यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संचार के साधनों में तेजी से हुई प्रगति के बावजूद आज हमें विकास संचार की संभावनाओं और जरूरतों पर बात करनी पड़ रही है। बीते कई दशाकों में जिस तेजी से संचार के साधनों में तकनीकी तरक्की हुई है उसी गति से संचार माध्यमों और मानवीय पहलुओं के जनपक्षीय सूचनाओं के बीच का अंतराल भी बढ़ा है।
दुखद है पर आज सच्चाई यही है कि हमारे संचार माध्यम सामाजिक सरोकारों और जन समस्याओं को लेकर खुद की भूमिका पर सबसे कम सवाल उठाते हैं, यानी दूसरों की खबरें लेने वाले खुद की खबर नहीं लेते। यह हालत तब है जब ये माध्यम सूचनाओं को हासिल करने और समाज तक पहुंचाने में तकनीकी और संचार क्रांति की वजह से सबसे प्रभावी स्थिति में हैं। खासकर आर्थिक सुविधाओं की दृष्िट से काफी अच्छी स्थिति में होनके बावजूद संचार माध्यमों पर संवेदनशील होने और जन भावनाओं को महसूस करने के संदर्भ में निष्पंद या बेजान होने के आरोपों की आवृत्ति बढ़ती जा रही है। मुख्यधारा के अखबारों में जो कुछ दिखाया, बताया जा रहा है और देशा में आमतौर पर, खासतौर पर आदिवासी क्षेत्रों में जो कुछ हो रहा है या महसूस किया जा रहा है उसके बीच का अंतर दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
आज सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है, सत्ता पंचायतों तक जा पहुंची है, लेकिन देश में लोकतंत्र कमजोर हुआ है। हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का जनहित में सक्रिय होना बेहद जरूरी है। दुर्भाग्य की बात है कि आज विधायिका और कार्यपालिका तमाम तरह की बुराईयों की शिकार बन चुकी है, अपराध, पक्षपात, आर्थिक घोटालों और तमाम तरह के आरोपों ने विधायिका और कार्यपालिका को घेर रखा है। दुख तो इस बात का है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए जिम्मेदार चौथे स्तंभ मीडिया ने भी अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभाई है। वह विधायिका और कार्यपालिका के आसपास ही घूमता नजर आ रहा है। आज मुख्यधारा मीडिया की तमाम खबरें विधायिका, कार्यपालिका के साथ समाज की नाकामियों, अपराधों, नेताओं के बयानों और दु8प्रचारों से भरी रहती हैं। इनमें समाज की सफलताएं, समाज को नई दिशा दिखाने की कोशिश या सच कहें तो सकारात्मक सोच का सर्वथा अभाव साफ दिखाई पड़ता है। अगर हम आने वाले भारत के लिए एक ऐसा सपना देख रहे हैं जिसमें सभी को सामाजिक न्याय मिले, समाज में समानता हो, भाईचारा हो, आपसी विश्वास हो, संसाधनों का समान बंटवारा हो तो हमें समाज को उस दिशा में ले जाने की कोशिश करनी होगी। हमें समाज को तोड़ने वाले बयान छापते रहने के बजाय समाज जोड़ने वाली छोटी-छोटी कोशिशों को बढ़ावा देने वाले प्रयास छापने होंगे। अगर मीडिया अब भी अपने स्वरूप, भूमिका और जिम्मेदारी को समझ नहीं सकेगा तो आने वाले समय में उसे समाज को जवाब देना होगा।
