Wednesday, July 20, 2011
जब फिल्म देखने के लिए लिखित मंजूरी लेता था
मेरा बेटा अभी पहली कक्षा में है और टीवी या कंप्यूटर पर जब चाहे अपने पसंदीदा कार्टून चैनल देख सकता है. सात महीने की बिटिया को खाना खिलाने के लिए कभी-कभी मैं कंप्यूटर पर बच्चों के वीडियो उसे दिखाकर बहलाता रहता हूं. ये है आज की पीढ्री. अब जरा मैं अपने बचपन की भी बताता चलूं. मैंने पहली फिल्म देखी थी जब नौवीं में पढ्रता था, वो भी पापा की मंजूरी से. पापा का घर में एक अलग ही अनुशासन चलता था. एक महीने में एक फिल्म. कई बार ऐसा होता था कि अनूपपुर के फट्रटा टाकीज, उसका नाम यूं तो जनता टूरिंग टाकीज था लेकिन बोरे और टाट से घिरा होने के कारण हम उसे फट्रटा टाकीज ही कहते थे, तो मैं यह बता रहा था कि इस टाकीज में कभी-कभी बच्चों की फिल्म लग जाती थी. ऐसे में हमें एक माह की अवधि के बीच में भी फिल्म देखने की मंजूरी मिलती थी, बशर्ते इसकी बाकायदा लिखित अनुमति मांगी जाए. मुझे याद है जब शोले लगी थी, तब मैंने एक पन्ने में कुछ यूं फिल्म देखने की गुजारिश की थी.
आदरणीय पापा,
मैंने इस महीने फिल्म देखने का अपना कोटा पूरा कर लिया है. लेकिन इस पञ को लिखने का एक खास कारण है. अनूपपुर में इन दिनों शोले फिल्म लगी हुई है. जैसा कि आप जानते हैं, यह बहुत ही अच्छी फिल्म है, अगर मैं एक महीने का इंतजार करूंगा तो शायद इसे ना देख पाउं. इसलिए आपसे अनुरोध है कि मुझे इस फिल्म को देखने की खास मंजूरी दें इसके बदले में मैं अगले महीने एक भी फिल्म नहीं देखने का वादा करता हूं.
आपका
अमन
और मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा जब मुझे फिल्म देखने की मंजूरी मिल गई. बाद में जैसे-जैसे कक्षाएं और उम्र बढ्रती गई नए-नए तरीके विकसित होते गए. मसलन, अनूपपुर में एक और टाकीज खुल गया, इससे यह आसानी हुई कि मैं मंजूरी लेता था एक फिल्म की और क्लास से बंक मार कर देखता था दो फिल्म, यानी 3 से 6 वाला शो एक टाकीज में और 6 से 9 वाला, मतलब आधिकारिक शो दूसरे टाकीज में, जिसका टिकट भी संभाल कर रखना पड्रता था, घर में दिखाने के लिए. एक्स्ट्रा फिल्म देखने के लिए अपनी पाकेटमनी की जरूर कुर्बानी देनी होती थी. तब मुझे रोज के पचास पैसे मिलते थे पाकेटमनी के बतौर, इसमें से 25 पैसे का बन यानी गोल डबलरोटी खाता था और बाकी पैसे फिल्म के लिए बचाकर रखता था, अक्सर ये भी होता कि बेताब जैसी फिल्म देखने के लिए बिना मंजूरी लिए 3 से 6 का शो देख लेता था, जो उस वक्त 75 पैसे में देखा जा सकता था, बालकनी थी एक रुपए 75 पैसे की. ऐसे में घर में बचने का बहाना होता था कि आज क्रिकेट मैच थोड्रा लंबा खिंच गया. बाद में वहां वीडियो पार्लर खुले जिसमें एक छोटे से कमरे में नई फिल्में लगनी शुरू हुईं और क्लास से बंक भी कुछ ज्यादा ही मारने लगा. ये अलग बात है कि बचपन की पिटाई से तब तक पढ्राई करने की आदत पड्र चुकी थी सो फेल होने की नौबत नहीं आई. 11वीं में तो पूरे स्कूल में सबसे ज्यादा नंबर लाने पर पुरस्कार भी मिला और सर्टीफिकेट भी. वो तभी संभाल कर रख लिया था, क्योंकि पता था जिंदगी में ऐसा दूसरी बार तो होना नहीं है.
आज भले ही टीवी, कंप्यूटर पर चाहे जितनी फिल्म, वीडियो देख लूं लेकिन वो मजा जो मंजूरी लिए बिना चोरी-चोरी फिल्म देखने में आता था अब कहां नसीब होगा.
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