवल इस पत्रिका को ही आधार नहीं बनाते, बल्कि वे स्थानीय मुख्यधारा अखबारों में भी निरंतर स्थान बनाते हैं। यह स्थान लेख या फीचर के रूप में न मिले तो भी इन्हें कोई अफसोस नहीं होता क्योंकि अक्सर होशंगाबाद जिले के सभी अखबारों के संपादकों के नाम के तमाम पत्र केवल इन्हीं लेखकों के लिखे होते हैं। कई बार दिशा संवाद ने अपने लेखकों के जरिए स्थानीय स्तर पर ऐसे मुद्दे उठाए हैं, जिनकी स्थानीय मीडिया को कोई खबर तक नहीं थी। मसलन, जिले में साक्षरता पर जारी एक मुहिम के सरकारी दावों की पड़ताल जब दिशा संवाद के लेखकों ने क्षेत्र में जाकर की और उसे फर्जी पाया तो अपनी पत्रिका में उसपर एक रपट जारी की। इसे जिला प्रशासन ने गंभीरता से लिया और सरकारी की विफलता के बजाय दिशा संवाद की रपट को संदेहास्पद मानते हुए दुबारा जांच करवाई। लेकिन दिशा संवाद सही साबित हुआ और जिला प्रशासन को साक्षरता मुहिम के अपने दावे वापस लेने पड़े। इसी तरह खेती का निजीकरण, जेनेटिक मॉडिफाइड बीज, आदिवासियों पर अत्याचार जैसे कई मामले हैं, जिनमें दिशा संवाद ने पहल की और सफलता हासिल की। कुल एक हजार प्रतियों वाले इस प्रकाशन से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
इसी तरह बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले में वनांगना नामक संस्था के सहयोग से सात स्थानीय महिलाएं पिछले दो साल से 'खबर लहरिया' नामक अखबार निकाल रही है। इसकी सफलता की कहानी इसी से आंकी जा सकती है कि इस साल यह 'चमेली देवी जैन' पुरुस्कार से नवाजा जा चुका है। बुंदेली भाषा में निकल रहे इस अखबार की प्रसार संख्या भी एक हजार ही है, लेकिन जिले के कई मुद्दों को उठाने और ग्रामीणों को स्वास्थ्य, मजदूरी, सूचना आदि की जानकारी देने में इसने कई मिसाल कायम की है। ऐसे प्रकाशनों का सिलसिला लंबा है। देवास, मध्यप्रदेश से पिछले तीन सालों से पंचतंत्र नाम मासिक अखबार निकल रहा है जिसमें केवल पंचायतों से जुड़ी जानकारियां ही दी जाती हैं। एकलव्य नामक संस्था के बैनर तले शुरू हुए इस अखबार के लेखकों में ज्यादातर पंचायती राज से जुड़े सदस्य हैं। पंचतंत्र जिले की तमाम पंचायतों के अलावा जिला व राज्य प्रशासन को भी भेजा जाता है। और अब लोगों के सफल प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर अखबार के संपादक व राज्य के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र बंधु ने इसे संस्था के दायरे से बाहर निकालकर व्यावसायिक अखबार का स्वरूप देने का फैसला किया है। बंधु यह सुनिश्चित करते हैं कि अखबार के फैलाव से इसके उद्देश्‍य और प्रतिबद्धता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
झारखंड भी इस मुहिम से अछूता नहीं है। वहां कई तरह के प्रयोग जारी हैं। संवाद मंथन नामक फीचर सेवा में हर माह मुख्यधारा मीडिया में 15 मुद्दाधारित आलेखफीचर भेजे जाते हैं। इसके लिए राज्य में जगह-जगह लेखन कार्यशालाओं के जरिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को लेखन का प्रशिक्षण दिया जाता है। ध्यान देने वाली बात है संवाद मंथन राज्य की जेलों में बंद पोटा के शिकार बच्चों से लेकर, दिल्ली जाकर गुम होने वाली झारखंडी लड़कियों तक की तथ्यपरक जानकारियों अपने लेखों में शामिल करता है, जो मुख्यधारा मीडिया से किसी भी मायने में कमतर नहीं है। इसके अलावा गांव सभा नामक एक मासिक पत्रिका में पंचायत से जुड़े तमाम पहलुओं तथा सरकारी घोषणाओं को संक्षिप्त, सरल भाषा में आम ग्रामीणों को मुहैया कराया जाता है। रांची से ही 'खान, खनिज और अधिकार' नामक मासिक अखबार प्रकाशित हो रहा है, जिसमें राज्य में खनन से जुड़े तमाम मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है। खासकर मजदूरों को उचित मजदूरी, खनन में विदेशी कंपनियों की दखल, खनन से जल, जंगल, जमीन को नुकसान आदि कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनपर राज्य के मुख्यधारा मीडिया ने अब तक कोई विशेष रवैया नहीं अपनाया है, लेकिन इस अखबार का लक्ष्य ही ऐसे मुद्दों को उठाना है। इसी तर्ज पर राजस्थान के जोधपुर जिले से स्वराज नामक प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका में जमीन, जंगल, पंचायत, दलित, महिला आदि मुद्दों पर नियमित उपयोगी जानकारियां राज्य के विभिन्न जिलों के ग्रामीणों तक पहुंचती हैं। इसी राज्य में 'एकल नारी की आवाज' नामक अखबार में राज्य में जारी एकल नारी आंदोलन की खबरें स्थान पाती हैं। गौरतलब है कि राजस्थान देश का ऐसा पहला राज्य है जहां करीब 35 हजार एकल नारियों ने एकजुट होकर अपने अधिकारों का झंडा बुलंद किया है, यह अखबार उनके संर्घष का एक प्रमुख औजार है।
उत्तरांचल से भी 'मध्य हिमालय' नामक मासिक पत्रिका पिछले लंबे समय से राज्य के जनमुद्दों को उठाने में सक्रिय भूमिका निभाती आ रही है। पिथौरागढ़ से निकल रही इस पत्रिका के संपादक दिनेश जोशी खुद पत्रकार रचुके हैं तथा आजकल हिमालय स्टडी सर्किल नामक संस्था के जरिए राज्य के भिन्न मुद्दों पर काम कर रहे हैं। पत्रिका में पंचायती राज, जंगल, महिलाएं, स्वास्थ्य, रोजगार आदि बुनियादी मुद्दों पर लेख, फीचर व सरकारी जानकारियां भी शामिल की जाती हैं। इनके अलावा पुणे से 'प्रोटेक्टेड एरिया अपडेट' जिसमें देश भर के अभयारण्यों तथा जंगलों से आदमियों के रिश्‍तों की तथ्यात्मक जानकारियां दी जाती हैं, दिल्ली से 'डेम, रिवर एंड पीपुल' जिसमें देश भर में बांधों, नदियों तथा लोगों के मुद्दों को स्थान मिलता है, नियमित प्रकाशित होने वाले वैकल्पिक प्रकाशनों में गिने जा सकते हैं। यह सच है कि इन तमाम वैकल्पिक प्रकाशनों में से किसी की भी प्रसार संख्या एक या दो हजार से अधिक की नहीं है, लेकिन इसके पाठकों की खासियत यह है कि वे खुद को मिली जानकारियों को आगे कई गुना पाठकों तक पहुंचाते हैं। जाहिर है कि ये प्रकाशन चेन रिएक्शन की तरह जानकारियों का प्रचार-प्रसार करते हैं। मुख्यधारा मीडिया से इतर जारी इस वैकल्पिक प्रकाशनों का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है क्योंकि मुख्यधारा मीडिया की विषयवस्तु और आम जनता के उपयोग की जानकारियों की खाई बढ़ती ही जा रही है। शायद ये छोटे-छोटे प्रकाशन भविष्‍य की सामुदायिक पत्रकारिता का आधार बने।

