Thursday, August 5, 2010

धोखे की पत्र्कारिता


मीडिया में रहकर संवेदनाओं का कचरा हो गया है, हर दिन ही यह हाल है कि शाम 7 बजते बजते लीड खबर न मिले तो सिर चकरघिन्‍नी से घूमने लगता है, हद तो तब हो जाती है जब किसी बडी दुर्घटना या हादसे की खबर बनते बनते रह जाए, अब परसों की ही बात है, दो ऐसी खबरें थीं जिनकी पहली सूचना से लगा कि बस आज मिल गई लीड, लेकिन कंबख्‍त ऐसा हुआ नहीं. पहली खबर छत्‍तीसगढ़ के दंतेवाडा़ से थी जहां नक्‍सलियों और सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ जारी थी, दिन की खबरों में सूचना थी कि 6 जवान शहीद हो गए और करीब 45 लापता हैं, इससे लगा कि आज लीड खबर का संकट नहीं होगा, यह तो बनीबनाई खबर सभी संस्‍करणों में लीड छपेगी. लेकिन सात बजते बजते पता चला कि एक भी जवान शहीद नहीं हुआ, उल्‍टे नक्‍सलियों को मुंह की खानी पडी़. कई संस्‍करणों से लगातार फोन आ रहे थे कि लीड खबर कब तक मिल रही है, उन्‍हें टका से जवाब देना पडा् कि एक भी शहादत नहीं हुई सो खबर किल हो गई है.
इस दौरान एक भी बार यह विचार मन में नहीं आया कि अगर मुठभेड्र में जवान शहीद नहीं हुए और उधर नक्‍सलियों की भी जान नहीं गई तो इस जानकारी से मन में कहीं किसी कोने में संतोष की लहर क्‍यों नहीं दौड़ी. आखिर क्‍यों हम ये मना रहे थे कि एक ही देश का एक भाई दूसरे भाई की जान ले और हम उसकी खबर का जश्‍न मनाएं. क्‍या करें, इन दिनों मीडिया की हालत कुछ इसी तरह की हो गई है. और हां, दूसरी खबर के बारे में तो बताना भूल ही गया. यह खबर तालिबान के एक हमले की थी,जिसमें उसने दावा किया कि जुलाई के अंतिम सप्‍ताह में उसने दुबई के खिलाफ एक जहाज पर आत्‍मघाती हमला किया, जहाज के क्रू सदस्‍यों में 15 भारतीय भी थे. एजेंसी पर जारी इस खबर की हेडिंग और इंट्रो पढ्रकर लगा कि जहाज डूब गया और सारे भारतीय मारे गए, सो बनी पहले पेज की खबर. तुरंत अपने साथी को बताया कि फर्स्‍ट नहीं तो सेकंड लीड तो मिली ही समझो. लेकिन जब पूरी खबर पढ़नी शुरू की तो पता चला कि आत्‍मघाती हमले में केवल हमलावर की मौत हुई है, वहीं हमले में महज एक व्‍यक्ति घायल हुआ जो अब ठीक है. यह खबर भी गई. तो... ऐसे हो गए हैं हम पत्र्ाकार लोग.
कुछ दिन पहले भोपाल के गांधी भवन में गांधीवादियों और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं का एक राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन हुआ था, इसमें नक्‍सली समेत समाज की विभिन्‍न हिंसाओं से निपटने के लिए अहिंसक तरीकों पर विस्‍तृत चर्चा की गई थी. इसी सम्‍मेलन में गांधी शांति प्रतिष्‍ठान की अध्‍यक्ष राधा भट भी आई हुई थीं, उनसे मुलाकात हुई. हम चरखा संस्‍था की कुछ पुरानी कार्यशालाओं में मिल चुके थे सो वे सकारात्‍मक पत्र्कारिता के प्रति मेरे झुकाव और चरखा के दौरान की गई 50 से भी ज्‍यादा पत्र्कारिता कार्यशालाओं के बारे में जानती