हिमाचल का दूरस्थ गांव ताबो, दोनों तरफ वीरान ऊंचे पहाड़ों के बीच हरियाली का बिंदु नजर आए तो समझिए ताबो आ गया।
Thursday, June 26, 2008
हिमाचल यात्रा की याद कुछ चित्रों के जरिए
कुछ समय पहले मैं पहाड़ के संपादक व जानेमाने लेखक, पत्रकार शेखर पाठक जी के साथ हिमाचल की यात्रा पर गया था। उस दौरान खींचे गए कुछ फोटो हाल ही में यहां-वहां से मिल गए। मुझे फोटोग्राफी पसंद है, इसीलिए इन्हें भी यहां पोस्ट कर रहा हूं। उम्मीद है मेरी नजर से यह हिमाचल दर्शन आपको भी रास आएगा।
सबसे दाएं शेखर पाठक, फिर मैं, बीच में आईटीबीपी के कमांडेंट, नाम याद नहीं जिन्होंने इस सफर में मेरी जबर्दस्त हौसला अफजाई की।
रोहतांग दर्रे से पहले एक झील के सामने पहाड़ का अद़भुत नजारा।
ये सफेद जंगल फूल हिमाचल के चट़टानी पहाड़ों के सफर में आंखों को बेहद राहत देते हैं।
बौध सदस्यों काजा के पास एक गुंफा के का सानिध्य
ये झुर्रियां बताती हैं कि उम्र के अनुभव कितने गहरे और मजबूत हैं।
Monday, June 23, 2008
पहले अस्मिता बन तो जाए
गुजरात की वेबसाइट http://gujaratindia.com/ पर जाइए, पांच करोड़ गुजरातियों के सम्मान के प्रतीक पुरुष मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस 'बिजनेट स्टेट' में आपका स्वागत करते मिलेंगे। सचमुच गुजरात आजकल बिजनेस में पूरी तरह लिप्त हो चुका है। यह व्यापार गुजरात की रगों में इस कदर दौड़ रहा है कि इसके मुनाफे को आंच न लगने देने के लिए राज्य के तमाम धृतराष्ट़ों ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं। मामला चाहे गोधरा हादसे के बाद 800 मुसलमानों को बर्बरतापूवेक मार डालने का हो या फिर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पहले विस्थापितों को बसाने के बारे में आमिर खान की प्रतिक्रिया पर गुजरात के राजनीतिक दलों द्वारा उनके खिलाफ की गई बयानबाजी नतीजे में उनकी फिल्म फना को राज्य में न दिखाए जाने की शूरवीरता हो अथवा अखबार के संपादक, रिपोर्टर के खिलाफ देशद्रोह के मुकदमे की बात हो, इन धृतराष्ट़ों ने आधुनिक महाभारत में न तो अपनी आंखें खोलीं और न ही जुबान।
सीधे सीधे मुद्दे पर आते हैं। अहमदाबाद से प्रकाशित अखबार टाइम्स आफ इंडिया के स्थानीय संपादक व रिपोर्टर के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया है क्योंकि राज्य के पुलिस महानिदेशक महोदय को इस बात पर ऐतराज था कि उनके कथित अंडरवर्ल्ड रिश्तों पर अखबार लगातार खबरें छापता जा रहा था। हालांकि इस मामले में अब एडीटर्स गिल्ड समेत देश भर के पत्रकारों के जबर्दस्त विरोध के बाद मामला कुछ शांत पड़ता नजर आ रहा है, लेकिन सच तो यह है कि गुजरात में असहिष्णुता की ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। पिछले साल भारतीय जनता युवा मोर्चा के सदस्यों ने राज्य के सिनेमाघरों में आमिर खान की फिल्म फना का प्रदर्शन नहीं होने देने के लिए मोर्चा बांधा था। कश्मीर के एक आतंकवादी के एक अंधी लड़की के प्रेम में पड़ने की यह फिल्म न तो उन्होंने देखी और न ही उनका इस फिल्म के गीत, संगीत, कहानी, निर्देशन या डायलागों से कोई विरोध था। यह तमाम कवायद केवल इसलिए क्योंकि इस फिल्म में आमिर खान थे। और आमिर खान में कुछ वक्त पहले दिल्ली में चल रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन के धरने में शिरकत कर यह कहा कि वे नर्मदा बांध के विस्थापितों के दुख दर्द में शामिल हैं और उनका मानना है कि बिना उनके बेहतर आवास, पुनर्वास की व्यवस्था किए बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ानी चाहिए। इस बयान से गुजरात के भाजपाइयों को मानों करंट लग गया हो, माननीय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा यह पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता के खिलाफ दिया गया बयान है। क्या नरेंद्र मोदी यह कहना चाहते थे कि पांच करोड़ गुजराती मध्यप्रदेश के कोई पौने दो लाख बांध प्रभावितों की कीमत पर पानी लेकर रहेंगे। क्या गुजरात के निवासी अपनी सुविधाओं के लिए दूसरों को जीने के हक तक से वंचित करने को तैयार हैं; निश्वित ही गांधी, पटेल, मोरारजी देसाई, नरहरि अमीन और अब 'बिजनेस स्टेट' के दौर में धीरूभाई अंबानी के गुजरात में कोई भी गुजराती यह मानने को तैयार नहीं होगा कि वे दूसरों के दुखों से अपने लिए सुख खरीदेंगे। फिर यह फना के प्रदर्शन और अभिव्यक्ति के अधिकार पर यह अंकुश क्यों।
सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री ने सरदार सरोवर की ऊंचाई न तो आमिर खान के कहने पर रोकी और न ही नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर के 20 दिन लंबे उपवास का उनपर कोई असर पड़ा। उसके बावजूद आमिर खान के बयान में आखिर ऐसा क्या था कि गुजरात में बवंडर खड़ा हो गया। क्या गुजरात भारतीय जनता युवा मोर्चा का बंधक बन गया। गुजरात के सिनेमाघरों के मालिकों का कहना था कि उनका आमिर खान के बयान से उतना लेना देना नहीं है जितना इस आशंका से कि अगर उन्होंने यह फिल्म राज्य के सिनेमाघरों में दिखाई तो जबर्दस्त तोड़फोड़ की जाएगी और उनका नुकसान होगा। क्या पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता के प्रवक्ता नरेंद्र मोदी के लिए यह चिंता का विशय नहीं है कि देश विदेश से भारी निवेश कर रहे उनके राज्य में मनोरंजन उद्योग की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। कल को यही स्थिति दूसरे उद्योगों की नहीं होगी, इस बात की आखिर वे क्या गारंटी दे सकते हैं। देश के विकसित राज्यों की सूची में अव्वल स्थानों पर रहने वाले गुजरात के पांच करोड़ लोगों का दिल आखिर उन आदिवासियों, गरीबों के लिए क्यों नहीं पिघलता जो गुजरात के विकास की कीमत अपनी जमीन, संस्कृति और परंपरा से चुका रहे हैं। हर किसी को खुद के लिए अर्जित की गई वस्तु की कीमत चुकानी पड़ती है। गुजरात के पांच करोड़ लोग अपने विकास की क्या कीमत चुका रहे हैं?
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सरदार सरोवर को देश के सवा अरब लोगों के लिए नहीं गुजरात के पांच करोड़ लोगों की अस्मिता का प्रतीक बताते हैं। अगर वे गुजरात को देश का अभिन्न हिस्सा मानते तो मध्यप्रदेश के डूब प्रभावितों की डूबती किस्मत को गुजरात के पांच करोड़ लोगों की अस्मिता पर कुर्बान न करते। अगर वे देश को गुजरात से ऊपर मानते तो आमिर खान की फिल्म का सबसे ज्यादा स्वागत गुजरात में करवाते। लेकिन अफसोस है कि बिजनेट स्टेट बनने की दौड़ में गुजरात मानवता, सौहार्दय, भाईचारा और सदाषयता जैसे जीवन मूल्यों को पीछे छोड़ता जा रहा है। हद तो यह है कि वे केंद्र को हाल ही में यह चुनौती भी दे बैठे कि गुजरात को उनसे किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं चाहिए, बशर्ते केंद्र गुजरात से साल भर तक किसी तरह का टैक्स ना ले। अगर केद्र-राज्य संबंधों की इस मोदी व्याख्या को थोड़ी और ढील दी जाए तो कश्मीर, मणिपुर, मिजोरम सरीखे उत्तरपूर्वी राज्यों में चल रहे अलगाववादियों के बयान और मोदी के बयान में ज्यादा मूलभूत अंतर नजर नहीं आएगा। लेकिन जरूरी नहीं है कि गुजरात के पांच करोड़ लोग ऐसे ही विचारों के हों। बहुत संभव है कि अभी भी बहुमत उनका हो जो गांधी, पटेल, मोरारजी या नरहरि अमीन के नाम पर आंखें न मूंद लेते हों, जरूरत है उनके मुखर होने की। वरना जो मुखर हो रहे हैं वही गुजरात के बारे में देश और दुनिया में यह संदेश देंगे कि गुजरात की संस्कृति अब बर्बर होती जा रही है, गुजरात अपने विरोध में कहा गया एक भी शब्द बर्दाश्त नहीं कर सकता, गुजरात दूसरों के विनाश की कीमत पर अपना विकास करने में कोई अपराधबोध नहीं महसूस करता, आदि आदि। क्या गुजरात की जनता इस अपमान को सहने के लिए तैयार है। निश्वित ही फैसला गुजरात की जनता को करना चाहिए कि वह लोकतंत्र में कुछ खास दलों की बंधक बनकर रहेगी या हिम्मत के साथ अपने विचारों के साथ आगे आकर कहेगी कि गुजरात की अस्मिता देश की अस्मिता में है और देश की अस्मिता इसमें है कि गुजरात सहित पूरे देष में अभिव्यक्ति की आजादी बनी रहे, विकास की प्रक्रिया न्यायपूर्ण और सहभागिता पर आधारित हो। ऐसा न होने की हालत में गुजरात और जम्मू कश्मीर के अलगाववादियों में कोई फर्क नहीं रह जाएगा जो अपने सम्मान और जिद के लिए भारत की इज्जत नहीं करते। और गुजरात के धृतराष्ट़ों को भी महाभारत में कौरवों की नियति भूलनी नहीं चाहिए।
Sunday, June 8, 2008
गांधी : व्यक्ति या विचार की एक परम्परा?