Saturday, May 31, 2008

हमारी नदियों पर मंडराता खतरा


नदियां अब अविरल नहीं बहतीं। एक समय था जब लोगों को नदियों पर भरोसा था कि वह अपने मार्ग से विचलित नहीं होगी और गंतव्य पर जरूर पहुंचेगी। लेकिन यह लोगों की करतूतों का ही नतीजा है कि दुनिया की सबसे महान नदियां तक सुरक्षित समुद्र में मिल सकेंगी इसका कोई भरोसा नहीं है। अमेरिका और मैक्सिको की सीमाओं पर बह रही रियो ग्रेन्डे नदी अक्सर मैक्सिको की खाड़ी तक पहुंचने से पहले सूख जा रही है। और ऐसा संकट झेल रही यह अकेली बड़ी नदी नहीं है। हाल यह है कि भारत की सर्वाधिक धार्मिक महत्व वाली गंगा जिसे हमने मां का दर्जा दिया हुआ है और सिंधु जो नदियों के पिता माने जाते हैं समेत नील, मरे डार्लिंग व कोलाराडो 10 बड़ी नदियां बांधों, सिंचाई व शहरों की प्यास बुझाने की तमाम योजनाओं के चलते सूखने की कगार पर हैं।


10 प्रमुख नदियां:
नदी लंबाई (किमी) प्रभावित आबादी संबंधित देश

सालवीन- 2800 60 लाख चीन, म्यामांर, थाइलैंड
दानुबी 2780 81 क़रोड़ रोमानिया समेत 19 देश
ला प्लाटा 3740 10 करोड़ ब्राजील, अर्जेंटीना, पेरुग्वे
रियो ग्रेन्ड, रियो ब्रेवो 3033 1 करोड़ अमेरिका, मैक्सिको
गंगा 2507 20 करोड़ नेपाल, भारत, चीन, बांग्लादेश
सिंधु 2900 17 करोड़ भारत, चीन, पाकिस्तान
नील लेक विक्टोरिया 6695 36 करोड़ 10 देश
मुरे डार्लिंग 3370 20 लाख आस्ट्रेलिया
म्कांग लेनसंग 4600 57 क़रोड़ चीन, म्यामांर, थाइलैंड, कंबोडिया
यांग्त्से 6300 43 करोड़ चीन
रिपोर्ट:
यह रिपोर्ट विश्‍व प्रकृति निधि ने तैयार की है। इसके लिए आठ अंतरराष्‍ट्रीय सर्वेक्षण रपटों के नतीजों का अध्ययन किया गया। दो हजार से अधिक लेखकों, शोधकर्ताओं व समीक्षकों की रपटों के आधार पर 225 नदी घाटियों के लिए सर्वाधिक अहम 6 खतरों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
मुख्य बिंदु: - आज नदियों के किनारे रहने वाली आबादी का 41 फीसदी हिस्सा संकट में है;

- बीते 50 सालों में मानव ने नदियों व उससे जुड़ी पारिस्थितिकीय को जितना नुकसान पहुंचाया है उतना अब तक इतनी अवधि में कभी भी नहीं पहुंचाया गया।
- दुनिया की 10 हजार ताजे पानी की जीवों व वनस्पतियों की प्रजातियों में से 20 फीसदी नष्‍ट हो चुकी हैं। - दुनिया की 177 बड़ी नदियों में से महज 21 (12 फीसदी) समुद्र तक बिना बाधा के बह पा रही हैं।


ये हैं प्रमुख खतरे और उनके समाधान
1- अत्यधिक दोहन: कृषि व घरेलू उपयोगों के लिए नदियों के पानी के अत्यधिक दोहन से यह खतरा हो गया है कि रियो ग्रेन्डे तथा गंगा नदियों पूरी तरह सूख सकती हैं;
2- बांध व ढांचागत निर्माण: नदियों पर बांध व अन्य ढांचागत निर्माण के चलते सालवीन, ला प्लाटा तथा दानुबी नदियों पर संकट आ खड़ा हुआ है।
3- आक्रामक प्रजातियां: कई तरह की आक्रामक प्रजातियों के चलते मुरे डार्लिंग नदी की पारिस्थतिकी संकट में जलवाय परिवर्तन – जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले तामपान बढ़ोतरी ने सिंधु व उसके प्रभाव क्षेत्र की अन्‍य हिमालयी नदियों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। इसके चलते नील लेक विक्‍टोरिया के लिए मछली उत्‍पादन तथा जल आपूर्ति में गंभीर संकट की स्थिति है।

4- अत्यधिक मछली आखेट: मछली के शिकार में बेतरतीब बढ़ोतरी, मछली के अधिकारों का असंतुलित बंटवारा तथा मछलियों के अत्यधिक सेवन से मेकांग जैसी नदियों व उनके पारिस्थितिकीय पर गंभीर असर पड़ा है। प्रदूषण: चीन की यांग्त्से नदी व उसकी पूरी घाटी भारी औद्योगीकरण, बांध व गाद के कारण प्रदूषण की चपेट में है। यह दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी मानी जाती है।


समाधान: प्राकृतिक बहाव सुनिश्चित करना, जल आवंटन व अधिकारों को बेहतर करना, जल उपयोग की क्षमता बढ़ाना, जल सेवाओं का भुगतान तय करना, कम पानी वाली फसलों को प्रोत्साहन, ऐसी कृषि सब्सिडी खत्म करना जिनसे अत्यधिक जल दोहन वाली खेती होती हो, ढांचागत निर्माण का विकल्प तलाशना, बांधों का आकार छोटा रखना, तकनीकी बदलाव, जंगलों में बढ़ोतरी, नदियों, तालाबो व अन्य जल क्षेत्रों का संरक्षण, पारिस्थितिकी को बेहतर करने के उपायों से ही जैव विविधता पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकेगा। लेकिन ये तमाम समाधान तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक सीमाओं से परे जाकर सहभागी रवैया नहीं अपनाया जाएगा।


कैसे हैं पिता सिंधु के हाल:


भारतीय प्रायद्वीप की सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान मानी जाने वाली सिंधु तिब्बत में मानसरोवर से शुरू होती है और 3200 किमी का सफर तय कर कश्‍मीर व पाकिस्तान से होते हुए कराची के पास अरब सागर में समा जाती है। इसका बेसिन क्षेत्र करीब 11 लाख 65 हजार वर्ग किमी में फैला हुआ है। पाकिस्तान की जीवन रेखा मानी जाने वाली यह नदी अपनी सहायक नदियों मसलन चेनाब, रावी, सतलुज, झेलम व ब्यास के साथ पंजाब, हरियाणा व हिमाचल के लिए बेहद अहम भूमिका निभाती है। पहले सरस्वती भी इनमें शामिल थी और तब सिंधु को सप्तसिंधु कहा जाता था। माना जाता है कि प्राचीन काल में सिंधु कच्छ के रण में भी बहती थी। इसके किनारों पर अब तक 1052 शहरों की खोज की जा चुकी है।

विशेषताएं:
- सिंधु का अनुमानित वार्षिक बहाव 207 घन किमी माना जाता है; इसका बेसिन वि6व में सर्वाधिक सूखा माना जाता है। सिंधु व इसकी ज्यादातर सहायक नदियां काराकोरम, हिंदु कुश तथा तिब्बत, कश्‍मीर व पाकिस्तान के उत्तरी भागों के ग्लेशियरों पर आधारित हैं। - सिकंदर के आक्रमण के समय सिंधु घाटी में घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ जंगलों का तेजी से विनाश हो गया; आज शिवालिक पहाड़ियों पर हो रहा अतिक्रमण इसकी ताजा मिसाल है। सिंधु की बेसिन में मौजूद मूल जंगलों का 90 फीसदी हिस्सा खत्म हो चुका है जो जलवायु परिवर्तन तथा पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सहायक हो सकता था – खास तरह की डाल्‍िफन की प्रजातियां व हिल्‍स समेत कई स्‍वादिष्‍ट मछलियां भी सिंधु में मिलती हैं।‍
- हजारों साल पहले सिंधु के पानी के इस्तेमाल के लिए नहर बनाने का सिलसिला शुरू हो गया था। भारत-पाक बंटवारे के बाद 1960 में हुई जल बंटवारा संधि के मुताबिक पाकिस्तान को नि6चित पानी देने के लिए दो बांध बनाए गए। पहला झेलम पर मंगला बांध तथा दूसरा सिंधु पर तरबेला बांध। इस संधि के मुताबिक सतलुज, ब्यास व रावी पर भारत का नियंत्रण माना गया जबकि झेलम, चिनाब व सिंधु पर पाकिस्तान का।
- सिंधु में 147 मछलियों की प्रजातियों के अलावा 25 जलीय जीव मिलते हैं।
- जलवायु परिवर्तन, पानी के बढ़ते इस्तमाल व घटती मात्रा के भारत-पाक के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है; साथ ही हरियाणा, पंजाब व राजस्थान के बीच भी जल बंटवारे को लेकर तनाव की स्थिति बनी रहती है।
विवाद - जम्मू कश्‍मीर में पाक सीमा के पास डोडा जिले में चिनाब नदी पर बनने वाले बगलिहार बांध से भारत-पाक रिश्‍तों में कड़वाहट आ गई है। यह राज्य में बनने वाले 11 बांधों में से एक है, इनमें से 9 चिनाब पर बनने वाले हैं; निश्चित ही इससे न केवल नदी के बहाव पर फर्क पड़ेगा बल्कि उसकी समूची नदी घाटी संरचना प्रभावित होगी।

