Tuesday, May 27, 2008

पर्यावरण- बचाने और बेचने की चिंता

बीती 22 मई का दिन दुनिया भर में जैव विविधता दिवस के रूप में मनाया गया और आने वाले 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने की परंपरा का भी बखूबी पालन होगा। ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया को वाकई पर्यावरण की बेहद चिंता है और वह भिन्न दिवसों, सेमिनारों, भाषणों, रैलियों आदि-आदि के जरिए अपनी चिंता जताते भी रहती है। लेकिन आज सबसे बड़ी चिंता यह है कि जिन्हें वाकई जल, जंगल, जमीन, जानवर और जीवन की चिंता है उनकी चिंता किसी को नहीं है। और वह है हमारा आदिवासी समाज।
सच यही है कि सदियों से जंगलों के साथ जीवन का रिश्‍ता निभा रहे आदिवासी ही वह एकमात्र कड़ी हैं जो आज भी घटते जंगल और बिगड़ते पर्यावरण को बचाने में हमारी मदद कर सकते हैं। पर इनकी सुनता कोन है। उलटे इन आदिवासियों को जंगल बचाने के नाम पर अपने जीवन से बेदखल करने के प्रयास दुनिया भर में जारी हैं। आइए देखते हैं कैसा है जंगलों से आदिवासियों का रिश्‍ता।
आदिवासी तमाम नारों, देशी-विदेशी अनुदानों या सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं, आंदोलनों में शामिल हुए बगैर जंगल बचाना चाहते हैं, ताकि उनका अपना अस्तित्व बचा रह सके। ये उनके लिए प्रोजेक्ट नहीं जीवन का प्रश्‍न है। अगर जंगलों का प्रयोग करने के आदिवासियों के कुछ नियम व तरीके देखे जाएं तो हमें पता चलेगा कि वे कितने टिकाऊ और महत्वपूर्ण हैं। आइए देखते हैं मध्यप्रदेश्‍ा के मंडला और डिंडौरी के प्रागैतिहासिक बैगा आदिवासी जंगल से जड़ी-बूटी निकालने के क्या तरीके अपनाते हैं। बैगा प्रसव के दौरान कल्ले (एक पेड़) की छाल का उपयोग करते हैं। छाल निकालने से पहले वे वृक्ष को दाल, चावल का न्यौता देते हैं, फिर धूप से उसकी पूजा करते हैं, मंत्रोच्चार करते हैं, फिर कुल्हाड़ी के एक वार से जितनी छाल निकल जाए महज उतनी का ही इस्तेमाल वे दवा के रूप में करते हैं। बैगाओं के मानना है कि अगर वे इस नियम को न लागू करें तो कल्ले का पेड़ तो बचेगा ही नहीं। इसी तरह पेट दर्द, उल्टी दस्त व आंव के लिए महुआ तथा पंडरजोरी की छाल का इस्तेमाल होता है, इस बार नियम तीन बार कुल्हाड़ी मारने पर निकली छाल के उपयोग करने का होता है।
इसी तरह आधे सिर का दर्द होने पर तिनसा झाड़ की छाल का उपयोग किया जाता है। इसकी छाल एक विश्‍ोष विधि से सूर्योदय व नित्यकर्म आदि से भी पहले निकाली जाती है। इसके लिए पेड़ से एक निश्‍चित दूरी बनाकर सांस रोककर एक पत्थर उठाया जाता है फिर पेड़ के तीन चक्कर लगाकर पत्थर से पेड़ को तीन बार ठोंकते हैं, इसके बाद कुल्हाड़ी के एक वार से जितनी छाल निकल जाए, उसे लेकर पत्थर को वापस अपनी जगह पर रखना होता है, ध्यान यह रखना है कि इस समूची प्रक्रिया के दौरान सांस नहीं टूटनी चाहिए। इससे देखा जा सकता है कि चाहकर भी आदिवासी पेड़ों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। उलटे अपनी सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक जरूरतों के लिए जंगल बचानके अलावा उसके लिए कोई और विकल्प बचता ही नहीं है। एक उदाहरण देखते हैं झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांड प्रखंड के एक टोले खपुरतला का जो औराटोली गांव में आता है। इस टोले की अगुवाई में समूचे गांव ने करीब 200 एकड़ का जंगल बचाया है जिसमें साल के साथ आम, चिरौंजी, पिठवाइर, जामुन, घुंई, कनवद जैसे पेड़ों के अलावा कई तरह की झाड़ियां तथा जड़ी-बूटियां भी हैं। यह कवायद बिना किसी वानिकी परियोजना या संस्था की मदद के की गई है। एक आदिवासी विलयम टोप्पो ने, जो जंगल विभाग में नौकरी न मिलने पर वापस घर आ गया अपने घर के पास दो एकड़ जंगल बचाकर इसकी शुरुआत की और फिर पूरे गांव में यह प्रक्रिया इस तरह अंजाम चढ़ी कि आज वह 200 एकड़ के घने जंगल का मालिक है। इसके लिए समूचे इलाके में कुल्हाड़ी बंदी की घोषणा, शादी मंडप के लिए कम लकड़ी का इस्तेमाल, और जंगल काटने वाले की सूचना देने पर पुरस्कार की घोषणा जैसी गतिविधियों ने इन्हें सफलता दिलाई।
ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें आदिवासियों, ग्रामीणों या संस्थाओं के प्रयासों से जंगल बचाने, बढ़ाने के सफल प्रयास किए गए हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर चल रहे राष्‍ट्रीय, अंतर्राष्‍ट्रीय परियोजनाओं से समाज को पूरी तरह काट दिया गया है, खासकर आदिवासी समाज को। विश्‍व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार भारत में प्रतिर्वष 4 हजार वर्ग किमी की दर से जंगल घट रहे हैं, यानी भारत में वास्तविक वन अब महज 12 प्रतिश्‍ात ही रह गये हैं। दूसरी ओर मध्यप्रदेश्‍ा, झारखंड, उड़ीसा यानी वे क्षेत्र जहां आदिवासी और जंगलों की बहुतायत है में जंगलों को बचाने के नाम पर आदिवासियों को गोलियों का श्‍ािकार बनाया गया है। देवास, मध्यप्रदेश्‍ा में पांच आदिवासी गांवों के 50 घर जलाकर खाक कर दिए गए और श्‍ आदिवासी पुलिस की गोलियों से मौत के शिकार बन गए। झारखंड में जंगलों में बांधों और खदानों का विरोध कर रहे दर्जनों आदिवासियों को गोली मारी जा चुकी है इसी तरह उड़ीसा में भी आदिवासियों को जंगल काटकर बाक्साइट खदान लगाने का विरोध करने पर गोलियों दागी गई हैं। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनसे साफ पता चलता है कि सरकार की असली मंशा जंगल बचाना नहीं जंगल बेचना है। ऐसे में आदिवासी के अलावा जंगल बचाने की जिम्मेदारी कोई और निभा पाएगा यह सोचना मुश्‍किल है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि आदिवासियों का पारंपरिक ज्ञान, वनाधारित जीवन श्‍ौली, वन संरक्षण की उनकी टिकाऊ सोच और दृष्‍िटकोण की अनदेखी कर वन्यप्राणी, जैव विविधता के नाम पर विदेशी सोच आधुनिक कह कर हम पर लादी जा रही है। अगर वास्तव में आने वाली पीढ़ी के लिए हमें जंगल की विरासत देनी है तो जंगल को महज लाभ के लिए नहीं, जीवन के लिए बचाने की सोच विकसित करनी होगी। दरअसल, जंगल और बाजार दो छोर हैं जिन्हें कभी आपस में नहीं मिलने देना चाहिए।

