Saturday, May 31, 2008

हमारी नदियों पर मंडराता खतरा


नदियां अब अविरल नहीं बहतीं। एक समय था जब लोगों को नदियों पर भरोसा था कि वह अपने मार्ग से विचलित नहीं होगी और गंतव्य पर जरूर पहुंचेगी। लेकिन यह लोगों की करतूतों का ही नतीजा है कि दुनिया की सबसे महान नदियां तक सुरक्षित समुद्र में मिल सकेंगी इसका कोई भरोसा नहीं है। अमेरिका और मैक्सिको की सीमाओं पर बह रही रियो ग्रेन्डे नदी अक्सर मैक्सिको की खाड़ी तक पहुंचने से पहले सूख जा रही है। और ऐसा संकट झेल रही यह अकेली बड़ी नदी नहीं है। हाल यह है कि भारत की सर्वाधिक धार्मिक महत्व वाली गंगा जिसे हमने मां का दर्जा दिया हुआ है और सिंधु जो नदियों के पिता माने जाते हैं समेत नील, मरे डार्लिंग व कोलाराडो 10 बड़ी नदियां बांधों, सिंचाई व शहरों की प्यास बुझाने की तमाम योजनाओं के चलते सूखने की कगार पर हैं।


10 प्रमुख नदियां:
नदी लंबाई (किमी) प्रभावित आबादी संबंधित देश

सालवीन- 2800 60 लाख चीन, म्यामांर, थाइलैंड
दानुबी 2780 81 क़रोड़ रोमानिया समेत 19 देश
ला प्लाटा 3740 10 करोड़ ब्राजील, अर्जेंटीना, पेरुग्वे
रियो ग्रेन्ड, रियो ब्रेवो 3033 1 करोड़ अमेरिका, मैक्सिको
गंगा 2507 20 करोड़ नेपाल, भारत, चीन, बांग्लादेश
सिंधु 2900 17 करोड़ भारत, चीन, पाकिस्तान
नील लेक विक्टोरिया 6695 36 करोड़ 10 देश
मुरे डार्लिंग 3370 20 लाख आस्ट्रेलिया
म्कांग लेनसंग 4600 57 क़रोड़ चीन, म्यामांर, थाइलैंड, कंबोडिया
यांग्त्से 6300 43 करोड़ चीन
रिपोर्ट:
यह रिपोर्ट विश्‍व प्रकृति निधि ने तैयार की है। इसके लिए आठ अंतरराष्‍ट्रीय सर्वेक्षण रपटों के नतीजों का अध्ययन किया गया। दो हजार से अधिक लेखकों, शोधकर्ताओं व समीक्षकों की रपटों के आधार पर 225 नदी घाटियों के लिए सर्वाधिक अहम 6 खतरों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
मुख्य बिंदु: - आज नदियों के किनारे रहने वाली आबादी का 41 फीसदी हिस्सा संकट में है;

- बीते 50 सालों में मानव ने नदियों व उससे जुड़ी पारिस्थितिकीय को जितना नुकसान पहुंचाया है उतना अब तक इतनी अवधि में कभी भी नहीं पहुंचाया गया।
- दुनिया की 10 हजार ताजे पानी की जीवों व वनस्पतियों की प्रजातियों में से 20 फीसदी नष्‍ट हो चुकी हैं। - दुनिया की 177 बड़ी नदियों में से महज 21 (12 फीसदी) समुद्र तक बिना बाधा के बह पा रही हैं।


ये हैं प्रमुख खतरे और उनके समाधान
1- अत्यधिक दोहन: कृषि व घरेलू उपयोगों के लिए नदियों के पानी के अत्यधिक दोहन से यह खतरा हो गया है कि रियो ग्रेन्डे तथा गंगा नदियों पूरी तरह सूख सकती हैं;
2- बांध व ढांचागत निर्माण: नदियों पर बांध व अन्य ढांचागत निर्माण के चलते सालवीन, ला प्लाटा तथा दानुबी नदियों पर संकट आ खड़ा हुआ है।
3- आक्रामक प्रजातियां: कई तरह की आक्रामक प्रजातियों के चलते मुरे डार्लिंग नदी की पारिस्थतिकी संकट में जलवाय परिवर्तन – जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले तामपान बढ़ोतरी ने सिंधु व उसके प्रभाव क्षेत्र की अन्‍य हिमालयी नदियों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। इसके चलते नील लेक विक्‍टोरिया के लिए मछली उत्‍पादन तथा जल आपूर्ति में गंभीर संकट की स्थिति है।

4- अत्यधिक मछली आखेट: मछली के शिकार में बेतरतीब बढ़ोतरी, मछली के अधिकारों का असंतुलित बंटवारा तथा मछलियों के अत्यधिक सेवन से मेकांग जैसी नदियों व उनके पारिस्थितिकीय पर गंभीर असर पड़ा है। प्रदूषण: चीन की यांग्त्से नदी व उसकी पूरी घाटी भारी औद्योगीकरण, बांध व गाद के कारण प्रदूषण की चपेट में है। यह दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी मानी जाती है।


समाधान: प्राकृतिक बहाव सुनिश्चित करना, जल आवंटन व अधिकारों को बेहतर करना, जल उपयोग की क्षमता बढ़ाना, जल सेवाओं का भुगतान तय करना, कम पानी वाली फसलों को प्रोत्साहन, ऐसी कृषि सब्सिडी खत्म करना जिनसे अत्यधिक जल दोहन वाली खेती होती हो, ढांचागत निर्माण का विकल्प तलाशना, बांधों का आकार छोटा रखना, तकनीकी बदलाव, जंगलों में बढ़ोतरी, नदियों, तालाबो व अन्य जल क्षेत्रों का संरक्षण, पारिस्थितिकी को बेहतर करने के उपायों से ही जैव विविधता पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकेगा। लेकिन ये तमाम समाधान तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक सीमाओं से परे जाकर सहभागी रवैया नहीं अपनाया जाएगा।


कैसे हैं पिता सिंधु के हाल:


भारतीय प्रायद्वीप की सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान मानी जाने वाली सिंधु तिब्बत में मानसरोवर से शुरू होती है और 3200 किमी का सफर तय कर कश्‍मीर व पाकिस्तान से होते हुए कराची के पास अरब सागर में समा जाती है। इसका बेसिन क्षेत्र करीब 11 लाख 65 हजार वर्ग किमी में फैला हुआ है। पाकिस्तान की जीवन रेखा मानी जाने वाली यह नदी अपनी सहायक नदियों मसलन चेनाब, रावी, सतलुज, झेलम व ब्यास के साथ पंजाब, हरियाणा व हिमाचल के लिए बेहद अहम भूमिका निभाती है। पहले सरस्वती भी इनमें शामिल थी और तब सिंधु को सप्तसिंधु कहा जाता था। माना जाता है कि प्राचीन काल में सिंधु कच्छ के रण में भी बहती थी। इसके किनारों पर अब तक 1052 शहरों की खोज की जा चुकी है।

विशेषताएं:
- सिंधु का अनुमानित वार्षिक बहाव 207 घन किमी माना जाता है; इसका बेसिन वि6व में सर्वाधिक सूखा माना जाता है। सिंधु व इसकी ज्यादातर सहायक नदियां काराकोरम, हिंदु कुश तथा तिब्बत, कश्‍मीर व पाकिस्तान के उत्तरी भागों के ग्लेशियरों पर आधारित हैं। - सिकंदर के आक्रमण के समय सिंधु घाटी में घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ जंगलों का तेजी से विनाश हो गया; आज शिवालिक पहाड़ियों पर हो रहा अतिक्रमण इसकी ताजा मिसाल है। सिंधु की बेसिन में मौजूद मूल जंगलों का 90 फीसदी हिस्सा खत्म हो चुका है जो जलवायु परिवर्तन तथा पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सहायक हो सकता था – खास तरह की डाल्‍िफन की प्रजातियां व हिल्‍स समेत कई स्‍वादिष्‍ट मछलियां भी सिंधु में मिलती हैं।‍
- हजारों साल पहले सिंधु के पानी के इस्तेमाल के लिए नहर बनाने का सिलसिला शुरू हो गया था। भारत-पाक बंटवारे के बाद 1960 में हुई जल बंटवारा संधि के मुताबिक पाकिस्तान को नि6चित पानी देने के लिए दो बांध बनाए गए। पहला झेलम पर मंगला बांध तथा दूसरा सिंधु पर तरबेला बांध। इस संधि के मुताबिक सतलुज, ब्यास व रावी पर भारत का नियंत्रण माना गया जबकि झेलम, चिनाब व सिंधु पर पाकिस्तान का।
- सिंधु में 147 मछलियों की प्रजातियों के अलावा 25 जलीय जीव मिलते हैं।
- जलवायु परिवर्तन, पानी के बढ़ते इस्तमाल व घटती मात्रा के भारत-पाक के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है; साथ ही हरियाणा, पंजाब व राजस्थान के बीच भी जल बंटवारे को लेकर तनाव की स्थिति बनी रहती है।
विवाद - जम्मू कश्‍मीर में पाक सीमा के पास डोडा जिले में चिनाब नदी पर बनने वाले बगलिहार बांध से भारत-पाक रिश्‍तों में कड़वाहट आ गई है। यह राज्य में बनने वाले 11 बांधों में से एक है, इनमें से 9 चिनाब पर बनने वाले हैं; निश्चित ही इससे न केवल नदी के बहाव पर फर्क पड़ेगा बल्कि उसकी समूची नदी घाटी संरचना प्रभावित होगी।

खतरा: हिमालय के ग्लैशियर पर निर्भरता के कारण सिंधु व इसकी सहायक नदियों पर जलवायु परिवर्तन का गंभीर खतरा मंडरा रहा है। तापमान में बढ़ोतरी के चलते आने वाले वर्षों में कई ऐसे बड़े ग्लेशियर विलुप्त हो जाएंगे जो सिंधु व सहायक नदियों को 70 से 80 फीसदी पानी की आपूर्ति करते हैं। इसके चलते हरियाणा, पंजाब, हिमाचल व पाकिस्तान के बड़े हिस्से में पानी का गंभीर संकट हो जाएगा। - पंजाब, हरियाणा के बेसिन में पानी के अत्यधिक दोहन के चलते पहले ही स्थिति गंभीर हो चुकी है। कई जिलों में पानी की क्षारीयता खतरे के स्तर पर पहुंच चुकी है।


और ये है हाल गंगा मां का :
मध्य हिमालय ने निकलकर नेपाल, भारत, चीन व बांग्लादेश होते हुए 2507 किमी का सफर तय कर बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसका धार्मिक, आर्थिक व सांस्कृतिक महत्व काफी ज्यादा है। माना जाता है कि दुनिया की 8 फीसदी आबादी इसके जलग्रहण क्षेत्र में बसती है।

विशेषताएं - मछलियों की 140 प्रजातियां
- मीठे पानी में पाई जाने वाली डाल्फिन
- 35 सरीसृप तथा 42 स्तनधारी प्रजातियां
- गंगा व ब्रह्मपुत्र का जलग्रहण क्षेत्र संयुक्त तौर पर दुनिया का सबसे बड़ा जैव विविधता वाला क्षेत्र है।
खतरा: - गंगा व उसकी सहायक नदियों का अमूमन 60 फीसदी पानी कृषि संबंधी कामों के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
- बांग्लादेश सीमा से महज 18 किमी दूर बने फरक्का बैराज से गंगा में पानी में मासिक बहाव 2213 घनमीटरसेकंड से घटकर 316 घनमीटरसेकंड हो गया है।
- टिहरी बांध से सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी के अलावा 270 मिलियन गैलन पानी हर दिन पेयजल के रूप में इस्तेमाल होता है।

- अत्यधिक जल दोहन से गंगा में रहने वाली मछलियों क 109 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं।
- नदी जोड़ परियोजना में गंगा के शामिल होने से आने वाले समय में इसका पानी और कम होने की आशंका है।
- हिमालय के ग्लेशियर गंगा के पानी में 30-40 फीसदी का योगदान करते हैं; जलवायु परिवर्तन के चलते इसमें भारी कमी आने का अंदेशा है।