खतरा: हिमालय के ग्लैशियर पर निर्भरता के कारण सिंधु व इसकी सहायक नदियों पर जलवायु परिवर्तन का गंभीर खतरा मंडरा रहा है। तापमान में बढ़ोतरी के चलते आने वाले वर्षों में कई ऐसे बड़े ग्लेशियर विलुप्त हो जाएंगे जो सिंधु व सहायक नदियों को 70 से 80 फीसदी पानी की आपूर्ति करते हैं। इसके चलते हरियाणा, पंजाब, हिमाचल व पाकिस्तान के बड़े हिस्से में पानी का गंभीर संकट हो जाएगा। - पंजाब, हरियाणा के बेसिन में पानी के अत्यधिक दोहन के चलते पहले ही स्थिति गंभीर हो चुकी है। कई जिलों में पानी की क्षारीयता खतरे के स्तर पर पहुंच चुकी है।


और ये है हाल गंगा मां का :
मध्य हिमालय ने निकलकर नेपाल, भारत, चीन व बांग्लादेश होते हुए 2507 किमी का सफर तय कर बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसका धार्मिक, आर्थिक व सांस्कृतिक महत्व काफी ज्यादा है। माना जाता है कि दुनिया की 8 फीसदी आबादी इसके जलग्रहण क्षेत्र में बसती है।

विशेषताएं - मछलियों की 140 प्रजातियां
- मीठे पानी में पाई जाने वाली डाल्फिन
- 35 सरीसृप तथा 42 स्तनधारी प्रजातियां
- गंगा व ब्रह्मपुत्र का जलग्रहण क्षेत्र संयुक्त तौर पर दुनिया का सबसे बड़ा जैव विविधता वाला क्षेत्र है।
खतरा: - गंगा व उसकी सहायक नदियों का अमूमन 60 फीसदी पानी कृषि संबंधी कामों के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
- बांग्लादेश सीमा से महज 18 किमी दूर बने फरक्का बैराज से गंगा में पानी में मासिक बहाव 2213 घनमीटरसेकंड से घटकर 316 घनमीटरसेकंड हो गया है।
- टिहरी बांध से सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी के अलावा 270 मिलियन गैलन पानी हर दिन पेयजल के रूप में इस्तेमाल होता है।

- अत्यधिक जल दोहन से गंगा में रहने वाली मछलियों क 109 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं।
- नदी जोड़ परियोजना में गंगा के शामिल होने से आने वाले समय में इसका पानी और कम होने की आशंका है।
- हिमालय के ग्लेशियर गंगा के पानी में 30-40 फीसदी का योगदान करते हैं; जलवायु परिवर्तन के चलते इसमें भारी कमी आने का अंदेशा है।

Tuesday, May 27, 2008

पर्यावरण- बचाने और बेचने की चिंता

बीती 22 मई का दिन दुनिया भर में जैव विविधता दिवस के रूप में मनाया गया और आने वाले 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने की परंपरा का भी बखूबी पालन होगा। ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया को वाकई पर्यावरण की बेहद चिंता है और वह भिन्न दिवसों, सेमिनारों, भाषणों, रैलियों आदि-आदि के जरिए अपनी चिंता जताते भी रहती है। लेकिन आज सबसे बड़ी चिंता यह है कि जिन्हें वाकई जल, जंगल, जमीन, जानवर और जीवन की चिंता है उनकी चिंता किसी को नहीं है। और वह है हमारा आदिवासी समाज।
सच यही है कि सदियों से जंगलों के साथ जीवन का रिश्‍ता निभा रहे आदिवासी ही वह एकमात्र कड़ी हैं जो आज भी घटते जंगल और बिगड़ते पर्यावरण को बचाने में हमारी मदद कर सकते हैं। पर इनकी सुनता कोन है। उलटे इन आदिवासियों को जंगल बचाने के नाम पर अपने जीवन से बेदखल करने के प्रयास दुनिया भर में जारी हैं। आइए देखते हैं कैसा है जंगलों से आदिवासियों का रिश्‍ता।
आदिवासी तमाम नारों, देशी-विदेशी अनुदानों या सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं, आंदोलनों में शामिल हुए बगैर जंगल बचाना चाहते हैं, ताकि उनका अपना अस्तित्व बचा रह सके। ये उनके लिए प्रोजेक्ट नहीं जीवन का प्रश्‍न है। अगर जंगलों का प्रयोग करने के आदिवासियों के कुछ नियम व तरीके देखे जाएं तो हमें पता चलेगा कि वे कितने टिकाऊ और महत्वपूर्ण हैं। आइए देखते हैं मध्यप्रदेश्‍ा के मंडला और डिंडौरी के प्रागैतिहासिक बैगा आदिवासी जंगल से जड़ी-बूटी निकालने के क्या तरीके अपनाते हैं। बैगा प्रसव के दौरान कल्ले (एक पेड़) की छाल का उपयोग करते हैं। छाल निकालने से पहले वे वृक्ष को दाल, चावल का न्यौता देते हैं, फिर धूप से उसकी पूजा करते हैं, मंत्रोच्चार करते हैं, फिर कुल्हाड़ी के एक वार से जितनी छाल निकल जाए महज उतनी का ही इस्तेमाल वे दवा के रूप में करते हैं। बैगाओं के मानना है कि अगर वे इस नियम को न लागू करें तो कल्ले का पेड़ तो बचेगा ही नहीं। इसी तरह पेट दर्द, उल्टी दस्त व आंव के लिए महुआ तथा पंडरजोरी की छाल का इस्तेमाल होता है, इस बार नियम तीन बार कुल्हाड़ी मारने पर निकली छाल के उपयोग करने का होता है।
इसी तरह आधे सिर का दर्द होने पर तिनसा झाड़ की छाल का उपयोग किया जाता है। इसकी छाल एक विश्‍ोष विधि से सूर्योदय व नित्यकर्म आदि से भी पहले निकाली जाती है। इसके लिए पेड़ से एक निश्‍चित दूरी बनाकर सांस रोककर एक पत्थर उठाया जाता है फिर पेड़ के तीन चक्कर लगाकर पत्थर से पेड़ को तीन बार ठोंकते हैं, इसके बाद कुल्हाड़ी के एक वार से जितनी छाल निकल जाए, उसे लेकर पत्थर को वापस अपनी जगह पर रखना होता है, ध्यान यह रखना है कि इस समूची प्रक्रिया के दौरान सांस नहीं टूटनी चाहिए। इससे देखा जा सकता है कि चाहकर भी आदिवासी पेड़ों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। उलटे अपनी सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक जरूरतों के लिए जंगल बचानके अलावा उसके लिए कोई और विकल्प बचता ही नहीं है। एक उदाहरण देखते हैं झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांड प्रखंड के एक टोले खपुरतला का जो औराटोली गांव में आता है। इस टोले की अगुवाई में समूचे गांव ने करीब 200 एकड़ का जंगल बचाया है जिसमें साल के साथ आम, चिरौंजी, पिठवाइर, जामुन, घुंई, कनवद जैसे पेड़ों के अलावा कई तरह की झाड़ियां तथा जड़ी-बूटियां भी हैं। यह कवायद बिना किसी वानिकी परियोजना या संस्था की मदद के की गई है। एक आदिवासी विलयम टोप्पो ने, जो जंगल विभाग में नौकरी न मिलने पर वापस घर आ गया अपने घर के पास दो एकड़ जंगल बचाकर इसकी शुरुआत की और फिर पूरे गांव में यह प्रक्रिया इस तरह अंजाम चढ़ी कि आज वह 200 एकड़ के घने जंगल का मालिक है। इसके लिए समूचे इलाके में कुल्हाड़ी बंदी की घोषणा, शादी मंडप के लिए कम लकड़ी का इस्तेमाल, और जंगल काटने वाले की सूचना देने पर पुरस्कार की घोषणा जैसी गतिविधियों ने इन्हें सफलता दिलाई।
ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें आदिवासियों, ग्रामीणों या संस्थाओं के प्रयासों से जंगल बचाने, बढ़ाने के सफल प्रयास किए गए हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर चल रहे राष्‍ट्रीय, अंतर्राष्‍ट्रीय परियोजनाओं से समाज को पूरी तरह काट दिया गया है, खासकर आदिवासी समाज को। विश्‍व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार भारत में प्रतिर्वष 4 हजार वर्ग किमी की दर से जंगल घट रहे हैं, यानी भारत में वास्तविक वन अब महज 12 प्रतिश्‍ात ही रह गये हैं। दूसरी ओर मध्यप्रदेश्‍ा, झारखंड, उड़ीसा यानी वे क्षेत्र जहां आदिवासी और जंगलों की बहुतायत है में जंगलों को बचाने के नाम पर आदिवासियों को गोलियों का श्‍ािकार बनाया गया है। देवास, मध्यप्रदेश्‍ा में पांच आदिवासी गांवों के 50 घर जलाकर खाक कर दिए गए और श्‍ आदिवासी पुलिस की गोलियों से मौत के शिकार बन गए। झारखंड में जंगलों में बांधों और खदानों का विरोध कर रहे दर्जनों आदिवासियों को गोली मारी जा चुकी है इसी तरह उड़ीसा में भी आदिवासियों को जंगल काटकर बाक्साइट खदान लगाने का विरोध करने पर गोलियों दागी गई हैं। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनसे साफ पता चलता है कि सरकार की असली मंशा जंगल बचाना नहीं जंगल बेचना है। ऐसे में आदिवासी के अलावा जंगल बचाने की जिम्मेदारी कोई और निभा पाएगा यह सोचना मुश्‍किल है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि आदिवासियों का पारंपरिक ज्ञान, वनाधारित जीवन श्‍ौली, वन संरक्षण की उनकी टिकाऊ सोच और दृष्‍िटकोण की अनदेखी कर वन्यप्राणी, जैव विविधता के नाम पर विदेशी सोच आधुनिक कह कर हम पर लादी जा रही है। अगर वास्तव में आने वाली पीढ़ी के लिए हमें जंगल की विरासत देनी है तो जंगल को महज लाभ के लिए नहीं, जीवन के लिए बचाने की सोच विकसित करनी होगी। दरअसल, जंगल और बाजार दो छोर हैं जिन्हें कभी आपस में नहीं मिलने देना चाहिए।