हमें यह याद रखना चाहिए कि जब हम कम्यूनिकेशन की बात करते है तो हमें यह याद रखना चाहिए कि कम्यूनिकेशन का अर्थ केवल सूचनाओं का हस्तान्तरण या ट्रांस्फर करने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसमें उस समाज या समुदाय की भागीदारी भी शामिल है जिसके बारे में कम्यूनिकेट किया जाता है। किसी भी समाज में सामाजिक व्यवस्थाएं केवल तभी अस्तित्व में आ सकती हैं और कायम रह सकती हैं जब उनमें भागीदारी करते लोग कम्यूनिकेशन के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े हुए हों। कम्यूनिकेशन की इसी जरूरत के कारण मनु8य को 'होमो कम्युनिकेटर' या 'संवादी मनुष्य' कहा जाता है, क्योंकि वह जो है (और जो हो सकता है) वह कम्यूनिकेट कर सकने की क्षमताओं के कारण हुआ है (और होगा)। जाहिर है कि कम्यूनिकेशन ही संस्कृति है और संस्कृति ही कम्यूनिकेशन।
लेकिन आज नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, कम्यूनिकेशन के नए-नए माध्यम सामने आ रहे हैं, और इसके असर से जो परिवर्तन हुआ है उसकी प्रक्रिया में मॉस कम्यूनिकेशन और तथा (व्यक्ति संप्रेषाण) इंडिविज्युअल कम्यूनिकेशके बीच की सीमाएं धुंधलाती जा रही हैं या कम होती जा रही हैं। जाहिर है कि दूर-दूर बिखरे समूहों में एक जैसी सामग्री का जन-संचार ज्यादा समय तक कम्यूनिकेशन का मुख्य स्वरूप नहीं रहेगा। इसी का एक नतीजा आज हमें अखबारों के तेजी से बढ़ते स्थानीय संस्करणों के रूप में दिखता है। उम्मीद यह है कि धीरे-धीरे आने वाले दिनों में मांग पर कम्यूनिकेशन यानी कम्यूनिकेशन आन डिमांड महत्वपूर्ण होता जाएगा।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि वर्तमान में सूचना-समाज (इंफार्मेशन सोसायटी) काफी तेजी से अस्तित्व में आ रहा है। ऐसे में मास कम्यूनिकेशन और अर्न्त-वैयक्तिक संप्रेषण (इंटरपर्सनल कम्यूनिकेशन) में विश्लेषण के आधार पर कोई सटीक विभाजन करना संभव नहीं होगा। ऐसा केवल तभी संभव हो सकता है जब हम मास कम्यूनिकेशन प्रोसेस (जन-संप्रेषण प्रक्रिया) को केवल सामग्री प्रसारण तक सीमित कर दें और उसके ग्रहणकर्ताओं (रिसेप्टर) को नजरअंदाज करें। लेकिन विकासशील देशों में, खासकर भारत में इंटरपर्सनल कम्यूनिकेशन के अलावा मास कम्यूनिकेशन का भी एक निर्णायक महत्व है। यह बात केवल स्वास्थ्य मुहिमें चलाने (एचआईवी एड्स) और नए आविष्कारों के प्रसार के बारे में ही नहीं, बल्कि राज्य के सभी नागरिकों से संबंधित विषयों के कम्यूनिकेशन के बारे में भी सच है। हमें यह सच्चाई स्वीकार करनी ही होगी कि लोकतंत्र, सामाजिक तथा आर्थिक न्याय, रा8ट्रीय एकीकरण, सामाजिक अनुशासन तथा आर्थिक प्रगति की विशेषताओं से संपन्न एक आधुनिक समाज का विकास जन माध्यमों को अपनाए बगैर संभव नहीं है। क्योंकि भारत जैसे विशाल ग्रामीण क्षेत्रों वाले समाज में केवल जन-माध्यम ही ग्रामवासियों तक सूचनाएं कम्यूनिकेट कर सकता है। एक कम्यूनिकेशन व्यवस्था ही इस बात को संभव कर पाती है कि ग्रामीण क्षेत्र की आबादियां स्वयं को निरंतर सूचना संपन्न बनाए रख सकें और अपनी राय जाहिर कर सकें। इसी से रा8ट्रीय अस्मिताएं निर्मित होती हैं तथा एक समाज सांस्कृतिक रूप से ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में विभाजित होने से बच सकता है।
यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है कि आधुनिकीकरण तथा विकास में तकनीकी प्रगति के अलावा लोकतंत्र की सफलता भी समाहित है, क्योंकि एक सफल लोकतंत्र में अधिकांशत: विरासत के आधार पर मिले पुराने सामाजिक ढांचे टूट जाते हैं। हमारे यहां राजे-महाराजे और सामंतों का युग अभी बहुत दूर नहीं गया है। लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण बात होती है - समाज के उन तबकों की राजनीतिक भागीदारी जो अब तक उससे बहि8कृत रखे गए थे, वंचित रखे गए थे। जाहिर है कि विकास का अर्थ अधिक मानवीय गरिमा, सुरक्षा, न्याय और समानता भी है। अगर हम अपनी विकास नीतियों को सफल मानते हैं तो इसका अर्थ यह होना चाहिए कि हमने समाज में मौजूद ठोस असमानताओं का उन्मूलन कर दिया, उनका खात्मा कर दिया। यानी सामाजिक समानता और न्याय। यहां समानता से मेरा अर्थ गरीबी की समानता नहीं, बल्कि सबसे बढ़कर अवसर की समानता है। हम जन-माध्यमों की सहायता से इस महत्वपूर्ण धारणा का व्यापक प्रसार कर सकते हैं कि समानता का अर्थ अवसर की समानता है। हमें इस बात को याद रखना होगा कि बुनियादी सामाजिक परिवर्तनों के दौर में जन माध्यमों का सबसे ज्यादा असर होता है। परिवर्तनों के ऐसे दौर में समाज के पारंपरिक मूल्य तथा संरचनाएं संक्रमण की हालत में होती हैं, और उनमें जन माध्यम बदलाव का रुख तय करने और नए विचार (समाज में सह-अस्तित्व के भावी लोकतांत्रिक स्वरूपों के बारे में) कम्यूनिकेट (संप्रेषित) करने में मददगार हो सकते हैं लेकिन इसकी शर्त यह है कि जन माध्यमों को अपनी विश्वसनीयता बनानी और कायम रखनी होगी।
जब हम जन माध्यमों की बात कर रहे हैं तो हमें ध्यान रखना होगा कि जन माध्यमों पर राज्य का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। जन माध्यमों पर कुछ शक्तिशाली लोगों या कंपनियों के नियंत्रण को भी लोकतंत्र के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है। जैसा कि आज हमारी राजधानी के कई अखबारों के साथ देखा जा रहा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ यह भी नहीं होना चाहिए कि अपने मतों का प्रसार करने का अवसर केवल कुछ शक्तिशाली लोगों या संगठनों तक सीमित होकर रह जाए। दरअसल प्रेस को सूचना प्रदान करने व जनमत तैयार करने के अलावा सरकार की आलोचना भी करनी चाहिए और सरकार पर अकुंश लगाए रखना चाहिए। अगर हम सूचना प्रवाह (इंफार्मेशन फ्लो) को नियंत्रित करते हैं तो समाज में अलोकतांत्रिक ढांचे बरकरार रहेंगे। यानी ऐसे ढांचे जिनमें मनु8य की गरिमा का सम्मान नहीं किया जाता और आबादी के साधनहीन तबकों को बेहतर जीवन की संभावनाओं का ज्ञान हासिल करने के अवसरों से वंचित रखा जाता है। सूचना का प्रवाह कम करने से एक और भी खतरा पैदा होता है। इसके लिए ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी पडेंग़ी जो तय करें कि कौन सी सूचनाएं 'घटायी' जाएं। और किन सूचनाओं का स्वरूप बदला जाए। सेंसरशिप को इसी का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।