Tuesday, May 27, 2008

पर्यावरण- बचाने और बेचने की चिंता

बीती 22 मई का दिन दुनिया भर में जैव विविधता दिवस के रूप में मनाया गया और आने वाले 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने की परंपरा का भी बखूबी पालन होगा। ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया को वाकई पर्यावरण की बेहद चिंता है और वह भिन्न दिवसों, सेमिनारों, भाषणों, रैलियों आदि-आदि के जरिए अपनी चिंता जताते भी रहती है। लेकिन आज सबसे बड़ी चिंता यह है कि जिन्हें वाकई जल, जंगल, जमीन, जानवर और जीवन की चिंता है उनकी चिंता किसी को नहीं है। और वह है हमारा आदिवासी समाज।
सच यही है कि सदियों से जंगलों के साथ जीवन का रिश्‍ता निभा रहे आदिवासी ही वह एकमात्र कड़ी हैं जो आज भी घटते जंगल और बिगड़ते पर्यावरण को बचाने में हमारी मदद कर सकते हैं। पर इनकी सुनता कोन है। उलटे इन आदिवासियों को जंगल बचाने के नाम पर अपने जीवन से बेदखल करने के प्रयास दुनिया भर में जारी हैं। आइए देखते हैं कैसा है जंगलों से आदिवासियों का रिश्‍ता।
आदिवासी तमाम नारों, देशी-विदेशी अनुदानों या सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं, आंदोलनों में शामिल हुए बगैर जंगल बचाना चाहते हैं, ताकि उनका अपना अस्तित्व बचा रह सके। ये उनके लिए प्रोजेक्ट नहीं जीवन का प्रश्‍न है। अगर जंगलों का प्रयोग करने के आदिवासियों के कुछ नियम व तरीके देखे जाएं तो हमें पता चलेगा कि वे कितने टिकाऊ और महत्वपूर्ण हैं। आइए देखते हैं मध्यप्रदेश्‍ा के मंडला और डिंडौरी के प्रागैतिहासिक बैगा आदिवासी जंगल से जड़ी-बूटी निकालने के क्या तरीके अपनाते हैं। बैगा प्रसव के दौरान कल्ले (एक पेड़) की छाल का उपयोग करते हैं। छाल निकालने से पहले वे वृक्ष को दाल, चावल का न्यौता देते हैं, फिर धूप से उसकी पूजा करते हैं, मंत्रोच्चार करते हैं, फिर कुल्हाड़ी के एक वार से जितनी छाल निकल जाए महज उतनी का ही इस्तेमाल वे दवा के रूप में करते हैं। बैगाओं के मानना है कि अगर वे इस नियम को न लागू करें तो कल्ले का पेड़ तो बचेगा ही नहीं। इसी तरह पेट दर्द, उल्टी दस्त व आंव के लिए महुआ तथा पंडरजोरी की छाल का इस्तेमाल होता है, इस बार नियम तीन बार कुल्हाड़ी मारने पर निकली छाल के उपयोग करने का होता है।
इसी तरह आधे सिर का दर्द होने पर तिनसा झाड़ की छाल का उपयोग किया जाता है। इसकी छाल एक विश्‍ोष विधि से सूर्योदय व नित्यकर्म आदि से भी पहले निकाली जाती है। इसके लिए पेड़ से एक निश्‍चित दूरी बनाकर सांस रोककर एक पत्थर उठाया जाता है फिर पेड़ के तीन चक्कर लगाकर पत्थर से पेड़ को तीन बार ठोंकते हैं, इसके बाद कुल्हाड़ी के एक वार से जितनी छाल निकल जाए, उसे लेकर पत्थर को वापस अपनी जगह पर रखना होता है, ध्यान यह रखना है कि इस समूची प्रक्रिया के दौरान सांस नहीं टूटनी चाहिए। इससे देखा जा सकता है कि चाहकर भी आदिवासी पेड़ों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। उलटे अपनी सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक जरूरतों के लिए जंगल बचानके अलावा उसके लिए कोई और विकल्प बचता ही नहीं है। एक उदाहरण देखते हैं झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांड प्रखंड के एक टोले खपुरतला का जो औराटोली गांव में आता है। इस टोले की अगुवाई में समूचे गांव ने करीब 200 एकड़ का जंगल बचाया है जिसमें साल के साथ आम, चिरौंजी, पिठवाइर, जामुन, घुंई, कनवद जैसे पेड़ों के अलावा कई तरह की झाड़ियां तथा जड़ी-बूटियां भी हैं। यह कवायद बिना किसी वानिकी परियोजना या संस्था की मदद के की गई है। एक आदिवासी विलयम टोप्पो ने, जो जंगल विभाग में नौकरी न मिलने पर वापस घर आ गया अपने घर के पास दो एकड़ जंगल बचाकर इसकी शुरुआत की और फिर पूरे गांव में यह प्रक्रिया इस तरह अंजाम चढ़ी कि आज वह 200 एकड़ के घने जंगल का मालिक है। इसके लिए समूचे इलाके में कुल्हाड़ी बंदी की घोषणा, शादी मंडप के लिए कम लकड़ी का इस्तेमाल, और जंगल काटने वाले की सूचना देने पर पुरस्कार की घोषणा जैसी गतिविधियों ने इन्हें सफलता दिलाई।
ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें आदिवासियों, ग्रामीणों या संस्थाओं के प्रयासों से जंगल बचाने, बढ़ाने के सफल प्रयास किए गए हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर चल रहे राष्‍ट्रीय, अंतर्राष्‍ट्रीय परियोजनाओं से समाज को पूरी तरह काट दिया गया है, खासकर आदिवासी समाज को। विश्‍व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार भारत में प्रतिर्वष 4 हजार वर्ग किमी की दर से जंगल घट रहे हैं, यानी भारत में वास्तविक वन अब महज 12 प्रतिश्‍ात ही रह गये हैं। दूसरी ओर मध्यप्रदेश्‍ा, झारखंड, उड़ीसा यानी वे क्षेत्र जहां आदिवासी और जंगलों की बहुतायत है में जंगलों को बचाने के नाम पर आदिवासियों को गोलियों का श्‍ािकार बनाया गया है। देवास, मध्यप्रदेश्‍ा में पांच आदिवासी गांवों के 50 घर जलाकर खाक कर दिए गए और श्‍ आदिवासी पुलिस की गोलियों से मौत के शिकार बन गए। झारखंड में जंगलों में बांधों और खदानों का विरोध कर रहे दर्जनों आदिवासियों को गोली मारी जा चुकी है इसी तरह उड़ीसा में भी आदिवासियों को जंगल काटकर बाक्साइट खदान लगाने का विरोध करने पर गोलियों दागी गई हैं। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनसे साफ पता चलता है कि सरकार की असली मंशा जंगल बचाना नहीं जंगल बेचना है। ऐसे में आदिवासी के अलावा जंगल बचाने की जिम्मेदारी कोई और निभा पाएगा यह सोचना मुश्‍किल है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि आदिवासियों का पारंपरिक ज्ञान, वनाधारित जीवन श्‍ौली, वन संरक्षण की उनकी टिकाऊ सोच और दृष्‍िटकोण की अनदेखी कर वन्यप्राणी, जैव विविधता के नाम पर विदेशी सोच आधुनिक कह कर हम पर लादी जा रही है। अगर वास्तव में आने वाली पीढ़ी के लिए हमें जंगल की विरासत देनी है तो जंगल को महज लाभ के लिए नहीं, जीवन के लिए बचाने की सोच विकसित करनी होगी। दरअसल, जंगल और बाजार दो छोर हैं जिन्हें कभी आपस में नहीं मिलने देना चाहिए।