थीं. उन्‍होंने कहा, अमन, हम लोग कब तक ये हिंसा, मारकाट, लूटमार की खबरें पढ़ते रहेंगे, अब हमें समाज को कुछ पाजिटिव खबरें पढ़वानी चाहिएं, अच्‍छी खबरें देनी चाहिएं, तभी समाज की मानसिकता बदलेगी. इस पर मेरा जवाब था कि राधा जी, पाजिटिव खबरें पढ़ने वालों की संख्‍या बहुत कम है, इससे न्‍यूजलेटर तो छप सकता है अखबार नहीं. लेकिन यह जरूर संभव है कि अगर ठोस योजना के साथ काम किया जाए तो मुख्‍यधारा अखबारों में ही पाजिटिव खबरों की संख्‍या बढ़ाई जा सकती है, इसके लिए सभी को कोशिश करनी होगी, बहरहाल यह तो बहुत लंबी बहस का विषय है, लेकिन मुझे सौ फीसदी भरोसा है कि सकारात्‍मक पत्र्कारिता में ही भविष्‍य है और समाज को हिंसा के गर्त से उबारने का एक ठोस उपाय भी इसी में निहित है.
जरा इसपर विचार करें कि अखबार का समाज का आइना बताने वाले वे पत्र्कार या अखबारों के मालिक जो ग्‍लैमर, हिंसा, सेक्‍स की खबरों को इसलिए देने पर अड़े रहते हैं कि समाज में ऐसा हो रहा है इसलिए ये खबरें देना उनकी मजबूरी है, ऐसी नहीं करेंगे तो अखबार कौन पढ़ेगा, अगर वे अखबार के पितामह जेम्‍स आगस्‍टस हिक्‍की के हिक्‍की गजट पर नजर डालें तो समूचा परिदृश्‍य की बदल जाएगा. अगर अखबारों की आईना वाली अवधारणा हिक्‍की के समय में भी होती तो संभवतः अखबार का जन्‍म ही नहीं हुआ होता, हिक्‍की का गजट तो उस असंतोष, लाचारी और गुस्‍से की अभिव्‍यकित था जिसमें व्‍यक्ति को अपनी सही बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा था और किसी और विकल्‍प के अभाव में उसने एक पोस्‍टर सरीखे कागज को अपनी अभिव्‍यकित का माध्‍यम बनाया, तब यह सूचना का जरिया नहीं आक्रोश को जताने का माध्‍यम था, आज अखबारों से जनता का आक्रोश नजर नहीं आता, वह मालिक, संपादक और रिपोर्टरों के बीच मैनिपुलेट कर लिया जाता है. खबरें जो असल में होती हैं और जो छपती हें उनके बीच का अंतर समाज को धोखा देने से इतर और कुछ नहीं होता.

अखबार जो कभी समाज के विरोध की वजह से अस्तित्‍व में आया और इसी के चलते टिका रहा, अंग्रेजों को देश से खदेड़ने तक में अखबारों की भूमिका बेहद महत्‍वपूर्ण रही, आज राजनेताओं, मालिकों और संपादकों की तिकड़ी के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच रहा है. उपेक्षितों की आवाज बनने वाला यह माध्‍यम आज शोषकों का मुखपत्र् बन चुका है. इस कुचक्र को तोड़ना इतना आसान नहीं है, जब लोग 15 रूपए का अखबार 3 रूपए में पढ़ते हैं उन्‍हें उसी वक्‍त यह समझ लेना चाहिए कि बाकी के 12 रुपए के लिए अखबार में कई सौदे किए हैं जो उनके सूचना पाने के अधिकार और असल खबर पढ़ने की इच्‍छा की कीमत पर किए गए हैं. आज इंटरनेट के युग में निश्चित तौर पर अखबारों का एकाधिकार टूट रहा है लेकिन भारत को ऑनलाइन होने में समय लगेगा, तब तक उन्‍हें यह अत्‍याचार झेलना ही होगा.
इससे उबरने या इससे निपटने संबंधी उपायों विचारों का स्‍वागत है.