आचार्य राममूर्ति
गांधी नाम का जो व्यक्ति था वह वह आज से 60 वर्ष पहले समाप्त हो गया। उसे मार दिया गया। मारनेवाले की उससे कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। उसने यह मानकर मारा कि गांधी के विचारों से देश का अहित हो रहा है। सामान्य स्थिति में इस तरह का निर्णय कानून करता है, लेकिन गांधी के सम्बन्ध में यह निर्णय नाथूराम गोडसे और उसके साथियों ने कर लिया; बल्कि स्वयं वीर सावरकर ने किया। सच बात तो यह है कि गांधीजी की जब हत्या हुई तो वह एक ऐसे व्यक्ति थे जिनको करोड़ों भारतीय घृणा की दृष्टि से देखते थे। एक दिन उन्होंने अपने सचिव प्यारेलाल से कहा, 'प्यारेलाल, क्या तुम जानते हो कि वे मुझे शत्रु नम्बर एक मानते हैं।' वे यानी मुसलमान। हत्या की हिन्दू ने लेकिन हिन्दुओं से ज्यादा घृणा की मुसलमानों ने। कितनी विचित्र बात है कि जिस व्यक्ति ने कभी किसी को घृणा की दृष्टि से नहीं देखा उससे नफरत करनेवाले इतने अधिक लोग हो गये थे। यही हाल शायद अनेक महापुरुषों का रहा है। ईसा ने किससे नफरत की !
गांधी ने कहा था : ''बाहर मेरी आवाज बन्द हो जायेगी तो मैं अपनी कब्र से बोलूँगा।''
'गांधीजी को गये 60 वर्ष हो गये। क्या अब उनके कब्र से बोलने का समय आ गया है? पाकिस्तान से मित्रता की बातें चल रही हैं, चलती ही जा रही हैं। देश में कहीं कोई संकट पैदा होता है तो गांधीजी की याद आती है, जेपी की याद आती है। मन में सवाल उठता है कि इन गये बीते लोगों की याद क्यों आती है। अंग्रेजी राज को समाप्त हुए इतने वर्ष हो गये लेकिन अभी तक हम यह भी नहीं तय कर सके कि भारत में रहनेवाले हर आदमी का पेट कैसे भरेगा, तन कैसे ढंकेगा, हर बच्चे की पढ़ाई कैसे होगी, बीमार की दवा कैसे होगी, बाढ़ आयेगी तो क्या होगा, सूखा पड़ेगा तो क्या होगा। ख्याल होता है कि गांधी होते, जेपी होते तो कुछ सोच लेते। और बातों को छोड़ भी दें तो हमने अभी तक यह भी नहीं तय किया कि भारत के एक अरब से अधिक लोग साथ कैसे रहेंगे। क्यों कश्मीर से दूसरी तरह की आवाजें आती हैं। क्यों उत्तर-पूर्व से भारत से निकल जाने की बातें आती हैं।
अगर गांधीजी की हत्या नहीं हुई होती तो 08 और 09 फरवरी को गांधीजी पाकिस्तान गये होते। इसकी इजाजत गांधीजी ने स्वयं पाकिस्तान के गवर्नर जनरल कायदे आजम जिन्ना से ले ली थी । जिन्ना ने गांधी जी के जाने के विचार का स्वागत किया था। लेकिन यह कहा था कि पाकिस्तान का माहौल अच्छा नहीं है, इसलिए पाकिस्तान आने पर गांधीजी को पुलिस और सेना के संरक्षण में रहना पड़ेगा। लेकिन वे दिन नहीं आये और पाकिस्तान जाने के एक हफ्ता पहले ही गांधीजी दुनिया से विदा कर दिये गये। आज भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे से दोस्ती की बात कहते थक नहीं रहे हैं। क्या गांधीजी ने कब्र से बोलना शुरू कर दिया है ।
क्या कारण है कि आज तक देश की कोई भी समस्या हल नहीं हो पायी -न खाने की, न कपड़े की, न षिक्षा और स्वास्थ्य की, न शांति और पड़ोसीपन की। गांधीजी ने कहा था कि अगर हम अपनी आजादी को अच्छी तरह नहीं चला पायेंगे तो उसी जगह लौट जाना पड़ेगा जहाँ से हम आजादी के लिए निकले थे। क्या हम उस दिशा में तेजी के साथ बढ़ रहे हैं।
इतनी तरक्की तो हो गयी दिखाई देती है कि हमारे शहरों में दुनियाँ में कहीं बना हुआ अच्छा-से-अच्छा सामान मिल सकता है। अगर इसको तरक्की मानें तो कर्ज न दे सकने वाले खेतिहर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, भूख से लोग मर क्यों रहे हैं। क्यों एक-एक मर्द और औरत का हृदय निराशा और क्रोध से भरता जा रहा है। कारखाना खोलना हो तो विदेश की पूँजी की जरूरत हो सकती है लेकिन पड़ोसी के साथ शांतिपूर्वक रहना हो तो उसके लिए किस पूँजी की जरूरत है। इसी तरह अगर घर-घर में छोटे उद्योग चलाने हों तो विदेश से कर्ज लेने या विश्व बैंक से पूँजी माँगने की जरूरत क्यों होनी चाहिए।
भारत आज तक यह नहीं तय कर सका कि उसको आगे जाने के लिए किस रास्ते पर चलना है। क्या हम अमेरिका के रास्ते पर चलना चाहते हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और शक्तिषाली देश है लेकिन दुनियाँ को आतंक से मुक्त करने के लिए सारी मनुष्य जाति को अपने आतंक में रखना चाहता है। कहा जाता है कि बीसवीं शताब्दी सबसे वैज्ञानिक शताब्दी थी लेकिन जो शताब्दी बीती और नयी शताब्दी के पांच वर्ष बीत रहे हैं यह समय इतिहास में सबसे अधिक खूनी सिध्द हुआ है। भारत की आजादी भी खूनी सिध्द हुई क्योंकि करोड़ों लोगों के दिलों में जो गुस्सा भरा हुआ था वह अचानक खून बनकर निकल पड़ा। दिखाई यह देता है कि हमारी हर समस्या गुस्सा पैदा करती है और उसके बाद खून की शक्ल लेकर प्रकट होती है। पहले क्रोध, फिर खून, यही क्रम चलता जा रहा है। हमने राजनीति ऐसी बनायी जो क्रोध और घृणा के सिवाय दूसरा कुछ जानती ही नहीं है। दिल्लीराज, पटनाराज के बाद पंचायतीराज कायम हुआ लेकिन वहाँ भी क्रोध और खून का वही सिलसिला। पंचायतीराज पड़ोस में पड़ोस का राज है। लेकिन दृश्य कुछ दूसरा ही दिखाई दे रहा है ।
इतने अधिक राजनैतिक दल, इतनी अधिक संस्थाएँ और इतनी बड़ी नौकरशाही - लगता है जैसे हर तीसरा चौथा आदमी देश को बनाने में ही लगा हुआ है लेकिन देश है कि बनने का नाम नहीं लेता। जीवन क्रोध, घृणा और खून से भरता जा रहा है। गांधी की आवाज, अभी धीमी आवाज, कब्र से कह रही है कि यह रास्ता छोड़ो और सत्य तथा शांति का रास्ता पकड़ो। यही बात वेद, उपनिषद और गीता ने कही, विनोबा और जेपी ने कही। कहनेवाले कहते जा रहे हैं लेकिन हम सुनते नहीं। क्या आवाजें अभी बहुत धीमी हैं ?