Sunday, May 25, 2008

अब हवा में भी नहीं रहने देंगे पानी

इस पर्यावरण दिवस की सबसे बड़ी खबर यही होनी चाहिए कि अब पानी के लिए बादलों या नगरनिगम के टैंकर अथवा नलों की राह नहीं ताकनी होगी। बाजार ने पानी को पैसों वालों के अंगूठे के नीचे दबाकर रखने की जुगत निकाल ली है। अमेरिका की एयर वाटर कारपोरेशन एटमोस फ्रिक वाटर टेक्नालाजी सिंक कंपनी ने ऐसी मशीन बाजार में उतार दी है जो हवा से नमी सोखकर पानी बनाती है। आप जितना खर्च करने को तैयार होंगे उतना ही पानी इस्तेमाल कर पाएंगे। सवा लाख की मशीन से रोजाना हजार लीटर पीने लायक पानी बनाया जा सकता है। लेकिन कंपनी मध्यम वर्ग को भी इस अनूठे लाभ से वंचित नहीं रखना चाहती, इसलिए उसने 35 हजार कीमत वाली मशीन भी बाजार में उतारने की तैयारी पूरी कर ली है जो रोजाना 250 लीटर पानी बनाएगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि गरीबी रेखा के आसपास रहने वालों के लिए और सस्ती मशीन आएगी क्योंकि सरकारी गति से उन्हें साफ पानी मुहैया कराना इस मशीन से तो सस्ता नहीं ही होगा। वैसे भी सरकार बाजार की जिस कदर वकालत कर रही है उसे देखते हुए इसकी उम्मीद ज्यादा है कि सामान्य लोगों को साफ पेयजल मुहैया कराने की जगह सरकार इस मशीन की कीमत पर सब्सिडी या बैंक से कम ब्याज वाले कर्ज की योजना लागू कर दे।
यह मशीन 55 प्रतिशत से अधिक नमी वाले इलाकों में 19 डिग्री तापमान पर भरपूर पानी बना सकती है। जाहिर है कि लगभग समूचा भारत इस कंपनी के लिए आसान बाजार है। फिलहाल इस मशीन का इस्तेमाल जम्मू और श्रीनगर में फौज कर रही है क्योंकि कई दुर्गम इलाकों में साफ पेजयल मुहैया होना मुश्‍किल है। देश के बाकी हिस्सों में जल्द ही यह मशीन अपना मौजूदगी का अहसास कराएगी इसमें ज्यादा शक-शुबहे की गुंजायश नहीं होनी चाहिए क्योंकि सरकारी मशीनरी आने वाले बरसों में देश की बड़ी आबादी को साफ पेजयल मुहैया करा पाएगी इसमें जरूर शक है। अगर वर्ल्ड बैंक के ही आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि देश में होनेवाली करीब 21 फीसद बीमारियां साफ पेयजल के अभाव की वजह से होती हैं। हालत यह है कि डायरिया जैसी बीमारी की वजह से रोजाना 1600 मौतें होती हैं। ये संख्या उतनी ही है अगर 200 की सवारी वाले आठ हवाई जहाज रोजाना धरती पर जा गिरें। ऐसे में लोग बीमारियों पर पैसे खर्च करने की जगह यह मशीन खरीद लें तो उन्हें समझदार उपभोक्ता ही मानना चाहिए।
लेकिन अभी कई ऐसे सवाल हैं जिनपर इस मशीन के निर्माताओं और देश में इन्हें बेचनेवालों से जवाब मांगा जाना चाहिए। मसलन अभी तक हमारे देश में जमीन के उपर और जमीन के नीचे के पानी के अलावा पानी के अन्य उपयोग पर नियंत्रण रखने संबंधी कोई कानून नहीं है। याद रखने वाली बात है कि ये मशीनें ना तो किसी कुंए, तालाब या नदी से पानी खींचेंगी ना ही गहरे टयूबवेल खोंदेंगी जिनपर मौजूदा सरकारी कानूनों के जरिए रोक लगाई जा सके या नियंत्रण किया जा सके। ये मशीनें हवा से नमी सोखकर पानी बनाएंगी जिसपर नियंत्रण करने या उसे मापने का कोई पैमाना अभी तक नहीं है। देश में जल संकट की स्थिति गंभीर है। ऐसे में अमेरिका से आयातित पानी बनाने वाली मशीनें जल संकट के निदान में मदद करेंगी या जल संकट को नया आयाम देंगी यह जरूर चिंतनीय विषय है।
सच यही है कि आने वाले सालों में देश में पानी का संकट भयावह होने जा रहा है। भारत में चेरापूंजी के 11000 मिमी से जैसलमेर के 200 मिमी की बारिश के बीच देश की औसत सालाना बारिश 1170 मिमी है। इस नजरिए से दुनिया के सर्वाधिक जलसंपदा वाले देशों में से एक हमारे देश के कई राज्य रेगिस्तान बन चुके हैं और कई बनने की कगार पर हैं। 1955 में प्रति व्यक्ति 5277 घन मीटर पानी की उपलब्धता 2001 में गिरकर 1820 घन मीटर तक पहुंच चुकी है। आशंका है कि 2025 तक यह 1000 घन मीटर तक घटेगी। अनुमान है कि सन 2050 में भारत की आबादी के 1450 अरब लोगों में से करीब 8 अरब लोग शहरों में होंगे और यह शहरों की मौजूदा आबादी पर जबदस्त बोझ होगा। उस वक्त ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रति दिन 40 लीटर तक घट जाएगी, शहर अपनी आबादी की जलापूर्ति कैसे करेंगे यह विचारणीय प्र6न है। खासकर यह देखते हुए कि देश की राजधानी दिल्ली तक को वर्तमान आबादी की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए दूसरे राज्यों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ रहा है। तमिलनाडु और कनार्टक के बीच पानी के बंटवारे को लेकर लड़ाई जारी है, राजस्थान में बीसलपुर बांध के पानी को कई छोटे कस्बों की उपेक्षा कर जयपुर पहुंचाना हिंसक रूप ले चुका है। देश के कई बड़े शहर मसलन बंगलूर, चेन्नई को कम से कम 200 किमी दूर से पेयजल मंगाना पड़ रहा है। सरकार ने इसका एक समाधान पानी के लिए ज्यादा पैसे वसूलने में ढूंढा है। फिलहाल सरकार पानी पर दी जा रही सब्सिडी के तौर पर सालाना करीब 50 अरब रुपयों का नुकसान उठाने का दावा कर रही है। सरकार का तर्क यह है कि कम कीमत में पानी मुहैया कराने पर उसकी बरबादी ज्यादा होती है। शहरों में यह बरबादी कुल पानी के 30 फीसद के बराबर आंकी गई है।
अगर हम पानी के इस्तेमाल की देश में पानी की मौजूदगी से तुलना करें तो हैरत में पड़ जाएंगे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2010 तक हम करीब 230 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल का इस्तेमाल कर चुके होंगे, लेकिन ताजा आंकड़े बताते हैं हम अब तक 250 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल कर चुके हैं। जाहिर है कि हम पानी का बैंक इतनी तेज गति से खाली कर रहे हैं कि उसे भरने की तमाम सरकारी, गैर सरकारी कोशिशें नाकाम साबित होंगी। इस संदर्भ में राष्‍ट्रीय सैंपल सर्वे संस्थान के उस सर्वेक्षण का हवाला उपयोगी है जिसमें कहा गया है कि 82 फीसद गांवों में घरेलू उपयोग के लिए भूजल इस्तेमाल होता है। इस पर रोक लगाने के दूरगामी असर होंगे। हाल में राजस्थान, महाराष्‍ट्र, ओड़ीसा तथा हिमाचल प्रदेश में ग्रामीणों को भूजल का इस्तेमाल न करने के कानून बन चुके हैं। हाल में अंतरराष्‍ट्रीय जल प्रबंधन इंस्ट्टियूट द्वारा किए इंदौर, नागपुर, बंगलूर, जयपुर, अहमदाबाद तथा चेन्नई शहरों के सर्वेक्षण से पता चला है कि इनमें शहर की नागरिक व निगम की जल जरूरतों की 72 से 99 फीसद पूर्ति भूजल से ही होती है। इन शहरों में टैंकर से पानी आपूर्ति करने पर होने वाली सालाना आमदनी करीब 100 करोड़ रुपयों की है। संभवत: ऐसे ही आंकड़े देखकर अमेरिकी कंपनी ने हवा से पानी बनाने वाली मशीन के बारे में सोचा हो।
यूं भी ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल मुहैया कराने के सरकारी आंकड़ों में काफी गफलत है। पेयजल आपूर्ति विभाग एक तरफ तो यह कहता है कि 2004 तक देश के 94 फीसदी ग्रामीण इलाकों में पेयजल आपूर्ति सुचारू ढंग से हो रही है, वहीं दसवीं पंचव8र्ाीय योजना में वे अपना बजट वर्तमान 167 बिलियन से बढ़ाकर 404 बिलियन करने की मांग कर रहे हैं। सोचने वाली बात है कि महज 6 फीसदी ग्रामीण इलाकों को पेयजल देने के लिए 404 बिलियन रुपयों की आखिर क्या जरूरत है। इसी तरह शहरी आबादी के लिए 95 फीसद को पेयजल आपूर्ति करने के दावे के बाद 10वीं पंचवर्षीय योजना में 282 बिलियन रुपयों की मांग कई सवाल खड़े करती है। यूं भी वर्ष 2015 तक देश की 334 क़रोड़ लोग साफ पेयजल से वंचित रहेंगे। इनमें 244 क़रोड़ ग्रामीण आबादी होगी जबकि 9 करोड़ शहरियों को साफ पेयजल नहीं मिल पाएगा। अभी का हाल यह है कि दिल्ली की 13 फीसदी आबादी को रोजाना पानी की आपूर्ति नहीं हो पाती, जबकि मध्यप्रदेश के 40 फीसद घरो को रोजाना 40 लीटर साफ पानी भी नहीं मिल पाता। जाहिर है कि इन हालात में पानी बनाने वाली मशीन को देश की आबादी हाथों हाथ लेगी और कंपनी को अरबों-खरबों का मुनाफा देगी। लेकिन सवाल यह है कि जब जमीन के अंदर से पानी खत्म होने का खतरा इस कदर बढ़ गया है कि उसपर रोक लगाने की तमाम कवायदें जारी है, ऐसे में हवा में मौजूद नमी को निजी कंपनियों के हवाले करने के दूरगामी नतीजे क्या होंगे। क्या देश में बड़े पैमाने पर इस मशीन के इस्तेमाल से पर्यावरण में मौजूद नमी के खत्म होने की आंशका नहीं पैदा होगी, कहीं इसका नतीजा बारिश के घटने के रूप में तो देखने को नहीं मिलेगा। ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब मिले बिना ऐसी मशीनों के खुलेआम इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन भारत सरकार की जल नीति में जल प्रबंधन व आपूर्ति के लिए निजी क्षेत्र को जिस तरह बढ़ावा दिया जा रहा है उसे देखते हुए ऐसी किसी पाबंदी की उम्मीद कम ही की जानी चाहिए।