आज की जरूरत यह है कि समाज के वंचित लोगों को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि वे तमाम तरह की सुविधाओं और संसाधनों से वंचित हैं और यह स्थिति अन्यायपूर्ण है; लेकिन उन्हें यह जानकारी भी होनी चाहिए कि इस हालत को समाप्त किया जा सकता है, ताकि वे अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए जरूरी उपाय करें। समाज को इस तरह की जानकारी देने के लिए कम्यूनिकेशन के जिस स्वरूप को आर्दश माना जाता है वह है विकास पत्रकारिता। एक आर्दश स्थिति में विकास पत्रकारिता को किसी राज्य की मैनेजमेंट को खतरे में डाले बगैर और शासन के अन्यायपूर्ण ढांचों को वैधता देने की कोशिशों में शामिल हुए बगैर जनता की जरूरतों के प्रति ध्यान देना चाहिए। विकास पत्रकारिता की इस धारणा का सर्वाधिक मुख्य बिंदु यह मूल्यवान मान्यता है कि प्रभावित लोगों को निर्णय करने, योजनाएं बनाने तथा विकास परियोजनाओं का क्रियान्वन करने की प्रक्रियाओं में अनिवार्य रूपसक्रिय भागीदार बनाया जाना चाहिए। इस उद्दे6य में सूचना के प्रसार के अलावा दो और महत्वपूर्ण कामों पर बल दिया जाता है: पहला है प्रभावितों या संबंधित लोगों को सक्रिय सहयोग के लिए उत्प्रेरित करना तथा और दूसरा है योजना-निर्माताओं यानि सरकार के मुकाबले उनके हितों की सक्रिय पैरवी करना।
यह बात भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में जनमुद़दों से जुड़े लोगों का संचार माध्यमों के प्रति रुझान बढ़ा है। ऐसा इसलिए हुआ है कि संचार माध्यमों ने आम भारतीय समाज में हो रही घटनाओं, प्रक्रियाओं और जमीनी स्तर पर काम कर रहे जनांदोलनों से जुड़े मुददों को सार्थक और विश्वसनीय ढंग से उठा पाने में नाकामी दिखाई है। यही कारण है कि जनांदोलनों और जन संगठनों के कार्यकर्ताओं ने संचार माध्यमों को अपने दायरे में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। एक समय था जब आंदोलन करने वाले आंदोलन करते थे और खबरें लिखने वाले वहां पहुंचकर खबरें लिखते थे, आज दुर्भाग्य से समय यह आ गया है कि आंदोलन करने वालों को आंदोलन के साथ-साथ खबरें भी लिखनी और अखबारों के कार्यालयों में पहुंचानी पड़ती हैं। खबरों की दुनिया के जादूगरों को आम आदमी के हितों को जानने- समझने के लिए अपने काम जमीन पर लगाने की कवायद नहीं करनी पड़ती। लेकिन इसका नुकसान यह हो रहा है कि जो लोग मीडिया का इस्तेमाल करना नहीं जानते उनके मुद़दे बेहद सीमित इलाके मे बंधे रह जाते हैं। उनकी सफलताएं, समस्याएं देश के बाकी हिस्से तक नहीं पहुंच पातीं। हमारा आराम तलब मीडिया छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के ठेठ आदिवासी क्षेत्रों में राहुल गांधी के साथ जाता है और उन्हीं के साथ वापस भी आ जाता है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज पत्रकारिता महज विज्ञप्ति पत्रकारिता तक संकुचित होकर रह गई है।
हमें इससे बाहर निकलने का रास्ता ढूंढना ही होगा। मीडिया की केंद्रीय सत्ता का विकेंद्रीकरण बेहद जरूरी है। आज सत्ता के विकेंद्रीकरण की खूब बातें होती हैं, पंचायत तक सत्ता को बिखेर दिया गया है, लेकिन इस सत्ता पर अंकुश लगाने वाले, वॉच डाग का काम करने वाले मीडिया का केंद्रीकरण हुआ है। आखिर मीडिया को क्यों नहीं विकेंद्रित किया गया। अगर गांव की एक अनपढ़ आदिवासी सरपंच को पूरे गांव की हुकूमत दी जा सकती है तो वहीं के एक पढ़े-लिखे युवक या युवती को मीडिया का प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता। कारण साफ है। सूचना में बड़ी ताकत है। केंद्र से पंचायत तक सत्ता मीडिया को अपने साथ रखना चाहती है, जो लोग मीडिया से जुड़े हैं वे सत्ता को अपने साथ रखना चाहते हैं और इस गठजोड़ में मारी जाती है बेचारी जनता।