आजादी ने हमारी मर्जी का बहुत-सा काम भले ही न किया हो, एक काम कर दिया है, वह यह है कि हम आगे का अपना रास्ता चुन लेने के लिए स्वतंत्र हैं। मार्क्स, लेनिन या माओ हों, गांधी, विनोबा या जेपी हों सबके विचार हमारे पास हैं। हम जिसको चाहें स्वीकार करें या जिसको न चाहें उसको छोड़ दें। अपना नया रास्ता खुद निकालें। लेकिन इतनी बात तो तय है कि भारत को नया बनना है। समस्याओं के बोझ से दबा हुआ भारत चल नहीं सकता। हम कितनी भी नयी बातें सोचें लेकिन क्या हम महापुरुषों के बताये हुए सत्य को छोड़ देने का जोखिम उठायेंगे। हजारों वर्ष पुराने इस देश को एक नयी विशेष शैली चाहिए जिसमें ऋषियों के सोचे हुए मूल्य हों तो आधुनिक वैज्ञानिकों की बनायी हुई तकनीक हो। दोनों के समन्वय से विकसित एक नयी जीवन शैली निकालने का काम भारत को करना ही पड़ेगा। वह नयी जीवन शैली असत्य और हिंसा के आधार पर नहीं चलेगी। हम सत्य को छोड़ दें तो विज्ञान छूट जायेगा और अगर हिंसा का रास्ता पकड़ लें तो हम मनुष्य रह ही नहीं जायेंगे। जेपी ने तीस वर्ष हुए यह बताया कि परिवर्तन का पहला चरण कम-से-कम लोकतंत्र की मर्यादाओं को तो मानें और फिर धीरे-धीरे एक नैतिक समाज-रचना की तरफ बढ़ें। लोकतांत्रिक समाज खूनी समाज नहीं होता, हिंसा-मुक्त होता है। एक बार खून को अलग रखकर सोचने की आदत डालनी पड़ेगी। बुध्द ने कहा था, 'मिलो, बात करो और सहमति विकसित करो'। काम की योजना सहमति के आधार पर बने, सत्ताा पक्ष और विपक्ष के आधार पर नहीं। गांधी ने 'सर्व' की बात कही, 'कुछ' की नहीं। यदि सर्व का हित सामने रखना है तो सत्ता और स्वामित्व, दोनों का आग्रह छोड़ना पड़ेगा और जीवन को संपूर्णता में देखना पड़ेगा। मनुष्य चाँद और सूरज तक पहुँच गया है। पृथ्वी पर जीने की सीमाओं को लांघकर अब वह सृष्टि का सदस्य बन रहा है। सृष्टि में जीनेवाला मनुष्य कब तक पृथ्वी की सीमाओं को ढोयेगा। घृणा और असत्य की सीमाओं से उसे आगे बढ़ना ही है। ईसा, बुध्द, महावीर और मुहम्मद की परम्परा में जीनेवाले भारतवासियों ने गांधी, विनोबा और जेपी की परंपरा भी देखी है। अब समय आ गया है कि दुनिया के शुभ तत्वों को जोड़कर एक नयी भारतीय जीवन शैली विकसित की जाये। जीवन की सम्पूर्ण क्रांति युग की पुकार है।
गांधी नाम का जो व्यक्ति था वह वह आज से 60 वर्ष पहले समाप्त हो गया। उसे मार दिया गया। मारनेवाले की उससे कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। उसने यह मानकर मारा कि गांधी के विचारों से देश का अहित हो रहा है। सामान्य स्थिति में इस तरह का निर्णय कानून करता है, लेकिन गांधी के सम्बन्ध में यह निर्णय नाथूराम गोडसे और उसके साथियों ने कर लिया; बल्कि स्वयं वीर सावरकर ने किया। सच बात तो यह है कि गांधीजी की जब हत्या हुई तो वह एक ऐसे व्यक्ति थे जिनको करोड़ों भारतीय घृणा की दृष्टि से देखते थे। एक दिन उन्होंने अपने सचिव प्यारेलाल से कहा, 'प्यारेलाल, क्या तुम जानते हो कि वे मुझे शत्रु नम्बर एक मानते हैं।' वे यानी मुसलमान। हत्या की हिन्दू ने लेकिन हिन्दुओं से ज्यादा घृणा की मुसलमानों ने। कितनी विचित्र बात है कि जिस व्यक्ति ने कभी किसी को घृणा की दृष्टि से नहीं देखा उससे नफरत करनेवाले इतने अधिक लोग हो गये थे। यही हाल शायद अनेक महापुरुषों का रहा है। ईसा ने किससे नफरत की !
गांधी ने कहा था : ''बाहर मेरी आवाज बन्द हो जायेगी तो मैं अपनी कब्र से बोलूँगा।''
'गांधीजी को गये 60 वर्ष हो गये। क्या अब उनके कब्र से बोलने का समय आ गया है? पाकिस्तान से मित्रता की बातें चल रही हैं, चलती ही जा रही हैं। देश में कहीं कोई संकट पैदा होता है तो गांधीजी की याद आती है, जेपी की याद आती है। मन में सवाल उठता है कि इन गये बीते लोगों की याद क्यों आती है। अंग्रेजी राज को समाप्त हुए इतने वर्ष हो गये लेकिन अभी तक हम यह भी नहीं तय कर सके कि भारत में रहनेवाले हर आदमी का पेट कैसे भरेगा, तन कैसे ढंकेगा, हर बच्चे की पढ़ाई कैसे होगी, बीमार की दवा कैसे होगी, बाढ़ आयेगी तो क्या होगा, सूखा पड़ेगा तो क्या होगा। ख्याल होता है कि गांधी होते, जेपी होते तो कुछ सोच लेते। और बातों को छोड़ भी दें तो हमने अभी तक यह भी नहीं तय किया कि भारत के एक अरब से अधिक लोग साथ कैसे रहेंगे। क्यों कश्मीर से दूसरी तरह की आवाजें आती हैं। क्यों उत्तर-पूर्व से भारत से निकल जाने की बातें आती हैं।
अगर गांधीजी की हत्या नहीं हुई होती तो 08 और 09 फरवरी को गांधीजी पाकिस्तान गये होते। इसकी इजाजत गांधीजी ने स्वयं पाकिस्तान के गवर्नर जनरल कायदे आजम जिन्ना से ले ली थी । जिन्ना ने गांधी जी के जाने के विचार का स्वागत किया था। लेकिन यह कहा था कि पाकिस्तान का माहौल अच्छा नहीं है, इसलिए पाकिस्तान आने पर गांधीजी को पुलिस और सेना के संरक्षण में रहना पड़ेगा। लेकिन वे दिन नहीं आये और पाकिस्तान जाने के एक हफ्ता पहले ही गांधीजी दुनिया से विदा कर दिये गये। आज भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे से दोस्ती की बात कहते थक नहीं रहे हैं। क्या गांधीजी ने कब्र से बोलना शुरू कर दिया है ।
क्या कारण है कि आज तक देश की कोई भी समस्या हल नहीं हो पायी -न खाने की, न कपड़े की, न षिक्षा और स्वास्थ्य की, न शांति और पड़ोसीपन की। गांधीजी ने कहा था कि अगर हम अपनी आजादी को अच्छी तरह नहीं चला पायेंगे तो उसी जगह लौट जाना पड़ेगा जहाँ से हम आजादी के लिए निकले थे। क्या हम उस दिशा में तेजी के साथ बढ़ रहे हैं।
इतनी तरक्की तो हो गयी दिखाई देती है कि हमारे शहरों में दुनियाँ में कहीं बना हुआ अच्छा-से-अच्छा सामान मिल सकता है। अगर इसको तरक्की मानें तो कर्ज न दे सकने वाले खेतिहर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, भूख से लोग मर क्यों रहे हैं। क्यों एक-एक मर्द और औरत का हृदय निराशा और क्रोध से भरता जा रहा है। कारखाना खोलना हो तो विदेश की पूँजी की जरूरत हो सकती है लेकिन पड़ोसी के साथ शांतिपूर्वक रहना हो तो उसके लिए किस पूँजी की जरूरत है। इसी तरह अगर घर-घर में छोटे उद्योग चलाने हों तो विदेश से कर्ज लेने या विश्व बैंक से पूँजी माँगने की जरूरत क्यों होनी चाहिए।
भारत आज तक यह नहीं तय कर सका कि उसको आगे जाने के लिए किस रास्ते पर चलना है। क्या हम अमेरिका के रास्ते पर चलना चाहते हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और शक्तिषाली देश है लेकिन दुनियाँ को आतंक से मुक्त करने के लिए सारी मनुष्य जाति को अपने आतंक में रखना चाहता है। कहा जाता है कि बीसवीं शताब्दी सबसे वैज्ञानिक शताब्दी थी लेकिन जो शताब्दी बीती और नयी शताब्दी के पांच वर्ष बीत रहे हैं यह समय इतिहास में सबसे अधिक खूनी सिध्द हुआ है। भारत की आजादी भी खूनी सिध्द हुई क्योंकि करोड़ों लोगों के दिलों में जो गुस्सा भरा हुआ था वह अचानक खून बनकर निकल पड़ा। दिखाई यह देता है कि हमारी हर समस्या गुस्सा पैदा करती है और उसके बाद खून की शक्ल लेकर प्रकट होती है। पहले क्रोध, फिर खून, यही क्रम चलता जा रहा है। हमने राजनीति ऐसी बनायी जो क्रोध और घृणा के सिवाय दूसरा कुछ जानती ही नहीं है। दिल्लीराज, पटनाराज के बाद पंचायतीराज कायम हुआ लेकिन वहाँ भी क्रोध और खून का वही सिलसिला। पंचायतीराज पड़ोस में पड़ोस का राज है। लेकिन दृश्य कुछ दूसरा ही दिखाई दे रहा है ।
इतने अधिक राजनैतिक दल, इतनी अधिक संस्थाएँ और इतनी बड़ी नौकरशाही - लगता है जैसे हर तीसरा चौथा आदमी देश को बनाने में ही लगा हुआ है लेकिन देश है कि बनने का नाम नहीं लेता। जीवन क्रोध, घृणा और खून से भरता जा रहा है। गांधी की आवाज, अभी धीमी आवाज, कब्र से कह रही है कि यह रास्ता छोड़ो और सत्य तथा शांति का रास्ता पकड़ो। यही बात वेद, उपनिषद और गीता ने कही, विनोबा और जेपी ने कही। कहनेवाले कहते जा रहे हैं लेकिन हम सुनते नहीं। क्या आवाजें अभी बहुत धीमी हैं ?