Saturday, May 24, 2008

विकास पत्रकारिता बनाम समाज

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संचार के साधनों में तेजी से हुई प्रगति के बावजूद आज हमें विकास संचार की संभावनाओं और जरूरतों पर बात करनी पड़ रही है। बीते कई दशाकों में जिस तेजी से संचार के साधनों में तकनीकी तरक्की हुई है उसी गति से संचार माध्यमों और मानवीय पहलुओं के जनपक्षीय सूचनाओं के बीच का अंतराल भी बढ़ा है।
दुखद है पर आज सच्चाई यही है कि हमारे संचार माध्यम सामाजिक सरोकारों और जन समस्याओं को लेकर खुद की भूमिका पर सबसे कम सवाल उठाते हैं, यानी दूसरों की खबरें लेने वाले खुद की खबर नहीं लेते। यह हालत तब है जब ये माध्यम सूचनाओं को हासिल करने और समाज तक पहुंचाने में तकनीकी और संचार क्रांति की वजह से सबसे प्रभावी स्थिति में हैं। खासकर आर्थिक सुविधाओं की दृष्‍िट से काफी अच्छी स्थिति में होनके बावजूद संचार माध्यमों पर संवेदनशील होने और जन भावनाओं को महसूस करने के संदर्भ में निष्‍पंद या बेजान होने के आरोपों की आवृत्ति बढ़ती जा रही है। मुख्यधारा के अखबारों में जो कुछ दिखाया, बताया जा रहा है और देशा में आमतौर पर, खासतौर पर आदिवासी क्षेत्रों में जो कुछ हो रहा है या महसूस किया जा रहा है उसके बीच का अंतर दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
आज सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है, सत्ता पंचायतों तक जा पहुंची है, लेकिन देश में लोकतंत्र कमजोर हुआ है। हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का जनहित में सक्रिय होना बेहद जरूरी है। दुर्भाग्य की बात है कि आज विधायिका और कार्यपालिका तमाम तरह की बुराईयों की शिकार बन चुकी है, अपराध, पक्षपात, आर्थिक घोटालों और तमाम तरह के आरोपों ने विधायिका और कार्यपालिका को घेर रखा है। दुख तो इस बात का है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए जिम्मेदार चौथे स्तंभ मीडिया ने भी अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभाई है। वह विधायिका और कार्यपालिका के आसपास ही घूमता नजर आ रहा है। आज मुख्यधारा मीडिया की तमाम खबरें विधायिका, कार्यपालिका के साथ समाज की नाकामियों, अपराधों, नेताओं के बयानों और दु8प्रचारों से भरी रहती हैं। इनमें समाज की सफलताएं, समाज को नई दिशा दिखाने की कोशिश या सच कहें तो सकारात्मक सोच का सर्वथा अभाव साफ दिखाई पड़ता है। अगर हम आने वाले भारत के लिए एक ऐसा सपना देख रहे हैं जिसमें सभी को सामाजिक न्याय मिले, समाज में समानता हो, भाईचारा हो, आपसी विश्‍वास हो, संसाधनों का समान बंटवारा हो तो हमें समाज को उस दिशा में ले जाने की कोशिश करनी होगी। हमें समाज को तोड़ने वाले बयान छापते रहने के बजाय समाज जोड़ने वाली छोटी-छोटी कोशिशों को बढ़ावा देने वाले प्रयास छापने होंगे। अगर मीडिया अब भी अपने स्वरूप, भूमिका और जिम्मेदारी को समझ नहीं सकेगा तो आने वाले समय में उसे समाज को जवाब देना होगा।
हमें यह याद रखना चाहिए कि जब हम कम्यूनिकेशन की बात करते है तो हमें यह याद रखना चाहिए कि कम्यूनिकेशन का अर्थ केवल सूचनाओं का हस्तान्तरण या ट्रांस्फर करने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसमें उस समाज या समुदाय की भागीदारी भी शामिल है जिसके बारे में कम्यूनिकेट किया जाता है। किसी भी समाज में सामाजिक व्यवस्थाएं केवल तभी अस्तित्व में आ सकती हैं और कायम रह सकती हैं जब उनमें भागीदारी करते लोग कम्यूनिकेशन के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हुए हों। कम्यूनिकेशन की इसी जरूरत के कारण मनु8य को 'होमो कम्युनिकेटर' या 'संवादी मनुष्‍य' कहा जाता है, क्योंकि वह जो है (और जो हो सकता है) वह कम्यूनिकेट कर सकने की क्षमताओं के कारण हुआ है (और होगा)। जाहिर है कि कम्यूनिकेशन ही संस्कृति है और संस्कृति ही कम्यूनिकेशन।
लेकिन आज नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, कम्यूनिकेशन के नए-नए माध्यम सामने आ रहे हैं, और इसके असर से जो परिवर्तन हुआ है उसकी प्रक्रिया में मॉस कम्यूनिकेशन और तथा (व्यक्ति संप्रेषाण) इंडिविज्युअल कम्यूनिकेशके बीच की सीमाएं धुंधलाती जा रही हैं या कम होती जा रही हैं। जाहिर है कि दूर-दूर बिखरे समूहों में एक जैसी सामग्री का जन-संचार ज्यादा समय तक कम्यूनिकेशन का मुख्य स्वरूप नहीं रहेगा। इसी का एक नतीजा आज हमें अखबारों के तेजी से बढ़ते स्थानीय संस्करणों के रूप में दिखता है। उम्मीद यह है कि धीरे-धीरे आने वाले दिनों में मांग पर कम्यूनिकेशन यानी कम्यूनिकेशन आन डिमांड महत्वपूर्ण होता जाएगा।