Saturday, August 27, 2011

सत्‍ता की पाती जनता के नाम


तुम जनता हो
अपनी हदें पहचानना सीखो
तुम्‍हारी नियति है राशन-पानी के लिए
कतारों में लगना
राशन-पानी लेकर कतारों में उतरना
कैसे सीख लिया
सडृकों के किनारे झुग्गियों में रहना ही रास आता है तुम्‍हें
तुम कबसे सडृकों पर उतरने की जुर्रत करने लगीं.
तुम्‍हारे भाग्‍य में बदा है कि तुम भ्रष्‍टाचार सहो
भ्रष्‍टाचार का विरोध करना तुमने कहां से सीखा
तुम्‍हारी जुबां पर नारे वो होने चाहिएं जो हमने तुम्‍हें सिखाए
विरोधी पार्टियों की बजाय तुम इंकलाब जिंदाबाद कैसे बुलंद करने लगीं
तुम्‍हें घर, फ्लैट और उसमें टीवी चैनल दिए
ताकि हर शाम देख सको, सास-बहू का झगड्रा
नई फिल्‍में और कॉमेडी सीरियल
सडकों पर कैंडल और मशाल लेकर उतरने की तुम्‍हारी हिम्‍मत कैसे हो गई

तुम्‍हें तो हमने पांच साल में बस एक बार चेहरा दिखाने का आदी बना लिया था
यूं, अचानक सडकों पर हमारे खिलाफ बोलने को तैयार कैसे हो गईं तुम
हम फिर कहते हैं
तुम जनता हो
अपना अस्तित्‍व पहचानो
तुम्‍हारी पहचान वोटर की है
तुम्‍हारा अधिकार है कि तुम वोट दो हमें
और इसी वोट के साथ सारे अधिकार भी हमें ही दे देती हो तुम

तुम्‍हारा समूचा वजूद इसी में है कि ता उम्र तुम खटती रहो
हमने पूरी व्‍यवस्‍था की है कि तुम्‍हें
रोजमर्रा के कामों में ऐसे उलझाएं कि
तुम आंदोलन, क्रांति की फिजूल बातों से दूर रहो
तुम्‍हें अपने बच्‍चों, परिवार की चिंता नहीं होती
तुम तो बनी ही इसलिए हो कि हर सुबह तुम्‍हें
दिन कैसे गुजरे की चिंता हो
और हर रात, आज का दिन गुजर गया, का सुकून
.

तुम्‍हें भविष्‍य की चिंता करना किसने सिखाया
आत्‍मसम्‍मान, गरिमा, ईमानदारी, देशभक्ति, जज्‍बा, जोश
बेमानी हैं ये सारे शब्‍द
याद करो, तुम्‍हारी जिंदगी किन शब्‍दों के सहारे चलती है
वेतन, महंगाई,रिश्‍वत, भ्रष्‍टाचार, मजबूरी, नौकरी, लाचारी और अफसोस
तुम्‍हें खुद को पहचानना ही होगा
अपने अस्तित्‍व को जानना ही होगा

तुम तभी तक जनता हो जब तक सोई हुई हो
हमारी भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था में अपना वजूद खोई हुई हो
अगर तुम जाग गई तो हमें खतरा हो जाएगा
तुम्‍हारा हदें पार करना हमारा अस्तित्‍व लील जाएगा
इसलिए, मत करो तुम व्‍यवस्‍था परिवर्तन की यह कोशिश
भूल जाओ, इंकलाब जिंदाबाद, वंदे मातरम के नारे
तुम जनता हो,
अपनी हद में रहो
तुम सहनशील बनो, संवेदनशील नहीं
संवेदनाएं हमारे लिए छोड दो
हादसो, धमाकों में मारे गए लोगों के परिजनों के लिए
हमारे भाषणों में इन्‍हीं का तो इस्‍तेमाल होता है.
तुम असहाय, निष्‍पंद, निष्‍प्रभ रहो, जागरूक बनना तुम्‍हारी नियति नहीं है

तुम्‍हें सपने वहीं देखने हैं जो हम दिखाते हैं, इंक्रेडिबल इंडिया के
तुम कबसे बुलंद भारत के तस्‍वीर संजोने लगी
तुम्‍हें तो खेतों में खटना है, फैक्ट्रियों में पिसना है
आफिसों में, फाइलों के बोझ तले गुजार देनी है तमाम उम्र

हमने इसीलिए तो बदल दी है सारी शिक्षा व्‍यवस्‍था
ताकि बना सकें, क्‍लर्क, इंजीनियर, चपरासी और अफसर
जो बन सकें हमारी व्‍यवस्‍था के कल-पुर्जे
तुम इस व्‍यवस्‍था को ढहाना चाहती हो,
हमारी सारे किए-धरे को मिट्टी में मिलानी चाहती हो
व्‍यवस्‍था विरोधी बन देशद्रोही का कलंक अपने माथे लगाना चाहती हो

नहीं यह सही नहीं है
हमारी नीयत भले ही ठीक न हो, नियति तो सही है
तुम क्‍यों नीयत का सवाल खडा कर अपनी नियति बिगाडती हो.
जनता हो, भीड में रहो, आंदोलनकारी बन क्‍यों हमें डराती हो, ,,,,,

1 comment:

achievegames said...

what a great comment!

----ashish singh