आजादी ने हमारी मर्जी का बहुत-सा काम भले ही न किया हो, एक काम कर दिया है, वह यह है कि हम आगे का अपना रास्ता चुन लेने के लिए स्वतंत्र हैं। मार्क्स, लेनिन या माओ हों, गांधी, विनोबा या जेपी हों सबके विचार हमारे पास हैं। हम जिसको चाहें स्वीकार करें या जिसको न चाहें उसको छोड़ दें। अपना नया रास्ता खुद निकालें। लेकिन इतनी बात तो तय है कि भारत को नया बनना है। समस्याओं के बोझ से दबा हुआ भारत चल नहीं सकता। हम कितनी भी नयी बातें सोचें लेकिन क्या हम महापुरुषों के बताये हुए सत्य को छोड़ देने का जोखिम उठायेंगे। हजारों वर्ष पुराने इस देश को एक नयी विशेष शैली चाहिए जिसमें ऋषियों के सोचे हुए मूल्य हों तो आधुनिक वैज्ञानिकों की बनायी हुई तकनीक हो। दोनों के समन्वय से विकसित एक नयी जीवन शैली निकालने का काम भारत को करना ही पड़ेगा। वह नयी जीवन शैली असत्य और हिंसा के आधार पर नहीं चलेगी। हम सत्य को छोड़ दें तो विज्ञान छूट जायेगा और अगर हिंसा का रास्ता पकड़ लें तो हम मनुष्य रह ही नहीं जायेंगे। जेपी ने तीस वर्ष हुए यह बताया कि परिवर्तन का पहला चरण कम-से-कम लोकतंत्र की मर्यादाओं को तो मानें और फिर धीरे-धीरे एक नैतिक समाज-रचना की तरफ बढ़ें। लोकतांत्रिक समाज खूनी समाज नहीं होता, हिंसा-मुक्त होता है। एक बार खून को अलग रखकर सोचने की आदत डालनी पड़ेगी। बुध्द ने कहा था, 'मिलो, बात करो और सहमति विकसित करो'। काम की योजना सहमति के आधार पर बने, सत्ताा पक्ष और विपक्ष के आधार पर नहीं। गांधी ने 'सर्व' की बात कही, 'कुछ' की नहीं। यदि सर्व का हित सामने रखना है तो सत्ता और स्वामित्व, दोनों का आग्रह छोड़ना पड़ेगा और जीवन को संपूर्णता में देखना पड़ेगा। मनुष्य चाँद और सूरज तक पहुँच गया है। पृथ्वी पर जीने की सीमाओं को लांघकर अब वह सृष्टि का सदस्य बन रहा है। सृष्टि में जीनेवाला मनुष्य कब तक पृथ्वी की सीमाओं को ढोयेगा। घृणा और असत्य की सीमाओं से उसे आगे बढ़ना ही है। ईसा, बुध्द, महावीर और मुहम्मद की परम्परा में जीनेवाले भारतवासियों ने गांधी, विनोबा और जेपी की परंपरा भी देखी है। अब समय आ गया है कि दुनिया के शुभ तत्वों को जोड़कर एक नयी भारतीय जीवन शैली विकसित की जाये। जीवन की सम्पूर्ण क्रांति युग की पुकार है।
Wednesday, June 4, 2008
परंपरा का पानी
आज पर्यावरण दिवस है। दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग से लेकर जल संरक्षण तक तमाम बहस-मुबाहिसे और तकरीरें होंगी। मैं इस मौके पर अपनी नेपाल यात्रा के दौरान हुए ऐसे अनुभव को बांटना चाहता हूं जो समस्या पर बात करने से ज्यादा समस्या के समाधान के मौके तलाशने का अवसर देता है। हमारे यहां पानी के बंटवारे को लेकर अक्सर नल-टंटों से लेकर गांव-शहरों और राज्यों के बीच तक झगड़े होते रहते हैं। कई बार तो गली-मोहल्लों या खेतों में इसी वजह से लोगों की जान भी चली जाती है। लेकिन हमारे पड़ोसी देश नेपाल में पानी के बंटवारे को लेकर पिछले डेढ़ सौ सालों से एक ऐसी परंपरा चली आ रही है जो न केवल लोगों के आपसी भाईचारे को बढ़ाती है बल्कि उनकी जरूरतों के मुताबिक पानी का सही बंटवारा भी करती है। 'छत्तीस मौजा कूलो' के नाम से जानी जाती यह परंपरा नेपाल के तराई में बसे रूपनदेही जिले में आज भी जारी है। संभवत: पानी के मुद्दे पर तीसरे विश्व युध्द की आशंका वाले वर्तमान युग में इस क्षेत्र में पानी का इतना शांत और न्यायोचित वितरण इस लिए हो पाता है कि दुनिया भर में शांति का संदेश देने वाले गौतम बुध्द का जन्म स्थल 'लुंबिनी' यहां से महज 30 किलोमीटर दूर है।
गौरतलब है कि यहां मौजा का अर्थ है गांव, जबकि कूलो नहर को कहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि छत्तीस मौजा कूलो से यहां के 36 गांवों में तिनाऊ नदी का पानी पहुंचाया जाता है। हालांकि यह परंपरा छत्तीस मौजा कूलो के नाम से दुनिया भर में मशहूर है लेकिन दरअसल यहां पानी के बंटवारे की दो परंपराएं एक साथ काम करती हैं। पहली छत्तीस समौजा तथा दूसरी सोलहमौजा कूलो। यानी पहली से 36 गांवों तक पानी पहुंचता है तो दूसरी से 16 गांवों तक। अब, आबादी बढ़ने व गांवों के पुनर्गठन होने के कारण पहली से 59 गांवों में, जबकि दूसरी से 33 गांवों में पानी पहुंचता है। दोनों से कुल मिलाकर तकरीबन 6000 हैक्टेयर क्षेत्र में पानी का इस्तेमाल होता है। अगर आबादी के नजरिए से देखें तो लाभान्वितों की संख्या 53000 परिवारों तक पहुंचती है। इस व्यवस्था की खास बात यह है कि इसकी कल्पना करने, इसे लागू करने और अब तक कायम बनाए रखने में सरकार की कभी कोई भूमिका नहीं रही। यह तो यहां के समाज की एकता, समझ और दूरदर्शिता थी जो आज भी बदस्तूर जारी है।
यहां आने वाला सारा पानी तिनाऊ नदी से नहर के जरिए लाया जाता है। यह नहर डेढ़ सौ साल पहले सामूहिक श्रम के जरिए बनाई गई थी। नदी से कुछ दूर जाकर नहर पूरब व पश्चिम की नहर में बंट जाती है। पूरब की नहर छत्तीस मौजा कूला कहलाती है जबकि पश्चिम की सोलहमौजा कूलो। खास बात यह है कि आज भी हर साल तिनाऊ से हर गांव तक नहर की सफाई का सारा जिम्मा समाज का है। बारिश के ठीक पहले इस नहर में हजारों की संख्या में सफाई करने वाले किसानों को देखने का नजारा ही कुछ और होता है। छत्तीस मौजा कूलो समिति तथा मणिग्राम ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक बताते हैं कि हर साल यहां की जनता नहर के लिए 50 लाख रुपयों के बराबर का श्रमदान करती है। खास बात यह है कि समिति के सदस्य जिसमें हर गांव के लोगों की भागीदारी होती है बेहद वैज्ञानिक ढंग से यह तय करते हैं कि किस मौसम में किस गांव को कितना पानी दिया जाएगा और हर गांव के खेत के आकार के मुताबिक उसके मालिक के परिवार के कितने सदस्य नहर की सफाई के काम में हाथ बंटाएंगे। मसलन अगर किसी गांव में एक किसान के पास कम जमीन है तो लाजिम है कि वह नहर का पानी कम इस्तेमाल करता है, इसलिए जब नहर में सफाई होती है तो उसके परिवार से उसी अनुपात में लोगों को भागीदारी के लिए जाना होगा। लेकिन ऐसा हमेषा नहीं होता। यहां जरूरत के मुताबिक हर परिवार से लोगों की संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। इस परंपरा में सावी, झरुआ व करधाने के नाम से तीन तरह की स्थितियां मानी गई हैं। सावी का अर्थ है कि नहर की सफाई के काम में हर घर से एक आदमी काम पर जाएगा। जबकि झरुआ में हर घर से दो आदमी जाएंगे। लेकिन करधाने जो एक तरह से आपात की स्थिति मानी जाती है, में हर घर से सभी सदस्य, मुख्यत: पुरुषों को नहर की सफाई के काम में जुटना पड़ता है।
गौरतलब है कि इस नहर के पानी के लिए किसी किसान को कर नहीं देना पड़ता। पंचायत का मानना है कि जनता खुद मेहनत कर नहर को साफ रखती है इसलिए उससे किसी तरह का कर नहीं लिया जाएगा। लेकिन अनुषासन का पालन भी तो होना चाहिए। इसके लिए लोगों ने नियम भी बनाए हुए हैं। अगर कोई किसान पानी की चोरी करता पकड़ा जाता है कि उस पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। दुबारा पकड़े जाने पर जुर्माने की राशि बढ़ जाती है। इसी तरह नहर सफाई के काम में बारी के बावजूद न जाने पर 75 रुपए जुर्माना लगाया जाता है। इस परंपरा से जुड़े 92 गांवों के 92 लोग छत्तीस मौजा कुलो समिति के सदस्य हैं, जबकि पांच आमंत्रित होते हैं। इस तरह कुल 97 लोग समिति में होते हैं। जबकि करीब 500 लोग समिति की आम सभा के सदस्य होते हैं। यहां किसी भी तरह का फैेसला पूर्णत: लोकतांत्रिक तरीके से सबकी सहमति के बाद ही किया जाता है। बुटवल नगरपालिका के इस मणिग्राम पंचायत के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक की षिकायत है कि सरकार इस परंपरा के संरक्षण के लिए कोई मदद नहीं कर रही। बहरहाल सैकड़ों वर्श पुरानी परंपरा बचाने वाली मणिग्राम पंचायत की स्थिति पर भी एक नजर डालनी जरूरी है, ताकि परंपरा और आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादी इकाई का तालमेल देखा जा सके।