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि वर्तमान में सूचना-समाज (इंफार्मेशन सोसायटी) काफी तेजी से अस्तित्व में आ रहा है। ऐसे में मास कम्यूनिकेशन और अर्न्त-वैयक्तिक संप्रेषण (इंटरपर्सनल कम्यूनिकेशन) में विश्‍लेषण के आधार पर कोई सटीक विभाजन करना संभव नहीं होगा। ऐसा केवल तभी संभव हो सकता है जब हम मास कम्यूनिकेशन प्रोसेस (जन-संप्रेषण प्रक्रिया) को केवल सामग्री प्रसारण तक सीमित कर दें और उसके ग्रहणकर्ताओं (रिसेप्टर) को नजरअंदाज करें। लेकिन विकासशील देशों में, खासकर भारत में इंटरपर्सनल कम्यूनिकेशन के अलावा मास कम्यूनिकेशन का भी एक निर्णायक महत्व है। यह बात केवल स्वास्थ्य मुहिमें चलाने (एचआईवी एड्स) और नए आविष्‍कारों के प्रसार के बारे में ही नहीं, बल्कि राज्य के सभी नागरिकों से संबंधित विषयों के कम्यूनिकेशन के बारे में भी सच है। हमें यह सच्चाई स्वीकार करनी ही होगी कि लोकतंत्र, सामाजिक तथा आर्थिक न्याय, रा8ट्रीय एकीकरण, सामाजिक अनुशासन तथा आर्थिक प्रगति की विशेषताओं से संपन्न एक आधुनिक समाज का विकास जन माध्यमों को अपनाए बगैर संभव नहीं है। क्योंकि भारत जैसे विशाल ग्रामीण क्षेत्रों वाले समाज में केवल जन-माध्यम ही ग्रामवासियों तक सूचनाएं कम्यूनिकेट कर सकता है। एक कम्यूनिकेशन व्यवस्था ही इस बात को संभव कर पाती है कि ग्रामीण क्षेत्र की आबादियां स्वयं को निरंतर सूचना संपन्न बनाए रख सकें और अपनी राय जाहिर कर सकें। इसी से रा8ट्रीय अस्मिताएं निर्मित होती हैं तथा एक समाज सांस्कृतिक रूप से ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में विभाजित होने से बच सकता है।
यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है कि आधुनिकीकरण तथा विकास में तकनीकी प्रगति के अलावा लोकतंत्र की सफलता भी समाहित है, क्योंकि एक सफल लोकतंत्र में अधिकांशत: विरासत के आधार पर मिले पुराने सामाजिक ढांचे टूट जाते हैं। हमारे यहां राजे-महाराजे और सामंतों का युग अभी बहुत दूर नहीं गया है। लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण बात होती है - समाज के उन तबकों की राजनीतिक भागीदारी जो अब तक उससे बहि8कृत रखे गए थे, वंचित रखे गए थे। जाहिर है कि विकास का अर्थ अधिक मानवीय गरिमा, सुरक्षा, न्याय और समानता भी है। अगर हम अपनी विकास नीतियों को सफल मानते हैं तो इसका अर्थ यह होना चाहिए कि हमने समाज में मौजूद ठोस असमानताओं का उन्मूलन कर दिया, उनका खात्मा कर दिया। यानी सामाजिक समानता और न्याय। यहां समानता से मेरा अर्थ गरीबी की समानता नहीं, बल्कि सबसे बढ़कर अवसर की समानता है। हम जन-माध्यमों की सहायता से इस महत्वपूर्ण धारणा का व्यापक प्रसार कर सकते हैं कि समानता का अर्थ अवसर की समानता है। हमें इस बात को याद रखना होगा कि बुनियादी सामाजिक परिवर्तनों के दौर में जन माध्यमों का सबसे ज्यादा असर होता है। परिवर्तनों के ऐसे दौर में समाज के पारंपरिक मूल्य तथा संरचनाएं संक्रमण की हालत में होती हैं, और उनमें जन माध्यम बदलाव का रुख तय करने और नए विचार (समाज में सह-अस्तित्व के भावी लोकतांत्रिक स्वरूपों के बारे में) कम्यूनिकेट (संप्रेषित) करने में मददगार हो सकते हैं लेकिन इसकी शर्त यह है कि जन माध्यमों को अपनी विश्‍वसनीयता बनानी और कायम रखनी होगी।
जब हम जन माध्यमों की बात कर रहे हैं तो हमें ध्यान रखना होगा कि जन माध्यमों पर राज्य का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। जन माध्यमों पर कुछ शक्तिशाली लोगों या कंपनियों के नियंत्रण को भी लोकतंत्र के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है। जैसा कि आज हमारी राजधानी के कई अखबारों के साथ देखा जा रहा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ यह भी नहीं होना चाहिए कि अपने मतों का प्रसार करने का अवसर केवल कुछ शक्तिशाली लोगों या संगठनों तक सीमित होकर रह जाए। दरअसल प्रेस को सूचना प्रदान करने व जनमत तैयार करने के अलावा सरकार की आलोचना भी करनी चाहिए और सरकार पर अकुंश लगाए रखना चाहिए। अगर हम सूचना प्रवाह (इंफार्मेशन फ्लो) को नियंत्रित करते हैं तो समाज में अलोकतांत्रिक ढांचे बरकरार रहेंगे। यानी ऐसे ढांचे जिनमें मनु8य की गरिमा का सम्मान नहीं किया जाता और आबादी के साधनहीन तबकों को बेहतर जीवन की संभावनाओं का ज्ञान हासिल करने के अवसरों से वंचित रखा जाता है। सूचना का प्रवाह कम करने से एक और भी खतरा पैदा होता है। इसके लिए ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी पडेंग़ी जो तय करें कि कौन सी सूचनाएं 'घटायी' जाएं। और किन सूचनाओं का स्वरूप बदला जाए। सेंसरशिप को इसी का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।
आज की जरूरत यह है कि समाज के वंचित लोगों को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि वे तमाम तरह की सुविधाओं और संसाधनों से वंचित हैं और यह स्थिति अन्यायपूर्ण है; लेकिन उन्हें यह जानकारी भी होनी चाहिए कि इस हालत को समाप्त किया जा सकता है, ताकि वे अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए जरूरी उपाय करें। समाज को इस तरह की जानकारी देने के लिए कम्यूनिकेशन के जिस स्वरूप को आर्दश माना जाता है वह है विकास पत्रकारिता। एक आर्दश स्थिति में विकास पत्रकारिता को किसी राज्य की मैनेजमेंट को खतरे में डाले बगैर और शासन के अन्यायपूर्ण ढांचों को वैधता देने की कोशिशों में शामिल हुए बगैर जनता की जरूरतों के प्रति ध्यान देना चाहिए। विकास पत्रकारिता की इस धारणा का सर्वाधिक मुख्य बिंदु यह मूल्यवान मान्यता है कि प्रभावित लोगों को निर्णय करने, योजनाएं बनाने तथा विकास परियोजनाओं का क्रियान्वन करने की प्रक्रियाओं में अनिवार्य रूपसक्रिय भागीदार बनाया जाना चाहिए। इस उद्दे6य में सूचना के प्रसार के अलावा दो और महत्वपूर्ण कामों पर बल दिया जाता है: पहला है प्रभावितों या संबंधित लोगों को सक्रिय सहयोग के लिए उत्प्रेरित करना तथा और दूसरा है योजना-निर्माताओं यानि सरकार के मुकाबले उनके हितों की सक्रिय पैरवी करना।