Sunday, May 25, 2008

अब हवा में भी नहीं रहने देंगे पानी

इस पर्यावरण दिवस की सबसे बड़ी खबर यही होनी चाहिए कि अब पानी के लिए बादलों या नगरनिगम के टैंकर अथवा नलों की राह नहीं ताकनी होगी। बाजार ने पानी को पैसों वालों के अंगूठे के नीचे दबाकर रखने की जुगत निकाल ली है। अमेरिका की एयर वाटर कारपोरेशन एटमोस फ्रिक वाटर टेक्नालाजी सिंक कंपनी ने ऐसी मशीन बाजार में उतार दी है जो हवा से नमी सोखकर पानी बनाती है। आप जितना खर्च करने को तैयार होंगे उतना ही पानी इस्तेमाल कर पाएंगे। सवा लाख की मशीन से रोजाना हजार लीटर पीने लायक पानी बनाया जा सकता है। लेकिन कंपनी मध्यम वर्ग को भी इस अनूठे लाभ से वंचित नहीं रखना चाहती, इसलिए उसने 35 हजार कीमत वाली मशीन भी बाजार में उतारने की तैयारी पूरी कर ली है जो रोजाना 250 लीटर पानी बनाएगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि गरीबी रेखा के आसपास रहने वालों के लिए और सस्ती मशीन आएगी क्योंकि सरकारी गति से उन्हें साफ पानी मुहैया कराना इस मशीन से तो सस्ता नहीं ही होगा। वैसे भी सरकार बाजार की जिस कदर वकालत कर रही है उसे देखते हुए इसकी उम्मीद ज्यादा है कि सामान्य लोगों को साफ पेयजल मुहैया कराने की जगह सरकार इस मशीन की कीमत पर सब्सिडी या बैंक से कम ब्याज वाले कर्ज की योजना लागू कर दे।
यह मशीन 55 प्रतिशत से अधिक नमी वाले इलाकों में 19 डिग्री तापमान पर भरपूर पानी बना सकती है। जाहिर है कि लगभग समूचा भारत इस कंपनी के लिए आसान बाजार है। फिलहाल इस मशीन का इस्तेमाल जम्मू और श्रीनगर में फौज कर रही है क्योंकि कई दुर्गम इलाकों में साफ पेजयल मुहैया होना मुश्‍किल है। देश के बाकी हिस्सों में जल्द ही यह मशीन अपना मौजूदगी का अहसास कराएगी इसमें ज्यादा शक-शुबहे की गुंजायश नहीं होनी चाहिए क्योंकि सरकारी मशीनरी आने वाले बरसों में देश की बड़ी आबादी को साफ पेजयल मुहैया करा पाएगी इसमें जरूर शक है। अगर वर्ल्ड बैंक के ही आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि देश में होनेवाली करीब 21 फीसद बीमारियां साफ पेयजल के अभाव की वजह से होती हैं। हालत यह है कि डायरिया जैसी बीमारी की वजह से रोजाना 1600 मौतें होती हैं। ये संख्या उतनी ही है अगर 200 की सवारी वाले आठ हवाई जहाज रोजाना धरती पर जा गिरें। ऐसे में लोग बीमारियों पर पैसे खर्च करने की जगह यह मशीन खरीद लें तो उन्हें समझदार उपभोक्ता ही मानना चाहिए।
लेकिन अभी कई ऐसे सवाल हैं जिनपर इस मशीन के निर्माताओं और देश में इन्हें बेचनेवालों से जवाब मांगा जाना चाहिए। मसलन अभी तक हमारे देश में जमीन के उपर और जमीन के नीचे के पानी के अलावा पानी के अन्य उपयोग पर नियंत्रण रखने संबंधी कोई कानून नहीं है। याद रखने वाली बात है कि ये मशीनें ना तो किसी कुंए, तालाब या नदी से पानी खींचेंगी ना ही गहरे टयूबवेल खोंदेंगी जिनपर मौजूदा सरकारी कानूनों के जरिए रोक लगाई जा सके या नियंत्रण किया जा सके। ये मशीनें हवा से नमी सोखकर पानी बनाएंगी जिसपर नियंत्रण करने या उसे मापने का कोई पैमाना अभी तक नहीं है। देश में जल संकट की स्थिति गंभीर है। ऐसे में अमेरिका से आयातित पानी बनाने वाली मशीनें जल संकट के निदान में मदद करेंगी या जल संकट को नया आयाम देंगी यह जरूर चिंतनीय विषय है।
सच यही है कि आने वाले सालों में देश में पानी का संकट भयावह होने जा रहा है। भारत में चेरापूंजी के 11000 मिमी से जैसलमेर के 200 मिमी की बारिश के बीच देश की औसत सालाना बारिश 1170 मिमी है। इस नजरिए से दुनिया के सर्वाधिक जलसंपदा वाले देशों में से एक हमारे देश के कई राज्य रेगिस्तान बन चुके हैं और कई बनने की कगार पर हैं। 1955 में प्रति व्यक्ति 5277 घन मीटर पानी की उपलब्धता 2001 में गिरकर 1820 घन मीटर तक पहुंच चुकी है। आशंका है कि 2025 तक यह 1000 घन मीटर तक घटेगी। अनुमान है कि सन 2050 में भारत की आबादी के 1450 अरब लोगों में से करीब 8 अरब लोग शहरों में होंगे और यह शहरों की मौजूदा आबादी पर जबदस्त बोझ होगा। उस वक्त ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रति दिन 40 लीटर तक घट जाएगी, शहर अपनी आबादी की जलापूर्ति कैसे करेंगे यह विचारणीय प्र6न है। खासकर यह देखते हुए कि देश की राजधानी दिल्ली तक को वर्तमान आबादी की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए दूसरे राज्यों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ रहा है। तमिलनाडु और कनार्टक के बीच पानी के बंटवारे को लेकर लड़ाई जारी है, राजस्थान में बीसलपुर बांध के पानी को कई छोटे कस्बों की उपेक्षा कर जयपुर पहुंचाना हिंसक रूप ले चुका है। देश के कई बड़े शहर मसलन बंगलूर, चेन्नई को कम से कम 200 किमी दूर से पेयजल मंगाना पड़ रहा है। सरकार ने इसका एक समाधान पानी के लिए ज्यादा पैसे वसूलने में ढूंढा है। फिलहाल सरकार पानी पर दी जा रही सब्सिडी के तौर पर सालाना करीब 50 अरब रुपयों का नुकसान उठाने का दावा कर रही है। सरकार का तर्क यह है कि कम कीमत में पानी मुहैया कराने पर उसकी बरबादी ज्यादा होती है। शहरों में यह बरबादी कुल पानी के 30 फीसद के बराबर आंकी गई है।
अगर हम पानी के इस्तेमाल की देश में पानी की मौजूदगी से तुलना करें तो हैरत में पड़ जाएंगे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2010 तक हम करीब 230 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल का इस्तेमाल कर चुके होंगे, लेकिन ताजा आंकड़े बताते हैं हम अब तक 250 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल कर चुके हैं। जाहिर है कि हम पानी का बैंक इतनी तेज गति से खाली कर रहे हैं कि उसे भरने की तमाम सरकारी, गैर सरकारी कोशिशें नाकाम साबित होंगी। इस संदर्भ में राष्‍ट्रीय सैंपल सर्वे संस्थान के उस सर्वेक्षण का हवाला उपयोगी है जिसमें कहा गया है कि 82 फीसद गांवों में घरेलू उपयोग के लिए भूजल इस्तेमाल होता है। इस पर रोक लगाने के दूरगामी असर होंगे। हाल में राजस्थान, महाराष्‍ट्र, ओड़ीसा तथा हिमाचल प्रदेश में ग्रामीणों को भूजल का इस्तेमाल न करने के कानून बन चुके हैं। हाल में अंतरराष्‍ट्रीय जल प्रबंधन इंस्ट्टियूट द्वारा किए इंदौर, नागपुर, बंगलूर, जयपुर, अहमदाबाद तथा चेन्नई शहरों के सर्वेक्षण से पता चला है कि इनमें शहर की नागरिक व निगम की जल जरूरतों की 72 से 99 फीसद पूर्ति भूजल से ही होती है। इन शहरों में टैंकर से पानी आपूर्ति करने पर होने वाली सालाना आमदनी करीब 100 करोड़ रुपयों की है। संभवत: ऐसे ही आंकड़े देखकर अमेरिकी कंपनी ने हवा से पानी बनाने वाली मशीन के बारे में सोचा हो।
यूं भी ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल मुहैया कराने के सरकारी आंकड़ों में काफी गफलत है। पेयजल आपूर्ति विभाग एक तरफ तो यह कहता है कि 2004 तक देश के 94 फीसदी ग्रामीण इलाकों में पेयजल आपूर्ति सुचारू ढंग से हो रही है, वहीं दसवीं पंचव8र्ाीय योजना में वे अपना बजट वर्तमान 167 बिलियन से बढ़ाकर 404 बिलियन करने की मांग कर रहे हैं। सोचने वाली बात है कि महज 6 फीसदी ग्रामीण इलाकों को पेयजल देने के लिए 404 बिलियन रुपयों की आखिर क्या जरूरत है। इसी तरह शहरी आबादी के लिए 95 फीसद को पेयजल आपूर्ति करने के दावे के बाद 10वीं पंचवर्षीय योजना में 282 बिलियन रुपयों की मांग कई सवाल खड़े करती है। यूं भी वर्ष 2015 तक देश की 334 क़रोड़ लोग साफ पेयजल से वंचित रहेंगे। इनमें 244 क़रोड़ ग्रामीण आबादी होगी जबकि 9 करोड़ शहरियों को साफ पेयजल नहीं मिल पाएगा। अभी का हाल यह है कि दिल्ली की 13 फीसदी आबादी को रोजाना पानी की आपूर्ति नहीं हो पाती, जबकि मध्यप्रदेश के 40 फीसद घरो को रोजाना 40 लीटर साफ पानी भी नहीं मिल पाता। जाहिर है कि इन हालात में पानी बनाने वाली मशीन को देश की आबादी हाथों हाथ लेगी और कंपनी को अरबों-खरबों का मुनाफा देगी। लेकिन सवाल यह है कि जब जमीन के अंदर से पानी खत्म होने का खतरा इस कदर बढ़ गया है कि उसपर रोक लगाने की तमाम कवायदें जारी है, ऐसे में हवा में मौजूद नमी को निजी कंपनियों के हवाले करने के दूरगामी नतीजे क्या होंगे। क्या देश में बड़े पैमाने पर इस मशीन के इस्तेमाल से पर्यावरण में मौजूद नमी के खत्म होने की आंशका नहीं पैदा होगी, कहीं इसका नतीजा बारिश के घटने के रूप में तो देखने को नहीं मिलेगा। ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब मिले बिना ऐसी मशीनों के खुलेआम इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन भारत सरकार की जल नीति में जल प्रबंधन व आपूर्ति के लिए निजी क्षेत्र को जिस तरह बढ़ावा दिया जा रहा है उसे देखते हुए ऐसी किसी पाबंदी की उम्मीद कम ही की जानी चाहिए।