मणिग्राम ग्राम विकास समिति का सालाना विकास बजट है, 86 लाख रुपए। इसमें सरकार का योगदान है 4,82000 रुपए का। निश्चित ही यह हैरान करने वाली बात है कि बाकी पैसे कहां से आते होंगे। समिति ने गांव के विकास के लिए तरह-तरह के कर लगा रखे हैं। मसलन तिनाऊ नदी के किनारे से बालू ले जाने पर कर, गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार का कर, आस-पास लगे छोटे उद्योगों से सालाना कर, किसानों से भूमि कर, घरों से 20 रु. की दर से कर जो हर मंजिल के अनुसार दुगना होता जाता है। यहां मोटर साइकिल पर 25 रु. जबकि साइकिल पर 2 रु. की दर से कर वसूला जाता है। इसी तरह रंगीन टेलीविजन पर 25 रु. तथा श्वेत श्याम टीवी पर 20 रु. कर की दर है। अब जरा उन लोगों पर एक नजर डाली जाए जो इस गांव से निकलकर दुनिया के कोने-कोने में बसे हुए हैं। यहां से भारत आने वालों की संख्या है 300, जबकि 79 हांगकांग में काम कर रहे हैं, 43 लोगों ने इंग्लैंड का रुख किया है तो जर्मनी जाने वालों की संख्या महज 9 है। जबकि 56 लोग सउदी अरब में नौकरी कर रहे हैं और 29 दक्षिण कोरिया में। जाहिर है कि नेपाल की तराई में बसा यह गांव आधुनिकता और परंपरा का अद्भुत मेल है। आज के उपभोक्तावाद के दौर में जहां लोग फैशन और आधुनिकता के चक्कर में अपनी परंपरा भूलते जा रहे हैं, मणिग्राम इन दोनों के बीच जबरदस्त सामंजस्य बिठाकर गांव का विकास कर रहा है। आज भले ही नेपाल राजशाही से हटकर साम्यवादियों के हाथों में चला गया हो पर निश्चित ही ऐसे प्रयोगों को और जगहों पर दुहराने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता।
गौरतलब है कि यहां मौजा का अर्थ है गांव, जबकि कूलो नहर को कहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि छत्तीस मौजा कूलो से यहां के 36 गांवों में तिनाऊ नदी का पानी पहुंचाया जाता है। हालांकि यह परंपरा छत्तीस मौजा कूलो के नाम से दुनिया भर में मशहूर है लेकिन दरअसल यहां पानी के बंटवारे की दो परंपराएं एक साथ काम करती हैं। पहली छत्तीस समौजा तथा दूसरी सोलहमौजा कूलो। यानी पहली से 36 गांवों तक पानी पहुंचता है तो दूसरी से 16 गांवों तक। अब, आबादी बढ़ने व गांवों के पुनर्गठन होने के कारण पहली से 59 गांवों में, जबकि दूसरी से 33 गांवों में पानी पहुंचता है। दोनों से कुल मिलाकर तकरीबन 6000 हैक्टेयर क्षेत्र में पानी का इस्तेमाल होता है। अगर आबादी के नजरिए से देखें तो लाभान्वितों की संख्या 53000 परिवारों तक पहुंचती है। इस व्यवस्था की खास बात यह है कि इसकी कल्पना करने, इसे लागू करने और अब तक कायम बनाए रखने में सरकार की कभी कोई भूमिका नहीं रही। यह तो यहां के समाज की एकता, समझ और दूरदर्शिता थी जो आज भी बदस्तूर जारी है।
यहां आने वाला सारा पानी तिनाऊ नदी से नहर के जरिए लाया जाता है। यह नहर डेढ़ सौ साल पहले सामूहिक श्रम के जरिए बनाई गई थी। नदी से कुछ दूर जाकर नहर पूरब व पश्चिम की नहर में बंट जाती है। पूरब की नहर छत्तीस मौजा कूला कहलाती है जबकि पश्चिम की सोलहमौजा कूलो। खास बात यह है कि आज भी हर साल तिनाऊ से हर गांव तक नहर की सफाई का सारा जिम्मा समाज का है। बारिश के ठीक पहले इस नहर में हजारों की संख्या में सफाई करने वाले किसानों को देखने का नजारा ही कुछ और होता है। छत्तीस मौजा कूलो समिति तथा मणिग्राम ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक बताते हैं कि हर साल यहां की जनता नहर के लिए 50 लाख रुपयों के बराबर का श्रमदान करती है। खास बात यह है कि समिति के सदस्य जिसमें हर गांव के लोगों की भागीदारी होती है बेहद वैज्ञानिक ढंग से यह तय करते हैं कि किस मौसम में किस गांव को कितना पानी दिया जाएगा और हर गांव के खेत के आकार के मुताबिक उसके मालिक के परिवार के कितने सदस्य नहर की सफाई के काम में हाथ बंटाएंगे। मसलन अगर किसी गांव में एक किसान के पास कम जमीन है तो लाजिम है कि वह नहर का पानी कम इस्तेमाल करता है, इसलिए जब नहर में सफाई होती है तो उसके परिवार से उसी अनुपात में लोगों को भागीदारी के लिए जाना होगा। लेकिन ऐसा हमेषा नहीं होता। यहां जरूरत के मुताबिक हर परिवार से लोगों की संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। इस परंपरा में सावी, झरुआ व करधाने के नाम से तीन तरह की स्थितियां मानी गई हैं। सावी का अर्थ है कि नहर की सफाई के काम में हर घर से एक आदमी काम पर जाएगा। जबकि झरुआ में हर घर से दो आदमी जाएंगे। लेकिन करधाने जो एक तरह से आपात की स्थिति मानी जाती है, में हर घर से सभी सदस्य, मुख्यत: पुरुषों को नहर की सफाई के काम में जुटना पड़ता है।
गौरतलब है कि इस नहर के पानी के लिए किसी किसान को कर नहीं देना पड़ता। पंचायत का मानना है कि जनता खुद मेहनत कर नहर को साफ रखती है इसलिए उससे किसी तरह का कर नहीं लिया जाएगा। लेकिन अनुषासन का पालन भी तो होना चाहिए। इसके लिए लोगों ने नियम भी बनाए हुए हैं। अगर कोई किसान पानी की चोरी करता पकड़ा जाता है कि उस पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। दुबारा पकड़े जाने पर जुर्माने की राशि बढ़ जाती है। इसी तरह नहर सफाई के काम में बारी के बावजूद न जाने पर 75 रुपए जुर्माना लगाया जाता है। इस परंपरा से जुड़े 92 गांवों के 92 लोग छत्तीस मौजा कुलो समिति के सदस्य हैं, जबकि पांच आमंत्रित होते हैं। इस तरह कुल 97 लोग समिति में होते हैं। जबकि करीब 500 लोग समिति की आम सभा के सदस्य होते हैं। यहां किसी भी तरह का फैेसला पूर्णत: लोकतांत्रिक तरीके से सबकी सहमति के बाद ही किया जाता है। बुटवल नगरपालिका के इस मणिग्राम पंचायत के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक की षिकायत है कि सरकार इस परंपरा के संरक्षण के लिए कोई मदद नहीं कर रही। बहरहाल सैकड़ों वर्श पुरानी परंपरा बचाने वाली मणिग्राम पंचायत की स्थिति पर भी एक नजर डालनी जरूरी है, ताकि परंपरा और आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादी इकाई का तालमेल देखा जा सके।
मणिग्राम ग्राम विकास समिति का सालाना विकास बजट है, 86 लाख रुपए। इसमें सरकार का योगदान है 4,82000 रुपए का। निश्चित ही यह हैरान करने वाली बात है कि बाकी पैसे कहां से आते होंगे। समिति ने गांव के विकास के लिए तरह-तरह के कर लगा रखे हैं। मसलन तिनाऊ नदी के किनारे से बालू ले जाने पर कर, गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार का कर, आस-पास लगे छोटे उद्योगों से सालाना कर, किसानों से भूमि कर, घरों से 20 रु. की दर से कर जो हर मंजिल के अनुसार दुगना होता जाता है। यहां मोटर साइकिल पर 25 रु. जबकि साइकिल पर 2 रु. की दर से कर वसूला जाता है। इसी तरह रंगीन टेलीविजन पर 25 रु. तथा श्वेत श्याम टीवी पर 20 रु. कर की दर है। अब जरा उन लोगों पर एक नजर डाली जाए जो इस गांव से निकलकर दुनिया के कोने-कोने में बसे हुए हैं। यहां से भारत आने वालों की संख्या है 300, जबकि 79 हांगकांग में काम कर रहे हैं, 43 लोगों ने इंग्लैंड का रुख किया है तो जर्मनी जाने वालों की संख्या महज 9 है। जबकि 56 लोग सउदी अरब में नौकरी कर रहे हैं और 29 दक्षिण कोरिया में। जाहिर है कि नेपाल की तराई में बसा यह गांव आधुनिकता और परंपरा का अद्भुत मेल है। आज के उपभोक्तावाद के दौर में जहां लोग फैशन और आधुनिकता के चक्कर में अपनी परंपरा भूलते जा रहे हैं, मणिग्राम इन दोनों के बीच जबरदस्त सामंजस्य बिठाकर गांव का विकास कर रहा है। आज भले ही नेपाल राजशाही से हटकर साम्यवादियों के हाथों में चला गया हो पर निश्चित ही ऐसे प्रयोगों को और जगहों पर दुहराने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता।