6 comments:

Sanjay Tiwari said...

हिन्दी में ब्लाग लेखन के लिए शुक्रिया.
विकास का धतूरा खाये हिन्दी पत्रकारिता में अधिकांश लोग ऐसे विषयों को अछूत विषय ही मानते हैं जबकि असल संकट यही है.

बहुत अच्छा लगा.

Sanjeet Tripathi said...

अच्छा लगा आपको हिंदी ब्लॉग जगत में देखकर!

Udan Tashtari said...

स्वागत है आपका और आपके विचारों का. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.

Uday Prakash said...

बहुत सी प्राथमिक चिंताओं को जगाने वाला एक ज़रूरी आलेख. शहडोल और अनूपपुर में भी, जहां टिंबर माफिया और वन विभाग की मिलीभगत से कुछ साल पहले हज़ारों साल (सरई) के पेड़ 'बोरर' नामक संक्रामक कीडे़ के बहाने से काट दिये गये और आदिवासियों के निस्तार के लिये अनिवार्य जंगलों से भी जिन्हें बेदखल किया गया, वहां भी यह जागरूकता ज़रुरी है. आपको बधाई.

अभय तिवारी said...

हालत चिंताजनक हैं.. इस चिंता को जन चेतना में कैसे बदला जाय..? पर क्या वह भी समस्या को गिरफ़्तार करने में समर्थ होगी..?

Rahul Pandita said...

Dear Aman

It was a pleasent surprise reading your comment on my blog. I have saved your number; will get in toouch, soon. Pay my regards to Sanjeev Kshitij.

All best
Rahul Pandita