Saturday, May 24, 2008

विकास पत्रकारिता बनाम समाज

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संचार के साधनों में तेजी से हुई प्रगति के बावजूद आज हमें विकास संचार की संभावनाओं और जरूरतों पर बात करनी पड़ रही है। बीते कई दशाकों में जिस तेजी से संचार के साधनों में तकनीकी तरक्की हुई है उसी गति से संचार माध्यमों और मानवीय पहलुओं के जनपक्षीय सूचनाओं के बीच का अंतराल भी बढ़ा है।
दुखद है पर आज सच्चाई यही है कि हमारे संचार माध्यम सामाजिक सरोकारों और जन समस्याओं को लेकर खुद की भूमिका पर सबसे कम सवाल उठाते हैं, यानी दूसरों की खबरें लेने वाले खुद की खबर नहीं लेते। यह हालत तब है जब ये माध्यम सूचनाओं को हासिल करने और समाज तक पहुंचाने में तकनीकी और संचार क्रांति की वजह से सबसे प्रभावी स्थिति में हैं। खासकर आर्थिक सुविधाओं की दृष्‍िट से काफी अच्छी स्थिति में होनके बावजूद संचार माध्यमों पर संवेदनशील होने और जन भावनाओं को महसूस करने के संदर्भ में निष्‍पंद या बेजान होने के आरोपों की आवृत्ति बढ़ती जा रही है। मुख्यधारा के अखबारों में जो कुछ दिखाया, बताया जा रहा है और देशा में आमतौर पर, खासतौर पर आदिवासी क्षेत्रों में जो कुछ हो रहा है या महसूस किया जा रहा है उसके बीच का अंतर दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
आज सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है, सत्ता पंचायतों तक जा पहुंची है, लेकिन देश में लोकतंत्र कमजोर हुआ है। हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का जनहित में सक्रिय होना बेहद जरूरी है। दुर्भाग्य की बात है कि आज विधायिका और कार्यपालिका तमाम तरह की बुराईयों की शिकार बन चुकी है, अपराध, पक्षपात, आर्थिक घोटालों और तमाम तरह के आरोपों ने विधायिका और कार्यपालिका को घेर रखा है। दुख तो इस बात का है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए जिम्मेदार चौथे स्तंभ मीडिया ने भी अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभाई है। वह विधायिका और कार्यपालिका के आसपास ही घूमता नजर आ रहा है। आज मुख्यधारा मीडिया की तमाम खबरें विधायिका, कार्यपालिका के साथ समाज की नाकामियों, अपराधों, नेताओं के बयानों और दु8प्रचारों से भरी रहती हैं। इनमें समाज की सफलताएं, समाज को नई दिशा दिखाने की कोशिश या सच कहें तो सकारात्मक सोच का सर्वथा अभाव साफ दिखाई पड़ता है। अगर हम आने वाले भारत के लिए एक ऐसा सपना देख रहे हैं जिसमें सभी को सामाजिक न्याय मिले, समाज में समानता हो, भाईचारा हो, आपसी विश्‍वास हो, संसाधनों का समान बंटवारा हो तो हमें समाज को उस दिशा में ले जाने की कोशिश करनी होगी। हमें समाज को तोड़ने वाले बयान छापते रहने के बजाय समाज जोड़ने वाली छोटी-छोटी कोशिशों को बढ़ावा देने वाले प्रयास छापने होंगे। अगर मीडिया अब भी अपने स्वरूप, भूमिका और जिम्मेदारी को समझ नहीं सकेगा तो आने वाले समय में उसे समाज को जवाब देना होगा।
हमें यह याद रखना चाहिए कि जब हम कम्यूनिकेशन की बात करते है तो हमें यह याद रखना चाहिए कि कम्यूनिकेशन का अर्थ केवल सूचनाओं का हस्तान्तरण या ट्रांस्फर करने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसमें उस समाज या समुदाय की भागीदारी भी शामिल है जिसके बारे में कम्यूनिकेट किया जाता है। किसी भी समाज में सामाजिक व्यवस्थाएं केवल तभी अस्तित्व में आ सकती हैं और कायम रह सकती हैं जब उनमें भागीदारी करते लोग कम्यूनिकेशन के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हुए हों। कम्यूनिकेशन की इसी जरूरत के कारण मनु8य को 'होमो कम्युनिकेटर' या 'संवादी मनुष्‍य' कहा जाता है, क्योंकि वह जो है (और जो हो सकता है) वह कम्यूनिकेट कर सकने की क्षमताओं के कारण हुआ है (और होगा)। जाहिर है कि कम्यूनिकेशन ही संस्कृति है और संस्कृति ही कम्यूनिकेशन।
लेकिन आज नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, कम्यूनिकेशन के नए-नए माध्यम सामने आ रहे हैं, और इसके असर से जो परिवर्तन हुआ है उसकी प्रक्रिया में मॉस कम्यूनिकेशन और तथा (व्यक्ति संप्रेषाण) इंडिविज्युअल कम्यूनिकेशके बीच की सीमाएं धुंधलाती जा रही हैं या कम होती जा रही हैं। जाहिर है कि दूर-दूर बिखरे समूहों में एक जैसी सामग्री का जन-संचार ज्यादा समय तक कम्यूनिकेशन का मुख्य स्वरूप नहीं रहेगा। इसी का एक नतीजा आज हमें अखबारों के तेजी से बढ़ते स्थानीय संस्करणों के रूप में दिखता है। उम्मीद यह है कि धीरे-धीरे आने वाले दिनों में मांग पर कम्यूनिकेशन यानी कम्यूनिकेशन आन डिमांड महत्वपूर्ण होता जाएगा।