Sunday, June 1, 2008
हाशिए के स्वर
उजाला छड़ी, खबर लहरिया, अपना पन्ना, दिशा संवाद, गांव सभा, गांव की बात, कलम, पंचतंत्र यह सूची काफी लंबी है। ये नाम हैं उन कुछ प्रकाशनों के, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में वैकल्पिक मीडिया के रूप में लंबे समय से सफलतापूर्वक सूचना देने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं। मुख्यधारा मीडिया खासकर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में आए क्रांतिकारी बदलाव के बावजूद देश के एक बड़े हिस्से को आज भी अपने मतलब की जरूरखबरों से वंचित रहना पड़ रहा है। अगर हम इन वैकल्पिक मीडिया के प्रकाशनों के विषय वस्तु व जानकारियों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि गांव, खेती, मजदूर, पलायन, पंचायत, महिला, सूचना का अधिकार, आदिवासी, शिक्षा, बच्चे आदि ऐसे कई महत्वपूर्ण विषय हैं जिनपर इन प्रकाशनों में ध्यान दिया जाता है। जाहिर सी बात है कि अगर इन विषयों पर मुख्यधारा मीडिया ध्यान दे रहा होता तो इन प्रकाशनों का अस्तित्व में आना और बना रहना संभव ही नहीं था।
हम यहां मुख्यधारा मीडिया की कमियों या खासियत की बात नहीं कर रहे, हम देश में जगह-जगह चल रहे छोटे-छोटे ऐसे सूचना प्रयासों की जानकारी आपको देना चाह रहे हैं जो आम लोगों की जरूरत पूरा करने में जी-जान से लगे हैं। इंटरनेट, विज्ञापन, टीवी और डिजिटल रेखा के उस पर रहने वाले आम लोगों की सूचना जरूरतें पूरी करना यूं भी संभवत: मुख्यधारा मीडिया के एजेंडे में नहीं है। आइए कुछ प्रयासों पर नजर डालते हैं। उजाला छड़ी एक टेबुलाइड अखबार है, जो जयपुर से प्रकाशित होता है। इसका उद्देश्य ग्रामीणों की उन सूचना जरूरतों को पूरा करना है जो मुख्यधारा मीडिया से पूरी नहीं हो पातीं। जनता के लिए निकाले जा रहे इस मासिक ग्रामीण् समाचार पत्र को निकलते 14 पूरे हो चुके हैं। इस बीच इसने कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन आज यह सफलतापूर्वक राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में पंचायती राज को लोकतांत्रिक, उत्तरदायी और जनभागीदारीपूर्ण बनाने, सूचना के अधिकार की जनसुनवाईयों को सार्वजनिक करनेह, महिला आंदोलन की सफलताओं की छोटी-छोटी कहानियां प्रकाशित कर अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा है। इसकी संपादिका ममता जेतली जो शुरू से ही इस मुहिम में शामिल रही हैं, को हंगर प्रोजेक्ट की ओर से पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका पर लेखन के लिए दो लाख रुपयों का पुरस्कार मिला है। वह सारी राशि भी इसी अखबार को चलाए रखने में झोंक दी गई है।
उजाला छड़ी के एक अंक की एक बानगी इसे समझने के लिए काफी होगी। इसके पहले पेज पर महिला यौन हिंसा के खिलाफ जारी मुहिम की जानकारी है, साथ ही जयपुर में चलाए जा रहे 'आपरेशन गरिमा' के बारे में भी बताया गया है। इसमें यौन हिंसा की शिकार लड़कियों, महिलाओं की सहूलियत के लिए टेलीफोन नंबर दिए गए है, जिनपर वे शिकायत दर्ज कर सकती हैं। अखबार के संपादकीय में राजनीतिक टिप्पणियों की परंपरा से बचते हुए रोशनी और इंद्रा नामक दो सगी बहनों को तलाक के बाद मिलने वाले गुजारे भत्ते की सफल संर्घष गाथा बताई गई है। यह जानकारी ग्रामीण क्षेत्र की कई दूसरी महिलाओं के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। अखबार में खेमीबाई की कहानी एक पूरे पेज में दी गई है जिसे महिला कार्यकर्ताओं तथा पंचायत के सम्मिलित प्रयासों के बाद डायन कहलाने के अभिशाप से मुक्ति मिली है। अखबार की अन्य महत्वपूर्ण खबरों में चित्तौड़गढ़ में पंचायत स्तर पर सूचना के अधिकार की लड़ाई, केंद्र सरकार द्वारा रोजगार गारंटी कानून बनाने की मंशा के साथ-साथ एक ढाणी की महिलाओं द्वारा पानी और स्कूल की कमी आपसी सहभागिता से दूर करने की सफल कहानी भी शामिल है। उजाला छड़ी कुल 8 पन्नों का अखबार है जिसमें मुख्यधारा अखबारों के विपरीत बड़े अक्षरों में खबरें छपती हैं ताकि गांव, देहात में लोग आसानी से इसे पढ़ सकें। इसकी खास बात यह है कि दूर-दराज के गांवों के इसके पाठक अपनी तमाम तरह की जिज्ञासाएं, सवाल भी संपादक के नाम पत्र में लिखते हैं, जिनसे उनकी समस्याओं, सफलताओं की जानकारी मिलती है। कई बार इस छोटे से अखबार में प्रकाशित छोटी-छोटी जानकारियां बड़े अखबारों के लिए स्कूप का भी काम करती हैं। जाहिर है कि अपने नाम के ही अनुरूप उजाला छड़ी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में सूचनाओं का उजाला फैला रही है।
ऐसे प्रयास और भी हैं। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से दिशा संवाद नामक पत्रिका प्रकाशित होती है और प्रदेश के अलावा देश के कई भागों में प्रसारित होती है। दिशा संवाद भी तकरीबन एक दशक से छोटी-मोटी बाधाओं के साथ निकल रही है। फिलहाल आर्थिक कारणों से यह दिक्कत में है। इस पत्रिका की खास बात यह है कि इसके तमाम लेखक वे युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो मध्यप्रदेश के तमाम जिलों में जनमुद्दों पर सक्रिय काम कर रहे हैं। दिशा संवामुद्दों की एडवोकेसी के लिए मीडिया को एक सशक्त माध्यम मानता है और सामाजिक कार्यकर्ताओं को पिछले एक दशक से छोटी-छोटी लेखन कार्यशालाओं के जरिए मुद्दों पर लेखन के लिए तैयार करता आया है। आज उसके लिए मध्यप्रदेश में तकरीबन एक सौ मुद्दाधारित लेखकों की सूची है। खास बात यह है कि दिशा संवाद के लेखक मुद्दों के प्रसार के लिए केवल इस पत्रिका को ही आधार नहीं बनाते, बल्कि वे स्थानीय मुख्यधारा अखबारों में भी निरंतर स्थान बनाते हैं। यह स्थान लेख या फीचर के रूप में न मिले तो भी इन्हें कोई अफसोस नहीं होता क्योंकि अक्सर होशंगाबाद जिले के सभी अखबारों के संपादकों के नाम के तमाम पत्र केवल इन्हीं लेखकों के लिखे होते हैं। कई बार दिशा संवाद ने अपने लेखकों के जरिए स्थानीय स्तर पर ऐसे मुद्दे उठाए हैं, जिनकी स्थानीय मीडिया को कोई खबर तक नहीं थी। मसलन, जिले में साक्षरता पर जारी एक मुहिम के सरकारी दावों की पड़ताल जब दिशा संवाद के लेखकों ने क्षेत्र में जाकर की और उसे फर्जी पाया तो अपनी पत्रिका में उसपर एक रपट जारी की। इसे जिला प्रशासन ने गंभीरता से लिया और सरकारी की विफलता के बजाय दिशा संवाद की रपट को संदेहास्पद मानते हुए दुबारा जांच करवाई। लेकिन दिशा संवाद सही साबित हुआ और जिला प्रशासन को साक्षरता मुहिम के अपने दावे वापस लेने पड़े। इसी तरह खेती का निजीकरण, जेनेटिक मॉडिफाइड बीज, आदिवासियों पर अत्याचार जैसे कई मामले हैं, जिनमें दिशा संवाद ने पहल की और सफलता हासिल की। कुल एक हजार प्रतियों वाले इस प्रकाशन से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