यह सच है कि आज मीडिया में सूचनाएं बढ़ी हैं लेकिन खबरें घटी हैं। अखबारों के पन्ने बढ़ें हैं, रंगीन हुए हैं पर आम लोगों की तस्वीर नदारद होती जा रही है। अखबारों की खबरें घटनाप्रधान हो गई हैं, रोज ब रोज हम भ्रष्टाचार, अपराध, घोटाले की खबरें विस्तार के साथ पढ़ते हैं, लेकिन इस प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार कारकों या कारणों का विश्लेषण करने की जिम्मेदारी मीडिया नहीं निभा रहा है। वह प्रक्रिया पर ध्यानहीं दे रहा। मीडिया ने अपने खर्चे बढ़ा लिए हैं, उसे पूरा करने के लिए वह विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर हो गया है, जाहिर है विज्ञापनों की बढ़ोतरी का सीधा असर खबरों की कटौती से जुड़ा है।
पिछले दिनों देश के सात राज्यों में हुए एक मीडिया सर्वेक्षण में योजना आयोग द्वारा घोषित 100 सर्वाधिक गरीब जिलों के नजरिए से यह देखने की कोशिश की गई कि जनमुद्दों खासकर गरीबी और विकास के संदर्भ में मीडिया की भूमिका क्या, कैसी और कितनी रही है। इसके नतीजे बेहद निराशाजनक रहे हैं। मोटे तौर पर यह जानकारी हासिल हुई है कि खबरों का पांच फीसदी हिस्सा ही गरीबी या विकास संबंधी सूचनाओं को मिलता है, वह भी नियमित तौर पर नहीं। इसमें एक जानकारी यह निकल कर आई कि विकास या गरीबी दूर करने के प्रयासों में लगे लोग लगभग नगण्य मामलों में ऐसे मुद्दों से जुड़ी खबरों के स्रोत के रूप में सामने आए। ऐसी ज्यादातर खबरों के लिए सरकारी स्रोत जिम्मेदार रहे। जाहिर है कि समाज की ओर से व्यवस्थित पहल नहीं हो रही है।
ऐसे में यह पहल जरूरी है कि लोगों में अपनी नियति के प्रति निष्क्रिय और स्वीकारवादी नजरिए को समाप्त करने की कोशिश की जाए। हमें याद रखना होगा कि यह नजरिया गरीबी से गहरा संबंध रखता है। निरंकुशतावाद को बढ़ावा देने वाला यह निष्िक्रय नजरिया इस दृष्िटकोण में दिखता है कि हम घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते और हमारा जीवन ईश्वर के हाथों में हैं। हमारे देश की ज्यादातर समस्याएं समाज की इसी मानसिकता का परिणाम है।
और अंत में समाज के वंचितों, गरीबों की बात। अगर हम उनके नजरिए से देखें तो इस निष्क्रिय, स्वीकारवादी नजरिए को समाप्त करने के संदर्भ में हमें उनकी भूमिका का विशेष उल्लेख करना होगा। अनेक समाजों में उन्हें अभी भी एक दूसरे दर्जे का मनुष्य मान उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। ऐसे में वे पत्रकार जो विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं या होना चाहते हैं, उनके लिए दोहरी चुनौती और अवसर हैंउन्हें खुद वर्तमान स्थिति से जूझते हुए वंचितों, गरीबों की सही हालत को जानना, समझना और बेहद प्रभावी ढंग से उस पर लिखना होगा साथ ही उनके लिए बेहतर अवसरों की तलाश कर जरूरतमंद अन्य गरीबों तक ऐसी जानकारियां पहुंचानी होंगी।
अमन नम्र