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि वर्तमान में सूचना-समाज (इंफार्मेशन सोसायटी) काफी तेजी से अस्तित्व में आ रहा है। ऐसे में मास कम्यूनिकेशन और अर्न्त-वैयक्तिक संप्रेषण (इंटरपर्सनल कम्यूनिकेशन) में विश्‍लेषण के आधार पर कोई सटीक विभाजन करना संभव नहीं होगा। ऐसा केवल तभी संभव हो सकता है जब हम मास कम्यूनिकेशन प्रोसेस (जन-संप्रेषण प्रक्रिया) को केवल सामग्री प्रसारण तक सीमित कर दें और उसके ग्रहणकर्ताओं (रिसेप्टर) को नजरअंदाज करें। लेकिन विकासशील देशों में, खासकर भारत में इंटरपर्सनल कम्यूनिकेशन के अलावा मास कम्यूनिकेशन का भी एक निर्णायक महत्व है। यह बात केवल स्वास्थ्य मुहिमें चलाने (एचआईवी एड्स) और नए आविष्‍कारों के प्रसार के बारे में ही नहीं, बल्कि राज्य के सभी नागरिकों से संबंधित विषयों के कम्यूनिकेशन के बारे में भी सच है। हमें यह सच्चाई स्वीकार करनी ही होगी कि लोकतंत्र, सामाजिक तथा आर्थिक न्याय, रा8ट्रीय एकीकरण, सामाजिक अनुशासन तथा आर्थिक प्रगति की विशेषताओं से संपन्न एक आधुनिक समाज का विकास जन माध्यमों को अपनाए बगैर संभव नहीं है। क्योंकि भारत जैसे विशाल ग्रामीण क्षेत्रों वाले समाज में केवल जन-माध्यम ही ग्रामवासियों तक सूचनाएं कम्यूनिकेट कर सकता है। एक कम्यूनिकेशन व्यवस्था ही इस बात को संभव कर पाती है कि ग्रामीण क्षेत्र की आबादियां स्वयं को निरंतर सूचना संपन्न बनाए रख सकें और अपनी राय जाहिर कर सकें। इसी से रा8ट्रीय अस्मिताएं निर्मित होती हैं तथा एक समाज सांस्कृतिक रूप से ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में विभाजित होने से बच सकता है।
यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है कि आधुनिकीकरण तथा विकास में तकनीकी प्रगति के अलावा लोकतंत्र की सफलता भी समाहित है, क्योंकि एक सफल लोकतंत्र में अधिकांशत: विरासत के आधार पर मिले पुराने सामाजिक ढांचे टूट जाते हैं। हमारे यहां राजे-महाराजे और सामंतों का युग अभी बहुत दूर नहीं गया है। लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण बात होती है - समाज के उन तबकों की राजनीतिक भागीदारी जो अब तक उससे बहि8कृत रखे गए थे, वंचित रखे गए थे। जाहिर है कि विकास का अर्थ अधिक मानवीय गरिमा, सुरक्षा, न्याय और समानता भी है। अगर हम अपनी विकास नीतियों को सफल मानते हैं तो इसका अर्थ यह होना चाहिए कि हमने समाज में मौजूद ठोस असमानताओं का उन्मूलन कर दिया, उनका खात्मा कर दिया। यानी सामाजिक समानता और न्याय। यहां समानता से मेरा अर्थ गरीबी की समानता नहीं, बल्कि सबसे बढ़कर अवसर की समानता है। हम जन-माध्यमों की सहायता से इस महत्वपूर्ण धारणा का व्यापक प्रसार कर सकते हैं कि समानता का अर्थ अवसर की समानता है। हमें इस बात को याद रखना होगा कि बुनियादी सामाजिक परिवर्तनों के दौर में जन माध्यमों का सबसे ज्यादा असर होता है। परिवर्तनों के ऐसे दौर में समाज के पारंपरिक मूल्य तथा संरचनाएं संक्रमण की हालत में होती हैं, और उनमें जन माध्यम बदलाव का रुख तय करने और नए विचार (समाज में सह-अस्तित्व के भावी लोकतांत्रिक स्वरूपों के बारे में) कम्यूनिकेट (संप्रेषित) करने में मददगार हो सकते हैं लेकिन इसकी शर्त यह है कि जन माध्यमों को अपनी विश्‍वसनीयता बनानी और कायम रखनी होगी।
जब हम जन माध्यमों की बात कर रहे हैं तो हमें ध्यान रखना होगा कि जन माध्यमों पर राज्य का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। जन माध्यमों पर कुछ शक्तिशाली लोगों या कंपनियों के नियंत्रण को भी लोकतंत्र के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है। जैसा कि आज हमारी राजधानी के कई अखबारों के साथ देखा जा रहा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ यह भी नहीं होना चाहिए कि अपने मतों का प्रसार करने का अवसर केवल कुछ शक्तिशाली लोगों या संगठनों तक सीमित होकर रह जाए। दरअसल प्रेस को सूचना प्रदान करने व जनमत तैयार करने के अलावा सरकार की आलोचना भी करनी चाहिए और सरकार पर अकुंश लगाए रखना चाहिए। अगर हम सूचना प्रवाह (इंफार्मेशन फ्लो) को नियंत्रित करते हैं तो समाज में अलोकतांत्रिक ढांचे बरकरार रहेंगे। यानी ऐसे ढांचे जिनमें मनु8य की गरिमा का सम्मान नहीं किया जाता और आबादी के साधनहीन तबकों को बेहतर जीवन की संभावनाओं का ज्ञान हासिल करने के अवसरों से वंचित रखा जाता है। सूचना का प्रवाह कम करने से एक और भी खतरा पैदा होता है। इसके लिए ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी पडेंग़ी जो तय करें कि कौन सी सूचनाएं 'घटायी' जाएं। और किन सूचनाओं का स्वरूप बदला जाए। सेंसरशिप को इसी का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।
आज की जरूरत यह है कि समाज के वंचित लोगों को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि वे तमाम तरह की सुविधाओं और संसाधनों से वंचित हैं और यह स्थिति अन्यायपूर्ण है; लेकिन उन्हें यह जानकारी भी होनी चाहिए कि इस हालत को समाप्त किया जा सकता है, ताकि वे अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए जरूरी उपाय करें। समाज को इस तरह की जानकारी देने के लिए कम्यूनिकेशन के जिस स्वरूप को आर्दश माना जाता है वह है विकास पत्रकारिता। एक आर्दश स्थिति में विकास पत्रकारिता को किसी राज्य की मैनेजमेंट को खतरे में डाले बगैर और शासन के अन्यायपूर्ण ढांचों को वैधता देने की कोशिशों में शामिल हुए बगैर जनता की जरूरतों के प्रति ध्यान देना चाहिए। विकास पत्रकारिता की इस धारणा का सर्वाधिक मुख्य बिंदु यह मूल्यवान मान्यता है कि प्रभावित लोगों को निर्णय करने, योजनाएं बनाने तथा विकास परियोजनाओं का क्रियान्वन करने की प्रक्रियाओं में अनिवार्य रूपसक्रिय भागीदार बनाया जाना चाहिए। इस उद्दे6य में सूचना के प्रसार के अलावा दो और महत्वपूर्ण कामों पर बल दिया जाता है: पहला है प्रभावितों या संबंधित लोगों को सक्रिय सहयोग के लिए उत्प्रेरित करना तथा और दूसरा है योजना-निर्माताओं यानि सरकार के मुकाबले उनके हितों की सक्रिय पैरवी करना।