इसी तरह बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले में वनांगना नामक संस्था के सहयोग से सात स्थानीय महिलाएं पिछले दो साल से 'खबर लहरिया' नामक अखबार निकाल रही है। इसकी सफलता की कहानी इसी से आंकी जा सकती है कि इस साल यह 'चमेली देवी जैन' पुरुस्कार से नवाजा जा चुका है। बुंदेली भाषा में निकल रहे इस अखबार की प्रसार संख्या भी एक हजार ही है, लेकिन जिले के कई मुद्दों को उठाने और ग्रामीणों को स्वास्थ्य, मजदूरी, सूचना आदि की जानकारी देने में इसने कई मिसाल कायम की है। ऐसे प्रकाशनों का सिलसिला लंबा है। देवास, मध्यप्रदेश से पिछले तीन सालों से पंचतंत्र नाम मासिक अखबार निकल रहा है जिसमें केवल पंचायतों से जुड़ी जानकारियां ही दी जाती हैं। एकलव्य नामक संस्था के बैनर तले शुरू हुए इस अखबार के लेखकों में ज्यादातर पंचायती राज से जुड़े सदस्य हैं। पंचतंत्र जिले की तमाम पंचायतों के अलावा जिला व राज्य प्रशासन को भी भेजा जाता है। और अब लोगों के सफल प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर अखबार के संपादक व राज्य के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र बंधु ने इसे संस्था के दायरे से बाहर निकालकर व्यावसायिक अखबार का स्वरूप देने का फैसला किया है। बंधु यह सुनिश्चित करते हैं कि अखबार के फैलाव से इसके उद्देश्य और प्रतिबद्धता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
झारखंड भी इस मुहिम से अछूता नहीं है। वहां कई तरह के प्रयोग जारी हैं। संवाद मंथन नामक फीचर सेवा में हर माह मुख्यधारा मीडिया में 15 मुद्दाधारित आलेखफीचर भेजे जाते हैं। इसके लिए राज्य में जगह-जगह लेखन कार्यशालाओं के जरिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को लेखन का प्रशिक्षण दिया जाता है। ध्यान देने वाली बात है संवाद मंथन राज्य की जेलों में बंद पोटा के शिकार बच्चों से लेकर, दिल्ली जाकर गुम होने वाली झारखंडी लड़कियों तक की तथ्यपरक जानकारियों अपने लेखों में शामिल करता है, जो मुख्यधारा मीडिया से किसी भी मायने में कमतर नहीं है। इसके अलावा गांव सभा नामक एक मासिक पत्रिका में पंचायत से जुड़े तमाम पहलुओं तथा सरकारी घोषणाओं को संक्षिप्त, सरल भाषा में आम ग्रामीणों को मुहैया कराया जाता है। रांची से ही 'खान, खनिज और अधिकार' नामक मासिक अखबार प्रकाशित हो रहा है, जिसमें राज्य में खनन से जुड़े तमाम मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है। खासकर मजदूरों को उचित मजदूरी, खनन में विदेशी कंपनियों की दखल, खनन से जल, जंगल, जमीन को नुकसान आदि कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनपर राज्य के मुख्यधारा मीडिया ने अब तक कोई विशेष रवैया नहीं अपनाया है, लेकिन इस अखबार का लक्ष्य ही ऐसे मुद्दों को उठाना है। इसी तर्ज पर राजस्थान के जोधपुर जिले से स्वराज नामक प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका में जमीन, जंगल, पंचायत, दलित, महिला आदि मुद्दों पर नियमित उपयोगी जानकारियां राज्य के विभिन्न जिलों के ग्रामीणों तक पहुंचती हैं। इसी राज्य में 'एकल नारी की आवाज' नामक अखबार में राज्य में जारी एकल नारी आंदोलन की खबरें स्थान पाती हैं। गौरतलब है कि राजस्थान देश का ऐसा पहला राज्य है जहां करीब 35 हजार एकल नारियों ने एकजुट होकर अपने अधिकारों का झंडा बुलंद किया है, यह अखबार उनके संर्घष का एक प्रमुख औजार है।
उत्तरांचल से भी 'मध्य हिमालय' नामक मासिक पत्रिका पिछले लंबे समय से राज्य के जनमुद्दों को उठाने में सक्रिय भूमिका निभाती आ रही है। पिथौरागढ़ से निकल रही इस पत्रिका के संपादक दिनेश जोशी खुद पत्रकार रचुके हैं तथा आजकल हिमालय स्टडी सर्किल नामक संस्था के जरिए राज्य के भिन्न मुद्दों पर काम कर रहे हैं। पत्रिका में पंचायती राज, जंगल, महिलाएं, स्वास्थ्य, रोजगार आदि बुनियादी मुद्दों पर लेख, फीचर व सरकारी जानकारियां भी शामिल की जाती हैं। इनके अलावा पुणे से 'प्रोटेक्टेड एरिया अपडेट' जिसमें देश भर के अभयारण्यों तथा जंगलों से आदमियों के रिश्तों की तथ्यात्मक जानकारियां दी जाती हैं, दिल्ली से 'डेम, रिवर एंड पीपुल' जिसमें देश भर में बांधों, नदियों तथा लोगों के मुद्दों को स्थान मिलता है, नियमित प्रकाशित होने वाले वैकल्पिक प्रकाशनों में गिने जा सकते हैं। यह सच है कि इन तमाम वैकल्पिक प्रकाशनों में से किसी की भी प्रसार संख्या एक या दो हजार से अधिक की नहीं है, लेकिन इसके पाठकों की खासियत यह है कि वे खुद को मिली जानकारियों को आगे कई गुना पाठकों तक पहुंचाते हैं। जाहिर है कि ये प्रकाशन चेन रिएक्शन की तरह जानकारियों का प्रचार-प्रसार करते हैं। मुख्यधारा मीडिया से इतर जारी इस वैकल्पिक प्रकाशनों का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है क्योंकि मुख्यधारा मीडिया की विषयवस्तु और आम जनता के उपयोग की जानकारियों की खाई बढ़ती ही जा रही है। शायद ये छोटे-छोटे प्रकाशन भविष्य की सामुदायिक पत्रकारिता का आधार बने।
हम यहां मुख्यधारा मीडिया की कमियों या खासियत की बात नहीं कर रहे, हम देश में जगह-जगह चल रहे छोटे-छोटे ऐसे सूचना प्रयासों की जानकारी आपको देना चाह रहे हैं जो आम लोगों की जरूरत पूरा करने में जी-जान से लगे हैं। इंटरनेट, विज्ञापन, टीवी और डिजिटल रेखा के उस पर रहने वाले आम लोगों की सूचना जरूरतें पूरी करना यूं भी संभवत: मुख्यधारा मीडिया के एजेंडे में नहीं है। आइए कुछ प्रयासों पर नजर डालते हैं। उजाला छड़ी एक टेबुलाइड अखबार है, जो जयपुर से प्रकाशित होता है। इसका उद्देश्य ग्रामीणों की उन सूचना जरूरतों को पूरा करना है जो मुख्यधारा मीडिया से पूरी नहीं हो पातीं। जनता के लिए निकाले जा रहे इस मासिक ग्रामीण् समाचार पत्र को निकलते 14 पूरे हो चुके हैं। इस बीच इसने कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन आज यह सफलतापूर्वक राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में पंचायती राज को लोकतांत्रिक, उत्तरदायी और जनभागीदारीपूर्ण बनाने, सूचना के अधिकार की जनसुनवाईयों को सार्वजनिक करनेह, महिला आंदोलन की सफलताओं की छोटी-छोटी कहानियां प्रकाशित कर अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा है। इसकी संपादिका ममता जेतली जो शुरू से ही इस मुहिम में शामिल रही हैं, को हंगर प्रोजेक्ट की ओर से पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका पर लेखन के लिए दो लाख रुपयों का पुरस्कार मिला है। वह सारी राशि भी इसी अखबार को चलाए रखने में झोंक दी गई है।
उजाला छड़ी के एक अंक की एक बानगी इसे समझने के लिए काफी होगी। इसके पहले पेज पर महिला यौन हिंसा के खिलाफ जारी मुहिम की जानकारी है, साथ ही जयपुर में चलाए जा रहे 'आपरेशन गरिमा' के बारे में भी बताया गया है। इसमें यौन हिंसा की शिकार लड़कियों, महिलाओं की सहूलियत के लिए टेलीफोन नंबर दिए गए है, जिनपर वे शिकायत दर्ज कर सकती हैं। अखबार के संपादकीय में राजनीतिक टिप्पणियों की परंपरा से बचते हुए रोशनी और इंद्रा नामक दो सगी बहनों को तलाक के बाद मिलने वाले गुजारे भत्ते की सफल संर्घष गाथा बताई गई है। यह जानकारी ग्रामीण क्षेत्र की कई दूसरी महिलाओं के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। अखबार में खेमीबाई की कहानी एक पूरे पेज में दी गई है जिसे महिला कार्यकर्ताओं तथा पंचायत के सम्मिलित प्रयासों के बाद डायन कहलाने के अभिशाप से मुक्ति मिली है। अखबार की अन्य महत्वपूर्ण खबरों में चित्तौड़गढ़ में पंचायत स्तर पर सूचना के अधिकार की लड़ाई, केंद्र सरकार द्वारा रोजगार गारंटी कानून बनाने की मंशा के साथ-साथ एक ढाणी की महिलाओं द्वारा पानी और स्कूल की कमी आपसी सहभागिता से दूर करने की सफल कहानी भी शामिल है। उजाला छड़ी कुल 8 पन्नों का अखबार है जिसमें मुख्यधारा अखबारों के विपरीत बड़े अक्षरों में खबरें छपती हैं ताकि गांव, देहात में लोग आसानी से इसे पढ़ सकें। इसकी खास बात यह है कि दूर-दराज के गांवों के इसके पाठक अपनी तमाम तरह की जिज्ञासाएं, सवाल भी संपादक के नाम पत्र में लिखते हैं, जिनसे उनकी समस्याओं, सफलताओं की जानकारी मिलती है। कई बार इस छोटे से अखबार में प्रकाशित छोटी-छोटी जानकारियां बड़े अखबारों के लिए स्कूप का भी काम करती हैं। जाहिर है कि अपने नाम के ही अनुरूप उजाला छड़ी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में सूचनाओं का उजाला फैला रही है।