यह बात भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में जनमुद़दों से जुड़े लोगों का संचार माध्‍यमों के प्रति रुझान बढ़ा है। ऐसा इसलिए हुआ है कि संचार माध्‍यमों ने आम भारतीय समाज में हो रही घटनाओं, प्रक्रियाओं और जमीनी स्‍तर पर काम कर रहे जनांदोलनों से जुड़े मुददों को सार्थक और विश्‍वसनीय ढंग से उठा पाने में नाकामी दिखाई है। यही कारण है कि जनांदोलनों और जन संगठनों के कार्यकर्ताओं ने संचार माध्‍यमों को अपने दायरे में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। एक समय था जब आंदोलन करने वाले आंदोलन करते थे और खबरें लिखने वाले वहां पहुंचकर खबरें लिखते थे, आज दुर्भाग्‍य से समय यह आ गया है कि आंदोलन करने वालों को आंदोलन के साथ-साथ खबरें भी लिखनी और अखबारों के कार्यालयों में पहुंचानी पड़ती हैं। खबरों की दुनिया के जादूगरों को आम आदमी के हितों को जानने- समझने के लिए अपने काम जमीन पर लगाने की कवायद नहीं करनी पड़ती। लेकिन इसका नुकसान यह हो रहा है कि जो लोग मीडिया का इस्‍तेमाल करना नहीं जानते उनके मुद़दे बेहद सीमित इलाके मे बंधे रह जाते हैं। उनकी सफलताएं, समस्‍याएं देश के बाकी हिस्‍से तक नहीं पहुंच पातीं। हमारा आराम तलब मीडिया छत्‍तीसगढ़, उड़ीसा, उत्‍तरप्रदेश और मध्‍यप्रदेश के ठेठ आदिवासी क्षेत्रों में राहुल गांधी के साथ जाता है और उन्‍हीं के साथ वापस भी आ जाता है। यह बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि आज पत्रकारिता महज वि‍ज्ञप्ति पत्रकारिता तक संकुचित होकर रह गई है।
हमें इससे बाहर निकलने का रास्‍ता ढूंढना ही होगा। मीडिया की केंद्रीय सत्ता का विकेंद्रीकरण बेहद जरूरी है। आज सत्ता के विकेंद्रीकरण की खूब बातें होती हैं, पंचायत तक सत्ता को बिखेर दिया गया है, लेकिन इस सत्ता पर अंकुश लगाने वाले, वॉच डाग का काम करने वाले मीडिया का केंद्रीकरण हुआ है। आखिर मीडिया को क्यों नहीं विकेंद्रित किया गया। अगर गांव की एक अनपढ़ आदिवासी सरपंच को पूरे गांव की हुकूमत दी जा सकती है तो वहीं के एक पढ़े-लिखे युवक या युवती को मीडिया का प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता। कारण साफ है। सूचना में बड़ी ताकत है। केंद्र से पंचायत तक सत्ता मीडिया को अपने साथ रखना चाहती है, जो लोग मीडिया से जुड़े हैं वे सत्ता को अपने साथ रखना चाहते हैं और इस गठजोड़ में मारी जाती है बेचारी जनता।
यह सच है कि आज मीडिया में सूचनाएं बढ़ी हैं लेकिन खबरें घटी हैं। अखबारों के पन्ने बढ़ें हैं, रंगीन हुए हैं पर आम लोगों की तस्वीर नदारद होती जा रही है। अखबारों की खबरें घटनाप्रधान हो गई हैं, रोज ब रोज हम भ्रष्‍टाचार, अपराध, घोटाले की खबरें विस्तार के साथ पढ़ते हैं, लेकिन इस प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार कारकों या कारणों का विश्‍लेषण करने की जिम्मेदारी मीडिया नहीं निभा रहा है। वह प्रक्रिया पर ध्यानहीं दे रहा। मीडिया ने अपने खर्चे बढ़ा लिए हैं, उसे पूरा करने के लिए वह विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर हो गया है, जाहिर है विज्ञापनों की बढ़ोतरी का सीधा असर खबरों की कटौती से जुड़ा है।
पिछले दिनों देश के सात राज्यों में हुए एक मीडिया सर्वेक्षण में योजना आयोग द्वारा घोषित 100 सर्वाधिक गरीब जिलों के नजरिए से यह देखने की कोशिश की गई कि जनमुद्दों खासकर गरीबी और विकास के संदर्भ में मीडिया की भूमिका क्या, कैसी और कितनी रही है। इसके नतीजे बेहद निराशाजनक रहे हैं। मोटे तौर पर यह जानकारी हासिल हुई है कि खबरों का पांच फीसदी हिस्सा ही गरीबी या विकास संबंधी सूचनाओं को मिलता है, वह भी नियमित तौर पर नहीं। इसमें एक जानकारी यह निकल कर आई कि विकास या गरीबी दूर करने के प्रयासों में लगे लोग लगभग नगण्य मामलों में ऐसे मुद्दों से जुड़ी खबरों के स्रोत के रूप में सामने आए। ऐसी ज्यादातर खबरों के लिए सरकारी स्रोत जिम्मेदार रहे। जाहिर है कि समाज की ओर से व्यवस्थित पहल नहीं हो रही है।
ऐसे में यह पहल जरूरी है कि लोगों में अपनी नियति के प्रति निष्क्रिय और स्वीकारवादी नजरिए को समाप्त करने की कोशिश की जाए। हमें याद रखना होगा कि यह नजरिया गरीबी से गहरा संबंध रखता है। निरंकुशतावाद को बढ़ावा देने वाला यह निष्‍िक्रय नजरिया इस दृष्‍िटकोण में दिखता है कि हम घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते और हमारा जीवन ईश्‍वर के हाथों में हैं। हमारे देश की ज्यादातर समस्याएं समाज की इसी मानसिकता का परिणाम है।
और अंत में समाज के वंचितों, गरीबों की बात। अगर हम उनके नजरिए से देखें तो इस निष्क्रिय, स्वीकारवादी नजरिए को समाप्त करने के संदर्भ में हमें उनकी भूमिका का विशेष उल्लेख करना होगा। अनेक समाजों में उन्हें अभी भी एक दूसरे दर्जे का मनुष्‍य मान उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। ऐसे में वे पत्रकार जो विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं या होना चाहते हैं, उनके लिए दोहरी चुनौती और अवसर हैंउन्हें खुद वर्तमान स्थिति से जूझते हुए वंचितों, गरीबों की सही हालत को जानना, समझना और बेहद प्रभावी ढंग से उस पर लिखना होगा साथ ही उनके लिए बेहतर अवसरों की तलाश कर जरूरतमंद अन्य गरीबों तक ऐसी जानकारियां पहुंचानी होंगी।

अमन नम्र