यह बात भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में जनमुद़दों से जुड़े लोगों का संचार माध्‍यमों के प्रति रुझान बढ़ा है। ऐसा इसलिए हुआ है कि संचार माध्‍यमों ने आम भारतीय समाज में हो रही घटनाओं, प्रक्रियाओं और जमीनी स्‍तर पर काम कर रहे जनांदोलनों से जुड़े मुददों को सार्थक और विश्‍वसनीय ढंग से उठा पाने में नाकामी दिखाई है। यही कारण है कि जनांदोलनों और जन संगठनों के कार्यकर्ताओं ने संचार माध्‍यमों को अपने दायरे में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। एक समय था जब आंदोलन करने वाले आंदोलन करते थे और खबरें लिखने वाले वहां पहुंचकर खबरें लिखते थे, आज दुर्भाग्‍य से समय यह आ गया है कि आंदोलन करने वालों को आंदोलन के साथ-साथ खबरें भी लिखनी और अखबारों के कार्यालयों में पहुंचानी पड़ती हैं। खबरों की दुनिया के जादूगरों को आम आदमी के हितों को जानने- समझने के लिए अपने काम जमीन पर लगाने की कवायद नहीं करनी पड़ती। लेकिन इसका नुकसान यह हो रहा है कि जो लोग मीडिया का इस्‍तेमाल करना नहीं जानते उनके मुद़दे बेहद सीमित इलाके मे बंधे रह जाते हैं। उनकी सफलताएं, समस्‍याएं देश के बाकी हिस्‍से तक नहीं पहुंच पातीं। हमारा आराम तलब मीडिया छत्‍तीसगढ़, उड़ीसा, उत्‍तरप्रदेश और मध्‍यप्रदेश के ठेठ आदिवासी क्षेत्रों में राहुल गांधी के साथ जाता है और उन्‍हीं के साथ वापस भी आ जाता है। यह बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि आज पत्रकारिता महज वि‍ज्ञप्ति पत्रकारिता तक संकुचित होकर रह गई है।
हमें इससे बाहर निकलने का रास्‍ता ढूंढना ही होगा। मीडिया की केंद्रीय सत्ता का विकेंद्रीकरण बेहद जरूरी है। आज सत्ता के विकेंद्रीकरण की खूब बातें होती हैं, पंचायत तक सत्ता को बिखेर दिया गया है, लेकिन इस सत्ता पर अंकुश लगाने वाले, वॉच डाग का काम करने वाले मीडिया का केंद्रीकरण हुआ है। आखिर मीडिया को क्यों नहीं विकेंद्रित किया गया। अगर गांव की एक अनपढ़ आदिवासी सरपंच को पूरे गांव की हुकूमत दी जा सकती है तो वहीं के एक पढ़े-लिखे युवक या युवती को मीडिया का प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता। कारण साफ है। सूचना में बड़ी ताकत है। केंद्र से पंचायत तक सत्ता मीडिया को अपने साथ रखना चाहती है, जो लोग मीडिया से जुड़े हैं वे सत्ता को अपने साथ रखना चाहते हैं और इस गठजोड़ में मारी जाती है बेचारी जनता।
यह सच है कि आज मीडिया में सूचनाएं बढ़ी हैं लेकिन खबरें घटी हैं। अखबारों के पन्ने बढ़ें हैं, रंगीन हुए हैं पर आम लोगों की तस्वीर नदारद होती जा रही है। अखबारों की खबरें घटनाप्रधान हो गई हैं, रोज ब रोज हम भ्रष्‍टाचार, अपराध, घोटाले की खबरें विस्तार के साथ पढ़ते हैं, लेकिन इस प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार कारकों या कारणों का विश्‍लेषण करने की जिम्मेदारी मीडिया नहीं निभा रहा है। वह प्रक्रिया पर ध्यानहीं दे रहा। मीडिया ने अपने खर्चे बढ़ा लिए हैं, उसे पूरा करने के लिए वह विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर हो गया है, जाहिर है विज्ञापनों की बढ़ोतरी का सीधा असर खबरों की कटौती से जुड़ा है।
पिछले दिनों देश के सात राज्यों में हुए एक मीडिया सर्वेक्षण में योजना आयोग द्वारा घोषित 100 सर्वाधिक गरीब जिलों के नजरिए से यह देखने की कोशिश की गई कि जनमुद्दों खासकर गरीबी और विकास के संदर्भ में मीडिया की भूमिका क्या, कैसी और कितनी रही है। इसके नतीजे बेहद निराशाजनक रहे हैं। मोटे तौर पर यह जानकारी हासिल हुई है कि खबरों का पांच फीसदी हिस्सा ही गरीबी या विकास संबंधी सूचनाओं को मिलता है, वह भी नियमित तौर पर नहीं। इसमें एक जानकारी यह निकल कर आई कि विकास या गरीबी दूर करने के प्रयासों में लगे लोग लगभग नगण्य मामलों में ऐसे मुद्दों से जुड़ी खबरों के स्रोत के रूप में सामने आए। ऐसी ज्यादातर खबरों के लिए सरकारी स्रोत जिम्मेदार रहे। जाहिर है कि समाज की ओर से व्यवस्थित पहल नहीं हो रही है।
ऐसे में यह पहल जरूरी है कि लोगों में अपनी नियति के प्रति निष्क्रिय और स्वीकारवादी नजरिए को समाप्त करने की कोशिश की जाए। हमें याद रखना होगा कि यह नजरिया गरीबी से गहरा संबंध रखता है। निरंकुशतावाद को बढ़ावा देने वाला यह निष्‍िक्रय नजरिया इस दृष्‍िटकोण में दिखता है कि हम घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते और हमारा जीवन ईश्‍वर के हाथों में हैं। हमारे देश की ज्यादातर समस्याएं समाज की इसी मानसिकता का परिणाम है।
और अंत में समाज के वंचितों, गरीबों की बात। अगर हम उनके नजरिए से देखें तो इस निष्क्रिय, स्वीकारवादी नजरिए को समाप्त करने के संदर्भ में हमें उनकी भूमिका का विशेष उल्लेख करना होगा। अनेक समाजों में उन्हें अभी भी एक दूसरे दर्जे का मनुष्‍य मान उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। ऐसे में वे पत्रकार जो विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं या होना चाहते हैं, उनके लिए दोहरी चुनौती और अवसर हैंउन्हें खुद वर्तमान स्थिति से जूझते हुए वंचितों, गरीबों की सही हालत को जानना, समझना और बेहद प्रभावी ढंग से उस पर लिखना होगा साथ ही उनके लिए बेहतर अवसरों की तलाश कर जरूरतमंद अन्य गरीबों तक ऐसी जानकारियां पहुंचानी होंगी।