ऐसे प्रयास और भी हैं। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से दिशा संवाद नामक पत्रिका प्रकाशित होती है और प्रदेश के अलावा देश के कई भागों में प्रसारित होती है। दिशा संवाद भी तकरीबन एक दशक से छोटी-मोटी बाधाओं के साथ निकल रही है। फिलहाल आर्थिक कारणों से यह दिक्कत में है। इस पत्रिका की खास बात यह है कि इसके तमाम लेखक वे युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो मध्यप्रदेश के तमाम जिलों में जनमुद्दों पर सक्रिय काम कर रहे हैं। दिशा संवामुद्दों की एडवोकेसी के लिए मीडिया को एक सशक्त माध्यम मानता है और सामाजिक कार्यकर्ताओं को पिछले एक दशक से छोटी-छोटी लेखन कार्यशालाओं के जरिए मुद्दों पर लेखन के लिए तैयार करता आया है। आज उसके लिए मध्यप्रदेश में तकरीबन एक सौ मुद्दाधारित लेखकों की सूची है। खास बात यह है कि दिशा संवाद के लेखक मुद्दों के प्रसार के लिए केवल इस पत्रिका को ही आधार नहीं बनाते, बल्कि वे स्थानीय मुख्यधारा अखबारों में भी निरंतर स्थान बनाते हैं। यह स्थान लेख या फीचर के रूप में न मिले तो भी इन्हें कोई अफसोस नहीं होता क्योंकि अक्सर होशंगाबाद जिले के सभी अखबारों के संपादकों के नाम के तमाम पत्र केवल इन्हीं लेखकों के लिखे होते हैं। कई बार दिशा संवाद ने अपने लेखकों के जरिए स्थानीय स्तर पर ऐसे मुद्दे उठाए हैं, जिनकी स्थानीय मीडिया को कोई खबर तक नहीं थी। मसलन, जिले में साक्षरता पर जारी एक मुहिम के सरकारी दावों की पड़ताल जब दिशा संवाद के लेखकों ने क्षेत्र में जाकर की और उसे फर्जी पाया तो अपनी पत्रिका में उसपर एक रपट जारी की। इसे जिला प्रशासन ने गंभीरता से लिया और सरकारी की विफलता के बजाय दिशा संवाद की रपट को संदेहास्पद मानते हुए दुबारा जांच करवाई। लेकिन दिशा संवाद सही साबित हुआ और जिला प्रशासन को साक्षरता मुहिम के अपने दावे वापस लेने पड़े। इसी तरह खेती का निजीकरण, जेनेटिक मॉडिफाइड बीज, आदिवासियों पर अत्याचार जैसे कई मामले हैं, जिनमें दिशा संवाद ने पहल की और सफलता हासिल की। कुल एक हजार प्रतियों वाले इस प्रकाशन से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
इसी तरह बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले में वनांगना नामक संस्था के सहयोग से सात स्थानीय महिलाएं पिछले दो साल से 'खबर लहरिया' नामक अखबार निकाल रही है। इसकी सफलता की कहानी इसी से आंकी जा सकती है कि इस साल यह 'चमेली देवी जैन' पुरुस्कार से नवाजा जा चुका है। बुंदेली भाषा में निकल रहे इस अखबार की प्रसार संख्या भी एक हजार ही है, लेकिन जिले के कई मुद्दों को उठाने और ग्रामीणों को स्वास्थ्य, मजदूरी, सूचना आदि की जानकारी देने में इसने कई मिसाल कायम की है। ऐसे प्रकाशनों का सिलसिला लंबा है। देवास, मध्यप्रदेश से पिछले तीन सालों से पंचतंत्र नाम मासिक अखबार निकल रहा है जिसमें केवल पंचायतों से जुड़ी जानकारियां ही दी जाती हैं। एकलव्य नामक संस्था के बैनर तले शुरू हुए इस अखबार के लेखकों में ज्यादातर पंचायती राज से जुड़े सदस्य हैं। पंचतंत्र जिले की तमाम पंचायतों के अलावा जिला व राज्य प्रशासन को भी भेजा जाता है। और अब लोगों के सफल प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर अखबार के संपादक व राज्य के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र बंधु ने इसे संस्था के दायरे से बाहर निकालकर व्यावसायिक अखबार का स्वरूप देने का फैसला किया है। बंधु यह सुनिश्चित करते हैं कि अखबार के फैलाव से इसके उद्देश्य और प्रतिबद्धता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
झारखंड भी इस मुहिम से अछूता नहीं है। वहां कई तरह के प्रयोग जारी हैं। संवाद मंथन नामक फीचर सेवा में हर माह मुख्यधारा मीडिया में 15 मुद्दाधारित आलेखफीचर भेजे जाते हैं। इसके लिए राज्य में जगह-जगह लेखन कार्यशालाओं के जरिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को लेखन का प्रशिक्षण दिया जाता है। ध्यान देने वाली बात है संवाद मंथन राज्य की जेलों में बंद पोटा के शिकार बच्चों से लेकर, दिल्ली जाकर गुम होने वाली झारखंडी लड़कियों तक की तथ्यपरक जानकारियों अपने लेखों में शामिल करता है, जो मुख्यधारा मीडिया से किसी भी मायने में कमतर नहीं है। इसके अलावा गांव सभा नामक एक मासिक पत्रिका में पंचायत से जुड़े तमाम पहलुओं तथा सरकारी घोषणाओं को संक्षिप्त, सरल भाषा में आम ग्रामीणों को मुहैया कराया जाता है। रांची से ही 'खान, खनिज और अधिकार' नामक मासिक अखबार प्रकाशित हो रहा है, जिसमें राज्य में खनन से जुड़े तमाम मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है। खासकर मजदूरों को उचित मजदूरी, खनन में विदेशी कंपनियों की दखल, खनन से जल, जंगल, जमीन को नुकसान आदि कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनपर राज्य के मुख्यधारा मीडिया ने अब तक कोई विशेष रवैया नहीं अपनाया है, लेकिन इस अखबार का लक्ष्य ही ऐसे मुद्दों को उठाना है। इसी तर्ज पर राजस्थान के जोधपुर जिले से स्वराज नामक प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका में जमीन, जंगल, पंचायत, दलित, महिला आदि मुद्दों पर नियमित उपयोगी जानकारियां राज्य के विभिन्न जिलों के ग्रामीणों तक पहुंचती हैं। इसी राज्य में 'एकल नारी की आवाज' नामक अखबार में राज्य में जारी एकल नारी आंदोलन की खबरें स्थान पाती हैं। गौरतलब है कि राजस्थान देश का ऐसा पहला राज्य है जहां करीब 35 हजार एकल नारियों ने एकजुट होकर अपने अधिकारों का झंडा बुलंद किया है, यह अखबार उनके संर्घष का एक प्रमुख औजार है।
उत्तरांचल से भी 'मध्य हिमालय' नामक मासिक पत्रिका पिछले लंबे समय से राज्य के जनमुद्दों को उठाने में सक्रिय भूमिका निभाती आ रही है। पिथौरागढ़ से निकल रही इस पत्रिका के संपादक दिनेश जोशी खुद पत्रकार रचुके हैं तथा आजकल हिमालय स्टडी सर्किल नामक संस्था के जरिए राज्य के भिन्न मुद्दों पर काम कर रहे हैं। पत्रिका में पंचायती राज, जंगल, महिलाएं, स्वास्थ्य, रोजगार आदि बुनियादी मुद्दों पर लेख, फीचर व सरकारी जानकारियां भी शामिल की जाती हैं। इनके अलावा पुणे से 'प्रोटेक्टेड एरिया अपडेट' जिसमें देश भर के अभयारण्यों तथा जंगलों से आदमियों के रिश्तों की तथ्यात्मक जानकारियां दी जाती हैं, दिल्ली से 'डेम, रिवर एंड पीपुल' जिसमें देश भर में बांधों, नदियों तथा लोगों के मुद्दों को स्थान मिलता है, नियमित प्रकाशित होने वाले वैकल्पिक प्रकाशनों में गिने जा सकते हैं। यह सच है कि इन तमाम वैकल्पिक प्रकाशनों में से किसी की भी प्रसार संख्या एक या दो हजार से अधिक की नहीं है, लेकिन इसके पाठकों की खासियत यह है कि वे खुद को मिली जानकारियों को आगे कई गुना पाठकों तक पहुंचाते हैं। जाहिर है कि ये प्रकाशन चेन रिएक्शन की तरह जानकारियों का प्रचार-प्रसार करते हैं। मुख्यधारा मीडिया से इतर जारी इस वैकल्पिक प्रकाशनों का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है क्योंकि मुख्यधारा मीडिया की विषयवस्तु और आम जनता के उपयोग की जानकारियों की खाई बढ़ती ही जा रही है। शायद ये छोटे-छोटे प्रकाशन भविष्य की सामुदायिक पत्रकारिता का आधार बने।
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