अमन नम्र

Thursday, April 24, 2008

Development Journalism vs. ‘Envelopment’ Journalism

Development Journalism vs. ‘Envelopment’ Journalism
It is some what ironical and unfortunate to talk about the need and the possibilities of development communication in an era that is being characterized as the era of communication revolution. And we are precisely doing that. During last several decades means of communication have really been revolutionized and the process still continues, but at the same time the gap between communication media and human aspects of information that relates to common people has also widened in a similar proportion.
It might pain us but the truth is that our communication media have never assumed the crucial responsibility of defining, reviewing and its role with regard to social concerns and people’s problems. It simply means that those who claim to assess and examine everyone and everything are oblivious to assessing and examining their own selves. And this is happening at a juncture when these media are in an extremely capable position for collecting and disseminating information in the society owing to technological and communication revolution. Despite their vast economic resources, the frequency of allegations on them of being insensitive to people’s feelings and needs are increasing considerably. The chasm between what is being told by the mainstream newspapers and what is being felt by people across the country, particularly by indigenous populations is increasingly widening everyday.
Power has been decentralized and has even reached to the Panchayats and yet democracy has weakened in the country. It is common knowledge that for a strong democracy, we must have a legislature, an executive and a judiciary that is sensitive and committed to the people. Unfortunately, our legislative bodies and executive have become rampantly corrupt and decayed. The legislature and the executive are in the grip of crime, nepotism, financial scams and there all kinds of allegations against them. Unfortunately, the Fourth Estate responsible for strengthening democracy has also not played its role adequately. Its main focus is on the legislature and the executive. Most of the space in the mainstream media is occupied by news related to the legislature, the executive, social failures, crimes, statements of political leaders and maligning propaganda. Media has no positive thinking and makes no efforts to give the society a new direction. Nor does it underline the successes of the society. If we cherish the dream of an India where there is social justice for all, there is amity and mutual trust among people, there is equal distribution of resources; we need to take the society in to a particular direction. Then, in place of statements that divide people, we’ll have to publish and highlight things that create sense of unity among them. We’ll have to identify and publish about efforts that promote small initiatives of the people. If media doesn’t define and perform its role and social responsibility, it’ll have to face people’s questions and ire in the future. It’ll loose its credibility as the Fourth Estate, the vigilant eye of society.
We must remember that when we talk about communication, we are not talking only about transfer of information; we also include in it the participation of the society, the community we are communicating about. In a society, social institutions can come into existence and survive only when people participating in them are interlinked through communication. Man is the only creature who needs communication the most for all aspects of his life; and it is for this reason that he is called “Homo Communicator”. What he is today and will be tomorrow is because of his ability to communicate with others. It is obvious that culture is communication and communication is culture.
Today, there are unceasing developments in the area of communication; newer kinds of communication medium are coming in to existence and that is really obliterating distinctions between mass and individual communication. It is evident that the trend of communicating the same information or material to diverse communities scattered over the globe is just a passing phase. The change is indicated by the current trend of local editions being brought out by newspapers in India. Hopefully, in the coming days communication on demand will become crucial.
We should also keep in mind that Information Society is evolving at a fast pace. In such a situation, it might be very difficult to demarcate precisely between mass communication and interpersonal communication. It can only happen if we delimit mass communication process only to publishing or broadcasting or telecasting a chosen material or information ignoring the receptors. But in developing countries like India, apart from interpersonal communication, mass communication is also of considerable interest. It is true not only about carrying health campaigns like the one against aids and disseminating information about new discoveries and inventions, but also for communicating information that is important for the civil society. We’ll have to accept the simple fact that a modern society characterized by democracy, social and economic justice, national integration, social discipline and economic progress can’t be possible without the active and oriented help of mass media; for in a country as vast as India only mass media can communicate information to the inhabitants of the rural regions. A communication system only can ensure that rural populations are consistently kept informed about latest and relevant information and can have a forum for articulating their views. Only it can ensure that the division of country into information rich and information poor regions is gradually eliminated.
Apart from technological progress and economic development, modernization of a society also includes development of democratic institutions by replacing pre-modern and feudal setups. It can only be done by making the poor, the marginalized sections of the society participate in the decision making processes. Development also includes the values of human dignity, equality, social justice and security. Any development that doesn’t bring these values in its orbit; that doesn’t provide all people equal opportunities is suspect. Mass media can play a very crucial role in it for any transitional period requires new attitudes, a new mind set and a value system in society. Media by its reach, scope and potential can do it very effectively.
For media to play its role as a watch dog, a vehicle of social change needs to be free of the control and interference of the state. It should also not be controlled by either powerful people or companies for that will make it the mouth piece of only these forces. Freedom of press means that it should not be obstructed it in its above mentioned roles. Flow of information shouldn’t be controlled. The roles of media enunciated above can be summarized in a succinct term called ‘Development Journalism’. It focuses on the needs of the poor, the deprived, the marginalized and emphasizes their effective participation in developmental planning. Or to say it slightly elaborately, this kind of journalism motivates the active participation of the affected people and advocating for their interests, in place of the views of the policy makers and the planners i.e. the government. For last 10 years Charkha has been functioning with this concept of journalism as its model. It has to extent succeeded in generating an interest among a section of media persons towards people’s issues. But on the whole, the scene still persists where the mainstream media is not sufficiently focusing grassroots people’s initiatives and movements. It is for this reason; activists of mass movements and organizations have initiated efforts for making an interface possible between mass media and such organizations. One illustrious example and fruit of such interface is the Narmada Bachao Andolan. This movement has assumed a nation wide interest not for the reason that it symbolizes people’s fight against mega dams, but because it could and is still using mass media in a better and effective way for highlighting itself in the public eye.
There was a time when media would reach to movements for reporting it. But unfortunately now, activists have to do two things simultaneously- carry on with their movements and write news reports about them and also take those reports to newspaper offices for favor of publication. The sorcerers of the mainstream media don’t make any efforts on their own to lend their ears to the stirrings and upsurges at the grassroots level. Consequently, in situations where activists are yet to learn to find a place for their issues, failures and successes in the mainstream media, these remain confined only to their immediate local surroundings and don’t reach to a wider audience or readership. In place of our journalism becoming development journalism in the sense defined above; it has become ‘envelopment’ journalism based on envelopes with press releases reaching newspaper offices. Charkha is a modest initiative in making an interface possible between action at the grassroots level and the mainstream media; an effort for ‘spinning action into words’.
We don’t make a case against media; we just try to making bridges between people’s issues and the media. If they are left with no time to reach down to the issues; we can take these to them. To put it more clearly, we want media’s centralized power to be decentralized. The word decentralization is in vogue now a day. Power has been decentralized to the Panchayat level; but the watch dog who keeps vigil on this power is increasing getting decentralized. Why has it not been decentralized? If power could be handed over to an illiterate rural woman; why can’t a literate Youngman or woman of a village be imparted media training? From the center to the panchayat level, power wants media with and around it and those who are in media want are with and around those who yield power and in this holy or unholy alliance it is finally people who suffer and are marginalized.
Charkha is precisely working for this kind of decentralization of media and is trying to do it at various levels. We start from the Panchayat level. In Rajasthan, Chattisgarh, U.P., Jharkhand, Uttranchal and Bihar, we conduct Writing Workshops at the tehsil and state levels in which social activists related to Panchayat Raj & Self- governance are given information about media. For evolving panchayat level media we train these activists in preparing wall newspapers and also in writing reports etc. for newspapers panchayat related issues. Local editors and journalists are also invited to these workshops so that they could familiarize themselves with the ground realities of a village and in future are willing to include these issues in their papers. We also conduct Media Workshops for journalists and free lancers in which the roles of media and people’s issues are the focal point of discussion. Social activists are given information about the internal constitution of the media, its way of functioning, pressures on it and its responsibilities; while media persons get an opportunity for developing a deeper understanding of people’s issues. In the light of the experiences we have gained in last ten years reveal that though successes on this path are very difficult to achieve, but not impossible.


Aman Namra
http://www.countercurrents.org/hr-namra190404.htm